किसानों ने भारत बंद करने का एलान किया है. सुबह 11 बजे से शाम 3 बजे तक किसान सड़कों पर होंगे. मगर इस आन्दोलन को केंद्र सरकार के विरोध का माध्यम बनाने के लिए पूरा विपक्ष एकजुट हो गया है. हर दल किसान आन्दोलन के आसरे अपनी-अपनी राजनीतिक रोटियां सेकने में जूट गयें हैं.
कृषि क्षेत्र
से जुड़े नए कानूनों को वापस लेने के लिए सरकार पर दबाव बनाने की रणनीति अब पूरी
तरीके से राजनीति दलों ने हाईजैक कर लिया है. कांग्रेस, लेफ्ट, टीएमसी, बसपा, डीएमके, सपा समेत अधिकतर विपक्षी पार्टियों ने
भारत बंद को समर्थन देने का ऐलान किया है. मतलब बेगाने शादी में अब्दुल्ला दीवाना
जैसे माहौल में किसान आन्दोलन तब्दील होगया है.
एकतरफ किसान संगठन ये कहते नहीं थक रहे
हैं की वे किसी भी राजनीतिक दल को अपने आन्दोलन में नहीं बुलाया है...मगर बिपक्षी
दल है की मानने को तैयार नहीं हैं...दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार नए कृषि
कानून को राज्य में गजट नोटीफिकेसन जारी करके लागू भी कर चुकी है. मगर फिर भी अरविन्द
केजरीवाल अपने आप को रोक नही सके और टीकरी बॉर्डर पर किसानों का समर्थन करने पहुंच
गए.
किसान आंदोलन की शुरुआत में पंजाब और हरियाणा के किसान शामिल थे. बाद में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान नेताओं ने हिस्सा लिया, लेकिन अब इस आंदोलन में राजस्थान, मध्यप्रदेश, कर्नाटक, तेलंगाना, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र समेत कई राज्यों के किसान शामिल होरहे हैं. तो सवाल यहां भी खड़ा होता है की आखिर एकाएक इतने राज्यों के किसान कैसे अचानक से सड़कों पर उतरने का ऐलान कर दिया..?
आन्दोलन में शामिल होने वाले क्या सभी लोग किसान होंगे या राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता..? और अगर अधिकतर आन्दोलनकारी राजनीतिक दलों से हैं तो फिर ये आन्दोलन किसानों तक सिमित कैसे रहा...? शरद पवार बतौर कृषि मंत्री कृषि उत्पाद विपणन समिति (APMC) ऐक्ट में बदलाव की वकालत कर चुके हैं मगर अब किसान आंदोलन के साथ खुद को हितैसी दिखा रहे हैं.
वहीँ शिवसेना ने कृषि कानून
का लोकसभा में समर्थन किया था मगर आज वो किसानों के सूर में सूर मिला रही है.
किसानों के आंदोलन में राजनीतिक दलों के मौका देख स्टैंड चेंज लिया है. तो ऐसे में
सवाल ये है की किसान आन्दोलन की फसल पर
राजनीति क्यों ?
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