आज देश के सांसद और विधायक एवं अन्य राजनेता अपने अपने भविष्य को लेकर भयभीत है। यह भय किसी आतंकवादी हमला अथवा महामारी को लेकर नही है अपितु यह भय भारत सरकार द्वारा बनाया गया ‘डीलिमिटेशन कमीशन‘ द्वारा दी गयी रिपोर्ट से व्यापत हो गया है। इससे एक नया सिस्टम आरक्षण के लिए बना है, जिस कारण भारत में देश की संसद एवं विधायिकाओं में आरक्षित सीटों की संख्या में स्वतः ही भारी वृद्धि हो जाती है।
इसका साफ अर्थ यह हुआ कि आने वाले समय में देश की लोकसभा एवं विधान सभा और अधिक आरक्षित होगी और भविष्य में देश में जातिवादी विभाजन को और ज्यादा ताकत मिलने वाली है। कमीशन को यह कार्य एवं अधिकार दिया गया है कि देश राज्यों एवं केन्द्र शासित क्षेत्रों में देश की जनसंख्या की संरचना के ढांचे का जातिगत अध्ययन करें और उसके आधार पर अनुसूचित जाति एवं जनजातियों के लिए नयी आरक्षित सीटों का चयन करें।
भारत सरकार के द्वारा जस्टिस कुलदीप सिंह की अध्यक्षता में बने इस आयोग के सुझावों पर अगर अमल होता है तो बड़ी संख्या में देश के वर्तमान नेताओं के चुनाव क्षेत्र आरक्षित हो जायेंगें। उन्हें या तो राजनीति से अवकाश लेना पड़ेगा या फिर उन्हें किसी नये चुनाव क्षेत्र का चयन करना पड़ेगा। इसके साथ ही साथ देशभर में जातिवादी एवं साम्प्रदायिक राजनेताओं की एक नयी फौज को सामने आने का रास्ता साफ होगा।
धर्म निरपेक्षता एवं सामाजिक न्याय का ये नायब उदहारण है। इस नये आकलन का सबसे ज्यादा प्रभाव हिन्दु बहुल क्षेत्रों पर ही पड़ेगा क्यांकि एक तो पिछले कुछ दशकों में देश में मुस्लिम आबादी एवं उनके क्षेत्र में काफी फैलाव हुआ है। दूसरे मुस्लिम बहुल क्षेत्रों से गैर मुस्लिमों का लगभग सफाया हो चुका है। इस कारण मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में अनुसूचित जाति एवं जनजाति की जनसंख्या लगभग खत्म हो चुकी है। इस कारण वहां आरक्षित सीटों की संख्या बढने के स्थान पर घट रही है। जैसे कश्मीर घाट़ी से गैर मुस्लिम लगभग साफ हो चुके हैं इस कारण वहां आरक्षित सीटों की संख्या खत्म होने की सम्भावना हो चली है।
आयोग को आरक्षित सीटों की संख्या सुनिश्चित करने के लिए सन 2001 की जनगणना के आंकड़ो को आधार बनाने के लिए निर्देश दिये गया था । इस आधार पर आरक्षित सीटों की संख्या बढना तय है। दूसरे शहरी क्षेत्रों की सीटों की संख्या का बढना तथा ग्रामीण क्षेत्रों की सीटों की संख्या का कम होना तय है क्योंकि पिछले लगभग दो दशकों में ग्रामीण क्षेत्रों से शहरी क्षेत्रों में जर्बजस्त पलायन हुआ हैं इसी प्रकार आरक्षित वर्ग की जनसंख्या में भी भारी वृद्धि हुई है जबकि गैर आरक्षित वर्ग के हिन्दुओं की जनसंख्या घट रही है। यह तथ्य आने वाले समय में देश में भारी राजनीतिक बदलाव के होंगें। यही कारण है कि बिहार के मुख्यमंत्री जीतन राम माझी यहां तक कह दिए की दूसरे धर्मो में शादी कर दे पीछड़े वर्ग के लोगों को अपनी जनसँख्या बढ़ानी चाहिए।
लोक सभा में सांसदों की संख्या का निर्धारण अनुच्छेद 81 के आधार पर किया जाता है जिसके आधार पर विभिन्न राज्यों को उनकी जनसंख्या के आधार पर सीटों का बटवारा किया जाता है। इसी प्रकार देश में अनुच्छेद 82 के आधार पर संख्या निर्धारण आयोग अथवा डिलिमिटेशन कमीशन का गठन किया जा सकता है जिसके आधार पर लोक सभा एवं विधान सभाओं में विभिन्न वर्गो के लिए सीटों का निर्धारण अथवा अरक्षण होता है।
अब यह दोनों संवैधानिक अनुच्छेद देश में विघटनकारी मानसिकता बढाने के लिए उत्तरदायी हैं। जिन राज्यों अथवा वर्गो की जनसंख्या घट रही है उनको यह दंड होगा कि उनका प्रतिनिधित्व भी कम होगा इसके विपरीत जिन राज्यों एवं वर्गो की जनसंख्या अधिक होगी उनका प्रतिनिधत्व उतना ही ज्यादा होगा। इसका सीधा मतलब यह होगा कि जो राज्य एवं वर्ग जनसंख्या बढ़ा कर देश एवं यहां के संसाधनों को बर्बाद कर रहे हैं उन्हें पुरस्कृत किया जायेगा जबकि जो राज्य एवं वर्ग जनसंख्या घटा कर राष्ट्र एवं राष्ट्र के संसाधनों की रक्षा कर रहे हैं उन्हें दण्ड दिया जायेगा।
यह भारत के महान संविधान की बड़ी विशेषताऐं हैं। इन्हीं बातों के मददेनजर दक्षिण भारत के राज्य इस तरह सीटो के निर्धारण का विरोध करते रहे है क्योंकि कुछ बीमार राज्य जैसे बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान, बंगाल, उड़ीसा, आबादी बढाने में बहुत आगे हैं जबकि दक्षिण के राज्य तथा पश्चिम के राज्यों में जनसंख्या वृद्धि की दर बहुत कम है। इसी प्रकार हिन्दुओं के गैर आरक्षित वर्गो की जनसंख्या वृद्धि की दर भी बहुत कम है।
इस सत्य को ध्यान में रखते हुऐ तथा दक्षिण भारत के राज्यों के विरोध के कारण संसद ने 1976 में एक संशोधन पास किया था जिसके अन्र्तगत लोकसभ में सीटों की संख्या में सन 2000 तक कोई भी वृद्धि नहीं होगी। इसके बाद यह समय सीमा 2026 तक बढा दी गई है।
अगर 1981-1991 के दशक की जनसंख्या बढोत्तरी पर निगाह डाली जाये तो उत्तर भारत एवं उत्तर पूर्व के राज्यों में यह वृद्धि 22 से 28 प्रतिशत थी जब कि दक्षिण के राज्यो में 15 प्रतिशत से भी कम रही। 1991-2001 की जनगणना में यह अन्तर और बढ गया। जनसंख्या वृद्धि दर उत्तर प्रदेश में 25.74, मध्यप्रदेश में 24.34, राजस्थान में 28.33, हरियाणा में 28.06 तथा बिहार में 28.43 रही। जनसंख्या वृि़द्ध की दर आसाम एवं बंगाम में तीस से भी आगे रही।
इसके विपरीत इसी दशक में केरल में सिर्फ 9.42, तमिलनाडु में 11.19, कर्णाटका मेें 17.25, आंध्रपेदश में 13.86 तथा गोवा में 14.89 रही। इससे स्पष्ट होता है कि अगर डिलिमिटेशन कमीशन के सुझावों पर अमल किया जाता है तो आने वाले वर्षो में देश में असफल राज्यों एवं असफल वर्गो का शासन होगा।
इस सत्यता को दरकिनार करते हुए सन 1998 में तत्कालीन एन डी ए सरकार ने, लोक सभा सीटों का पुर्नवितरण एवं उनकी संख्या में 50 प्रतिशत वृद्धि करने की कोशिश की थी परन्तु दक्षिण में बड़े नेताअें जैसे करूणा निधी एवं चन्द्रबाबू नायडू के कड़े विरोध के कारण वाजपेयी सरकार को अपनी कोशिश ठंड़े बस्ते में डालनी पड़ी थी।
अब एक बार पुन: केन्द्र की गठबन्धन सरकार इस योजना को लागू करने का प्रयत्न कर रहे थे । क्योंकि उसमें शामिल दो बड़े दल कांग्रेस एवं वाम परिवार को यह उम्मीद थी कि उसके लागू होने के बाद आरक्षित वर्गो की सीटों में बढोत्तरी होगी इसी के साथ इस नये सीमाकरण के बाद मुस्लिम वर्ग के सदस्यों की संख्या में भरी बढ़ोतरी होगी और यह दोनों दल अपने को देश में आरक्षण एवं इस्लाम के सबसे बड़े कोतवाल मानते हैं। इससे देश की राजनीति पर उनकी पकड़ मजबूत होगी।
सीटों के इस नये आवंटन से दक्षिण के दल, भारतीय जनता पार्टी तथा गैर आरक्षित वर्गो की राजनीति में पकड़ कम हो जायेगी। क्योंकि इनकी सीट एवं इनके क्षेत्रों में सीटों का घटना तय है। इससे स्पष्ट होता है कि सीटो का जनसंख्या के आधार पर बढवारे का वर्तमान फार्मूला अत्यन्त दोषपूर्ण है तथा यह राष्ट्र एवं समाज के हित में जरा भी नहीं है। राष्ट्र हित में यह होगा कि संविधान में संशोधन करके ऐसी व्यवस्थाओं को ही खत्म कर दिया जाये जिससे कि देश में जातिवादी एवं साम्प्रदायिक ताकतों को शक्ति मिलती हो।
इसका साफ अर्थ यह हुआ कि आने वाले समय में देश की लोकसभा एवं विधान सभा और अधिक आरक्षित होगी और भविष्य में देश में जातिवादी विभाजन को और ज्यादा ताकत मिलने वाली है। कमीशन को यह कार्य एवं अधिकार दिया गया है कि देश राज्यों एवं केन्द्र शासित क्षेत्रों में देश की जनसंख्या की संरचना के ढांचे का जातिगत अध्ययन करें और उसके आधार पर अनुसूचित जाति एवं जनजातियों के लिए नयी आरक्षित सीटों का चयन करें।
भारत सरकार के द्वारा जस्टिस कुलदीप सिंह की अध्यक्षता में बने इस आयोग के सुझावों पर अगर अमल होता है तो बड़ी संख्या में देश के वर्तमान नेताओं के चुनाव क्षेत्र आरक्षित हो जायेंगें। उन्हें या तो राजनीति से अवकाश लेना पड़ेगा या फिर उन्हें किसी नये चुनाव क्षेत्र का चयन करना पड़ेगा। इसके साथ ही साथ देशभर में जातिवादी एवं साम्प्रदायिक राजनेताओं की एक नयी फौज को सामने आने का रास्ता साफ होगा।
धर्म निरपेक्षता एवं सामाजिक न्याय का ये नायब उदहारण है। इस नये आकलन का सबसे ज्यादा प्रभाव हिन्दु बहुल क्षेत्रों पर ही पड़ेगा क्यांकि एक तो पिछले कुछ दशकों में देश में मुस्लिम आबादी एवं उनके क्षेत्र में काफी फैलाव हुआ है। दूसरे मुस्लिम बहुल क्षेत्रों से गैर मुस्लिमों का लगभग सफाया हो चुका है। इस कारण मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में अनुसूचित जाति एवं जनजाति की जनसंख्या लगभग खत्म हो चुकी है। इस कारण वहां आरक्षित सीटों की संख्या बढने के स्थान पर घट रही है। जैसे कश्मीर घाट़ी से गैर मुस्लिम लगभग साफ हो चुके हैं इस कारण वहां आरक्षित सीटों की संख्या खत्म होने की सम्भावना हो चली है।
आयोग को आरक्षित सीटों की संख्या सुनिश्चित करने के लिए सन 2001 की जनगणना के आंकड़ो को आधार बनाने के लिए निर्देश दिये गया था । इस आधार पर आरक्षित सीटों की संख्या बढना तय है। दूसरे शहरी क्षेत्रों की सीटों की संख्या का बढना तथा ग्रामीण क्षेत्रों की सीटों की संख्या का कम होना तय है क्योंकि पिछले लगभग दो दशकों में ग्रामीण क्षेत्रों से शहरी क्षेत्रों में जर्बजस्त पलायन हुआ हैं इसी प्रकार आरक्षित वर्ग की जनसंख्या में भी भारी वृद्धि हुई है जबकि गैर आरक्षित वर्ग के हिन्दुओं की जनसंख्या घट रही है। यह तथ्य आने वाले समय में देश में भारी राजनीतिक बदलाव के होंगें। यही कारण है कि बिहार के मुख्यमंत्री जीतन राम माझी यहां तक कह दिए की दूसरे धर्मो में शादी कर दे पीछड़े वर्ग के लोगों को अपनी जनसँख्या बढ़ानी चाहिए।
लोक सभा में सांसदों की संख्या का निर्धारण अनुच्छेद 81 के आधार पर किया जाता है जिसके आधार पर विभिन्न राज्यों को उनकी जनसंख्या के आधार पर सीटों का बटवारा किया जाता है। इसी प्रकार देश में अनुच्छेद 82 के आधार पर संख्या निर्धारण आयोग अथवा डिलिमिटेशन कमीशन का गठन किया जा सकता है जिसके आधार पर लोक सभा एवं विधान सभाओं में विभिन्न वर्गो के लिए सीटों का निर्धारण अथवा अरक्षण होता है।
अब यह दोनों संवैधानिक अनुच्छेद देश में विघटनकारी मानसिकता बढाने के लिए उत्तरदायी हैं। जिन राज्यों अथवा वर्गो की जनसंख्या घट रही है उनको यह दंड होगा कि उनका प्रतिनिधित्व भी कम होगा इसके विपरीत जिन राज्यों एवं वर्गो की जनसंख्या अधिक होगी उनका प्रतिनिधत्व उतना ही ज्यादा होगा। इसका सीधा मतलब यह होगा कि जो राज्य एवं वर्ग जनसंख्या बढ़ा कर देश एवं यहां के संसाधनों को बर्बाद कर रहे हैं उन्हें पुरस्कृत किया जायेगा जबकि जो राज्य एवं वर्ग जनसंख्या घटा कर राष्ट्र एवं राष्ट्र के संसाधनों की रक्षा कर रहे हैं उन्हें दण्ड दिया जायेगा।
यह भारत के महान संविधान की बड़ी विशेषताऐं हैं। इन्हीं बातों के मददेनजर दक्षिण भारत के राज्य इस तरह सीटो के निर्धारण का विरोध करते रहे है क्योंकि कुछ बीमार राज्य जैसे बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान, बंगाल, उड़ीसा, आबादी बढाने में बहुत आगे हैं जबकि दक्षिण के राज्य तथा पश्चिम के राज्यों में जनसंख्या वृद्धि की दर बहुत कम है। इसी प्रकार हिन्दुओं के गैर आरक्षित वर्गो की जनसंख्या वृद्धि की दर भी बहुत कम है।
इस सत्य को ध्यान में रखते हुऐ तथा दक्षिण भारत के राज्यों के विरोध के कारण संसद ने 1976 में एक संशोधन पास किया था जिसके अन्र्तगत लोकसभ में सीटों की संख्या में सन 2000 तक कोई भी वृद्धि नहीं होगी। इसके बाद यह समय सीमा 2026 तक बढा दी गई है।
अगर 1981-1991 के दशक की जनसंख्या बढोत्तरी पर निगाह डाली जाये तो उत्तर भारत एवं उत्तर पूर्व के राज्यों में यह वृद्धि 22 से 28 प्रतिशत थी जब कि दक्षिण के राज्यो में 15 प्रतिशत से भी कम रही। 1991-2001 की जनगणना में यह अन्तर और बढ गया। जनसंख्या वृद्धि दर उत्तर प्रदेश में 25.74, मध्यप्रदेश में 24.34, राजस्थान में 28.33, हरियाणा में 28.06 तथा बिहार में 28.43 रही। जनसंख्या वृि़द्ध की दर आसाम एवं बंगाम में तीस से भी आगे रही।
इसके विपरीत इसी दशक में केरल में सिर्फ 9.42, तमिलनाडु में 11.19, कर्णाटका मेें 17.25, आंध्रपेदश में 13.86 तथा गोवा में 14.89 रही। इससे स्पष्ट होता है कि अगर डिलिमिटेशन कमीशन के सुझावों पर अमल किया जाता है तो आने वाले वर्षो में देश में असफल राज्यों एवं असफल वर्गो का शासन होगा।
इस सत्यता को दरकिनार करते हुए सन 1998 में तत्कालीन एन डी ए सरकार ने, लोक सभा सीटों का पुर्नवितरण एवं उनकी संख्या में 50 प्रतिशत वृद्धि करने की कोशिश की थी परन्तु दक्षिण में बड़े नेताअें जैसे करूणा निधी एवं चन्द्रबाबू नायडू के कड़े विरोध के कारण वाजपेयी सरकार को अपनी कोशिश ठंड़े बस्ते में डालनी पड़ी थी।
अब एक बार पुन: केन्द्र की गठबन्धन सरकार इस योजना को लागू करने का प्रयत्न कर रहे थे । क्योंकि उसमें शामिल दो बड़े दल कांग्रेस एवं वाम परिवार को यह उम्मीद थी कि उसके लागू होने के बाद आरक्षित वर्गो की सीटों में बढोत्तरी होगी इसी के साथ इस नये सीमाकरण के बाद मुस्लिम वर्ग के सदस्यों की संख्या में भरी बढ़ोतरी होगी और यह दोनों दल अपने को देश में आरक्षण एवं इस्लाम के सबसे बड़े कोतवाल मानते हैं। इससे देश की राजनीति पर उनकी पकड़ मजबूत होगी।
सीटों के इस नये आवंटन से दक्षिण के दल, भारतीय जनता पार्टी तथा गैर आरक्षित वर्गो की राजनीति में पकड़ कम हो जायेगी। क्योंकि इनकी सीट एवं इनके क्षेत्रों में सीटों का घटना तय है। इससे स्पष्ट होता है कि सीटो का जनसंख्या के आधार पर बढवारे का वर्तमान फार्मूला अत्यन्त दोषपूर्ण है तथा यह राष्ट्र एवं समाज के हित में जरा भी नहीं है। राष्ट्र हित में यह होगा कि संविधान में संशोधन करके ऐसी व्यवस्थाओं को ही खत्म कर दिया जाये जिससे कि देश में जातिवादी एवं साम्प्रदायिक ताकतों को शक्ति मिलती हो।
अगर ऐसा नहीं होता है तो आने वाले समय में देश एक जातीय गणराज्य बन जायेगा। तथा हम दो और हमारे दो वाले मूर्ख माने जायेंगें। हम दो हमारे दस वाले सम्मानित होगें। तो ऐसे में सवाल खड़ा होता है कि क्या अाबादी बढ़ाने से हीं बढ़ेगी लोकतंत्र में भागीदारी ?
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