देश में एक बार फिर से क्षत्रप बनाम राष्ट्रीय दल की आंधी में जनता की तस्वीर धुंधली नज़र आरही है। कोई हिमायती बता कर हिमाकत दिखा रहा है, तो कोई हितैशी बता कर निजी हित साधने में लगा है। चौदहवीं लोकसभा के चुनाव के बाद बने राजनीतिक परिदृश्य में मोदी की एक छत्र हुकूमत कायम होती जा रही है। मोदी के पीछे संघ की विचारधारा है और एक मजबूत वैचारिक एजेंडा पर काम करने वाली राजनीतिक शक्तियां निरंकुश शासन चाहती हैं। भले ही वे शक्तियां दक्षिण पंथी हो या वामपंथी। यही वजह है कि मोदी ने लोकतांत्रिक परंपराओं को मजबूत करने के तकाजे पर कोई कान न देते हुए निर्धारित संख्या की तकनीकी आड़ में कांग्रेस को विपक्ष का दर्जा देना कबूल नहीं किया। भले ही देश में लोकतंत्र चौसठ-पैंसठ वर्ष की प्रौढ़ अवस्था प्राप्त कर चुका हो लेकिन लोगों में अभी लोकतांत्रिक संस्कारों की पैठ बनने में समय लगेगा। भारत के लोग आज भी निरंकुश नेतृत्व के प्रति आकर्षित रहते हैं। इंदिरा जी ने अपने समय में इसका लाभ उठाया। मोदी वर्तमान में इसका लाभ उठा रहे हैं। सामाजिक बदलाव के क्षितिज पर व्यापक योगदान करने वाले वीपी सिंह की विफलता की मुख्य वजह यही रही कि वे अपने नेतृत्व को सर्व सत्ता संपन्न बनाने का कौशल नहीं रखते थे। उन्होंने पश्चिम के लोकतंत्र की तर्ज पर उदार नेतृत्व के जरिए आगे बढऩे की कोशिश की और मात खा गए। देश इंदिरा गांधी के बाद जैसे उन जैसा ही नेता तलाश रहा था। केेंद्रीय स्तर पर जब उसने शून्य देखा तो वह राज्यों में ऐसे नेताओं पर फिदा हुआ। मुलायम सिंह, मायावती, जयललिता, ममता बनर्जी की गर्वनेंस की काबलियत निश्चित रूप से संदिग्ध है लेकिन फिर भी वे इसलिए कामयाब हैं कि एकतंत्रीय शासन चलाते हैं।
केेंद्र में राजीव गांधी में भी वह बात नहीं थी। शायद संजय गांधी जीवित रहते तो मतदाताओं को इंदिरा गांधी का विकल्प मिल सकता था। नरसिंहा राव से तो खैर क्या उम्मीद मतदाता करते। चंद्रशेखर में तानाशाही का गुण था लेकिन उनके पास जनाधार नहीं था। अटल बिहारी वाजपेई में कुछ मात्रा में तो अधिनायक वाद का तत्व था जिसकी अभिव्यक्ति उन्होंने तब की जब लालकृष्ण आडवाणी अपनी महत्वाकांक्षा की वजह से उनके लिए समस्या बन रहे थे। सही मायने में न टायर न रिटायर का हुंकारी अंदाज में बयान करके उन्होंने ही लालकृष्ण आडवाणी की राह में ऐसे कांटे रोपे जिसकी वजह से प्रधानमंत्री बनने की उनकी हसरत अंत तक परवान चढ़ ही नहीं पाई। फिर भी अटल बिहारी वाजपेई के अंदर कहीं न कहीं सुकुमारता थी। मोदी के रूप में मतदाताओं को इंदिरा गांधी का परफेक्ट विकल्प मिल गया है। यह बात दूसरी है कि इंदिरा गांधी जवाहर लाल नेहरू की पुत्री थीं और कांग्रेस की उस परंपरा की नेता थीं जो भारत के बहुलतावादी समाज में सभी वर्गों को विश्वास में लेकर शासन चलाने में विश्वास रखती थीं। मोदी का लक्ष्य और तौरतरीके अलग हैं। संघ का एजेंडा उन्हें पूरा करना है जिसकी वजह से मोदी अपने अल्टीमेट में देश के लिए खतरनाक साबित होंगे। फिर विकल्प की खोज तो कांग्रेस और इंदिरा गांधी की भी होती रही। विपक्ष के बिना लोकतंत्र नहीं चल सकता। भले ही मोदी बिना विपक्ष के चलना चाहते हों इसलिए विकल्प की जद्दोजहद तो होगी ही साथ में सच यह भी है कि कांग्रेस सहित किसी दल में यह कुव्वत नहीं रह गई कि वह मोदी का अकेले दम पर मुकाबला कर सके बल्कि कांग्रेस तो अपनी शक्ति में न्यूनतम स्तर पर पहुंच चुकी है। अगर यही स्थिति जारी रही तो कहीं उसकी राष्ट्रीय स्तर की हैसियत पर ही प्रश्नचिह्नï न लग जाए इसलिए सब मिलकर मोदी पर भारी पडऩा चाहते हैं।
मोदी अपनी अंतर्राष्ट्रीय यात्राओं को मीडिया में इस तरह प्रोजेक्ट करवा रहे हैं जैसे वे सबसे बड़े विश्व नेता के रूप में मान्य हो चुके हों। मोदी भारत के लोगों की इस मानसिकता से परिचित हैं कि यहां अगर किसी को विदेशों में मान्यता मिलती है तो वह अपने आप देश के आंतरिक समाज में बढ़त पा लेता है इसलिए मोदी एक रणनीति के तहत विभिन्न देशों की अपनी यात्रा की उपलब्धियों को बढ़-चढ़कर प्रचारित करवा रहे हैं। कांग्रेस के एक नेता ने कहा है कि मोदी प्रधानमंत्री पद का दुरुपयोग करके अपनी विदेश यात्राओं में प्रवासी भारतीयों से अपने पक्ष में नारेबाजी कराते हैं। यह बात सही भी हो सकती है। बहरहाल मोदी अपने उद्देश्य में इतने कामयाब हैं कि उन्होंने महाराष्ट्र और हरियाणा में जहां कभी पहले भाजपा ने अपनी दम पर सरकार नहीं बना पाई थी अपना मुख्यमंत्री बनवा लिया है लेकिन लगने यह लगा है कि कहीं जम्मू कश्मीर में भी वे भाजपा की सरकार बनवाने का चमत्कार करने में सफल न हो जाएं। जिस तरह से पृथकतावादी नेता मरहूम अब्दुल गनी लोन के बेटे ने उनकी तारीफ की है और यासीन मलिक ने भी उनके प्रति झुकाव दिखाया है उससे लगता है कि भले भी भाजपा को अपने लक्ष्य के अनुरूप जम्मू कश्मीर विधान सभा की पचास सीटों पर सफलता हासिल न हो लेकिन इतनी सीटें तो मिलने के आसार बनने लगे हैं कि भाजपा गठजोड़ करके स्वयं उक्त राज्य में सरकार बना ले। अगर यह चमत्कार घटित होता है तो मोदी का ग्राफ और ज्यादा ऊंचा चला जाएगा। साथ ही विपक्ष का बौनापन और ज्यादा बढ़ जाएगा।
इस कारण विपक्ष एकजुट होने को बेचैन है लेकिन यह काम इतना आसान नहीं है। ममता बनर्जी ने कहा कि क्षेत्रीय दलों का मिलाजुला वोट भाजपा की मत प्राप्ति से काफी ज्यादा हो सकता है लेकिन साथ ही यह भी कहा कि यह गठजोड़ विचारधारा पर आधारित होना चाहिए। समाजवादी पार्टी, अन्ना डीएमके, राजद, जनता दल (एस) और चौटाला की पार्टियां विशुद्ध रूप से प्राइवेट लिमिटेड कंपनियां हैं जिनको सत्ता मिल जाए तो गर्वनेंस से वे कोई ताल्लुक नहीं रखना चाहतीं। इनके नेता पूरी सत्ता का दोहन अपने परिवार का वैभव ऐश्वर्य बढ़ाने के लिए करने में हया की सारी सीमाएं तोड़ देते हैं। इनके साथ ममता बनर्जी मोदी के विरोध के नाम पर भी बहुत दूर तक नहीं चल सकतीं। ममता बनर्जी अडिय़ल नेता की अपनी छवि के बावजूद सादगी पसंद कमोवेश ईमानदार और परिवारवाद से असंपृक्त नेता के बतौर पहचानी जाती हैं। मुलायम सिंह हों लालू हों या चौटाला अपने लिए वे इस तरह की सीमाओं को कैसे स्वीकार कर सकते हैं। वामपंथी दलों में मुलायम सिंह के लिए मोह तो बहुत है लेकिन वे भी जनता दल परिवार का न्यूनतम एजेंडा देखकर उनके साथ कोई रिश्ता बनाने की बात कह रहे हैं।
मुलायम सिंह का शासन करने का जो ढर्रा है उसमें वे किसी जनवादी एजेंडे पर तैयार हो सकेें यह असंभव दिखता है इसलिए इच्छा रखने के बावजूद वामपंथी खेमे को मुलायम सिंह के साथ कोई गठजोड़ बनाने के पहले लाख बार सोचना है। रही कांग्रेस की बात तो उसके लिए डूबते को तिनके के सहारे की खोज है। इस कारण वह मर्यादाहीन राजनीति से भी समझौता कर सकती है लेकिन ऐसे विकल्प से जनता का ध्यान अपनी ओर आकर्षित नहीं कराया जा सकता। वामपंथियों का एक पुराना स्लोगन है कि संघर्षों से विकल्प तैयार किया जाना चाहिए। यह आज के समय में सर्वाधिक प्रासंगिक है। जिन राजनीतिक शक्तियों में संघर्ष के जरिए विकल्प खड़ा करने का जज्बा है उन्हें जल्दबाजी दिखाने की बजाय इसी नीति पर अमल करने की सोचना चाहिए। एक बात साफ है कि मोदी का विकल्प अब तभी तैयार होगा जब प्रतिद्वंद्वी राजनीतिक शक्तियों में व्यक्तिगत स्तर पर उन्हीं की तरह साफ-सुथरा पन हो। साथ ही जनभावनाएं गठजोड़ की राजनीति के विरुद्ध हो चुकी हैं। जनमानस की यह ग्रंथि विपक्ष में अंधाधुंध गठजोड़ के लिए हो रहे प्रयास के प्रतिकूल है। जाहिर है कि ऐसा गठजोड़ बहुत टिकाऊ नहीं हो सकता।
सत्ता मिलने के बाद ऐसे गठजोड़ में व्यक्तिगत स्वार्थों और व्यक्तित्वों के बीच टकराव की वजह से बहुत जल्दी बिखराव शुरू हो जाता है। लोग राजनीतिक अस्थिरता के नुकसान देख चुके हैं। इस कारण वे अब ऐसा कोई जोखिम नहीं उठाना चाहते। इस कारण गठजोड़ न्यूनतम कार्यक्रम पर आधारित होगा तभी विश्वसनीय होगा। इस मामले में पश्चिम बंगाल का वाम गठजोड़ मिशाल है जिसके कारण पच्चीस वर्षों तक उसे बराबर जनादेश प्राप्त होता रहा। क्या मोदी के विरुद्ध गठजोड़ बनाने में ऐसा आधार तैयार करना फिलहाल संभव है।
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