जनसंख्या नियंत्रण कानून पर भारत सरकार के स्वास्थ्य परिवार कल्याण मंत्रालय ने अपना रुख स्पष्ट किया है. स्वास्थ्य मंत्रालय ने जनसंख्या नियंत्रण पर कानून बनाने की बात सिरे से ख़ारिज कर दिया है. साथ ही ये विषय केंद्र ने राज्यों के साथ जोड़ दिया है. केंद्र का कहना है की इसपर राज्य सरकार क़ानून बना सकती है. मगर संविधान की अनुसूची 7 के कांक्रेंट लिस्ट में 20-A में साफ तौर पर उल्लेख है की इसपर केंद्र और राज्य दोनों कानून बना सकते हैं.
तो ऐसे में सवाल स्वास्थ्य परिवार कल्याण मंत्रालय के हलफनामे को
लेकर खड़ा होता है की मंत्रालय इसपर टालमटोल क्यों कर रहा है. मंत्रालय का कहना है
की भारत में किसी को कितने बच्चे हों, यह खुद पति-पत्नी तय करें. सरकार नागरिकों पर जबर्दस्ती नहीं करे कि
वो निश्चित संख्या में ही बच्चे पैदा करे. स्वास्थ्य परिवार कल्याण मंत्रालय देश
के लोगों पर जबरन परिवार नियोजन थोपने के साफ तौर पर विरोध में है.
मतलब साफ है की इसपर मंत्रालय बिल्कुल भी चिंतित नहीं है और ना ही जनसंख्या नियंत्रण पर कोई ठोस कदम उठाना चाहता है. ऐसे में अब सुप्रीम कोर्ट भी इस याचिका को लेकर असमंजस में दिख रहा है. स्वास्थ्य मंत्रालय ने अपने जवाब में ये भी कहा है की निश्चित संख्या में बच्चों को जन्म देने की किसी भी तरह की बाध्यता हानिकारक होगी.
ऐसा करने से जनसांख्यिकीय विकार पैदा करेगी. देश में परिवार कल्याण
कार्यक्रम स्वैच्छिक है जिसमें अपने परिवार के आकार का फैसला दंपती कर सकते हैं और
अपनी इच्छानुसार परिवार नियोजन के तरीके अपना सकते हैं. ऐसे में इसमें किसी तरह की
अनिवार्यता नहीं है.
केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय का एक तर्क ये भी है की 'लोक स्वास्थ्य' राज्य के अधिकार का विषय है और लोगों को स्वास्थ्य संबंधी परेशानियों से बचाने के लिए राज्य सरकारों को स्वास्थ्य क्षेत्र में उचित एवं निरंतर उपायों से सुधार करने चाहिए.
"स्वास्थ्य क्षेत्र में सुधार का काम राज्य सरकारें प्रभावी निगरानी तथा योजनाओं एवं दिशा-निर्देशों के क्रियान्वयन की प्रक्रिया के नियमन एवं नियंत्रण के लिए विशेष हस्तक्षेप के साथ प्रभावी ढंग से कर सकती हैं." साथ में मंत्रालय ने अपने हलफनामे में ये भी बताया है कि सरकार परिवार नियोजन और जनसंख्या नियंत्रण को लेकर बहुतसी योजनायें चला रही है. मंत्रालय का इरादा इसपर विषय पर क़ानून बनाने का नहीं है.
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