पानी मनुष्य की बुनियादी ज़रूरतों में से एक है। यह मानव जीवन का आधार है। प्रकृति ने हमें शुद्ध पानी के स्रोतों से नवाज़ा है, पर आज पूरे विश्व में पूँजीपतियों ने इस पर भी अपने मुनाफ़े के लिए क़ब्ज़ा करना शुरू कर दिया है। मगर अब ये पानी एक बड़ा व्यापर का माध्यम बन गया है। पानी आज एक माल बन चुका है और मुनाफ़े का बड़ा स्रोत बनता जा रहा है। विश्व के पैमाने पर बोतलबन्द पानी का 10 बिलियन डॉलर से अधिक का कारोबार है जो लगातार तेज़ी से बढ़ रहा है। आज हर गली-मुहल्ले, रेलवे स्टेशन, बस अड्डे, स्कूल-कॉलेज व अन्य सार्वजनिक स्थानों पर बोतलों में बिकता पानी दिखायी दे जाता है। इसका उपभोग दिन-ब-दिन बढ़ता ही जा रहा है। पानी का यह निजीकरण पूँजीवाद के बर्बर होते जाने की निशानी है। इस धोखेबाज़ी और लूट का ख़ामियाज़ा भी आम लोगों को ही भुगतना पड़ता है।
बोतलबन्द पानी की शुरुआत 19वीं सदी के मध्य में लगभग 1845 में अमेरिका में रिक्कर नाम के एक परिवार ने की जो अपने पानी में औषधीय गुण होने का दावा करता था। यही कम्पनी बाद में पोलैण्ड स्प्रिंग नाम से मशहूर हुई। इसी का अनुकरण करते हुए 1905 में ओज़ारक स्प्रिंग वाटर कम्पनी बनी। पर इनका विस्तार उतना नहीं हुआ। विश्व स्तर पर इस उद्योग का तेज़ी से फैलाव 1970 के बाद ही शुरू हुआ जब सचेतन रूप से इसको फैलाने की कोशिशें की गई। नतीजतन, कई कम्पनियाँ इस खेल में उतर आयीं! पोलेण्ड स्प्रिंग व ओज़ारक स्प्रिंग को नेसले द्वारा ख़रीद लिया गया। आज नेसले इस क्षेत्र का सबसे बड़ा खिलाड़ी है। इसके बोतलबन्द पानी के 9 अन्तरराष्ट्रीय और 71 राष्ट्रीय ब्राण्ड हैं। इसके अलावा कुछ और भी बड़े खिलाड़ी हैं – डैनने, कोकाकोला, पेप्सी, फीजी, एवियन, माउण्टेन वैली, वोलविक, पारले, ब्रीवरेज व हिल्डन आदि। छोटी-मोटी कम्पनियों की तो संख्या सैकड़ों में है। अकेले भारत में इस समय 200 से भी ज़्यादा कम्पनियाँ इस क्षेत्र में हैं। पिछले तीन दशकों में नव-उदारवादी नीतियों की शुरुआत के बाद इसमें और ज़्यादा तेज़ी आयी है। पहले-पहले लोग पानी के बिकाऊ होने की बात सुनकर हँसते थे, पर अब इसे लोगों की स्वाभाविक ज़रूरत बना दिया गया है। पूँजीवाद के एक मुख्य स्तम्भ मीडिया का इसमें बड़ा योगदान रहा है। मुट्ठी भर पूँजीपतियों के हाथों में खेलते हुए यह लोगों में आम राय बनाने का काम करता है। लोगों की पसन्द, नापसन्द, शौक़, व्यस्तता आदि तय करने में यह बड़ी भूमिका अदा करता है। यही हमें बताता है कि हमें क्या खाना चाहिए और क्या पीना चाहिए। स्पष्ट ही है कि जो कुछ मीडिया पेश करता है, उसमें इन लोगों के मुनाफ़े का ध्यान रखा जाता है, न कि सच्चाई और वैज्ञानिकता का। हैरानी की बात नहीं है कि यही मीडिया हमें लेज़ चिप्स, कुरकुरे, बर्गर, पिज़्ज़ा, कोल्डड्रिंक जैसी घटिया और नुक़सानदेह चीज़ों को खाने-पीने के लिए प्रेरित करता है। आकर्षक विज्ञापनों, कार्यक्रमों, अख़बारों, पत्रिकाओं और सड़क किनारे लगे बैनरों द्वारा लोगों को डराया और भरमाया जाता है – ‘ख़बरदार! आप अशुद्ध पानी पी कर अपनी सेहत का नुक़सान कर रहे हैं, साफ़ पानी ख़रीदकर पीजिये, हमारे पास झरनों का शुद्ध पानी है या हमारा पानी पूरी तरह शुद्ध किया हुआ है, आदि-आदि’। इस तरह बोतलबन्द पानी को हमारी ज़रूरत बना दिया गया है। इसके लिए विज्ञापनों में अन्धाधुन्ध पैसा बहाया गया। कोकाकोला ने साल 2004 के दौरान डासानी नामक अपने बोतलबन्द पानी के ब्राण्ड पर 1.7 करोड़ डॉलर ख़र्च किये वहीं पेप्सी ने अपने ब्राण्ड एक्वाफिना पर इसी दौरान 2.1 करोड़ डॉलर ख़र्च किये। कुल मिलाकर 2004 में 7 करोड़ डॉलर से ज़्यादा राशि सिर्फ़ बोतलबन्द पानी के विज्ञापनों पर ख़र्च कर दी गयी। उस समय इन ख़र्चों की विस्तार दर 15 प्रतिशत थी। इन विज्ञापनों की बदौलत बोतलबन्द पानी के व्यापार में उस समय 47 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गयी।
बोतलबन्द पानी का उपभोग साल 2000 में 108.5 बिलियन लीटर था, जो 2002 में 128.8 बिलियन लीटर, 2005 में 164.5 बिलियन लीटर और 2007 में 188.2 बिलियन लीटर हो गया। आज पूरे विश्व में इसका उपभोग 200 बिलियन लीटर से ज़्यादा है। अमेरिका में इसका सबसे अधिक उपभोग है। वहाँ हर साल लगभग 50 बिलियन पानी की बोतलें बिकती हैं। प्रति व्यक्ति उपभोग में इटली का प्रथम स्थान है, जहाँ 2010 में प्रति व्यक्ति बोतलबन्द पानी की खपत 184 लीटर थी। इसके बाद मैक्सिको में यह 169 लीटर प्रति व्यक्ति व संयुक्त अरब अमीरात में 153 लीटर प्रति व्यक्ति है। इसी तरह सर्वोच्च 10 देशों में यह उपभोग प्रति 100 लीटर सालाना से अधिक ही है। भारत में बोतलबन्द पानी का कारोबार लगभग 1,000 करोड़ रुपये का है जो 40 प्रतिशत की दर से बढ़ रहा है। भारत में इस क्षेत्र में 200 से अधिक कम्पनियाँ व 1200 के करीब कारख़ाने हैं। इस तरह पूरे विश्व में आज इसका कारोबार 10 बिलियन डॉलर से ऊपर पहुँच गया है। नेस्ले इस कारोबार के 12 प्रतिशत हिस्से पर काबिज़ है, इसका बोतलबन्द पानी का कारोबार 3500 करोड़ डॉलर का है। इसके बाद डैनने 10 प्रतिशत, कोकाकोला 7 प्रतिशत व पेप्सी 5 प्रतिशत हिस्से पर काबिज़ है। इस तरह चार पूँजीपति घराने कुल कारोबार के तीसरे हिस्से के मालिक हैं।
अब किसी को यह लग सकता है कि अगर पैसे देकर शुद्ध पानी मिल रहा है तो क्या बुरा है? परन्तु सच्चाई यह है कि यह पानी भी शुद्ध नहीं होता है, इसमें बड़े पैमाने पर धोखाधड़ी होती है। पानी की बोतलों और सम्बन्धित विज्ञापनों में कल-कल करते झरने व बर्फ़ के पहाड़ दिखाये जाते हैं, परन्तु इनमें से ज़्यादातर के पानी का स्रोत नगर निगम की तरफ़ से आपूर्ति किये जाने वाले पानी के नल हैं। एक अध्ययन में यह पता लगा कि लगभग आधी बोतलों में यह नल का पानी ही था। इनमें कोका-कोला का डासानी व पेप्सी का ऐक्वाफिना ब्राण्ड भी शामिल था। इसी तरह के एक और अध्ययन से यह बात सामने आयी कि एक तिहाई बोतलों में पानी में घुले तत्वों की मात्रा ज़रूरत से अधिक थी जो बेहद हानिकारक है। इसके अलावा कई बोतलों में ग़ैर-ज़रूरी रसायन, बैक्टीरिया और कृत्रिम यौगिक भी मिले हैं। ज़्यादातर कम्पनियाँ, जिनमें सभी प्रसिद्ध कम्पनियाँ भी शामिल हैं, ये नहीं बतातीं कि उनके पानी का स्रोत क्या है? इसको कैसे शुद्ध किया जाता है और इसमें क्या अशुद्धियाँ मौजूद हैं? बोतलबन्द पानी के इस कारोबार को क़ानूनी घेरे में लाने और बेचे जा रहे पानी की जाँच के लिए कई संस्थाएँ भी बनी हुई हैं, परन्तु इस कारोबार के ज़्यादा फैलाव व कम्पनियों की अधिक संख्या के कारण इन पर अपेक्षित नियन्त्रण नहीं रह पाता। कहा जा सकता है कि आपके नल में आने वाला पानी ज़्यादा भरोसे के लायक़ है क्योंकि वो ज़्यादा जाँच के घेरे में है और वहाँ जवाबदेही भी है। एक ग़ौर करने लायक बात यह भी है कि ये आँकड़े यूरोप और विकसित देशों के हैं। सहज ही अन्दाज़ा लगाया जा सकता है कि अगर विकसित देशों में हर दूसरी बोतल में नल का पानी है तो भारत समेत अन्य पिछड़े देशों में क्या हाल होगा? यहाँ आप “रेल नीर” और बसों-रेलों में बिकती ऐसे ही अन्य बोतलों पर कितना भरोसा कर सकते हैं? इसके अलावा बोतलबन्द पानी को ख़रीदने के लिए आपको आम पानी से 2000 गुणा ख़र्च करना पड़ता है।
अब ज़रा देखते हैं कि कुछ मुनाफ़ाख़ोरों के मुनाफ़े के लिए पूरी मानवता को क्या क़ीमत चुकानी पड़ रही है? दुनियाभर में इन कम्पनियों द्वारा साफ़ पानी के क़ुदरती स्रोतों पर क़ब्ज़ा किया जा रहा है व उनको दूषित भी किया जा रहा है, जिसका नुक़सान आम जनता को भुगतना पड़ रहा है। बोतलबन्द पानी तैयार करने के लिए ये कम्पनियाँ कई गुणा पानी बर्बाद कर देती हैं, बहुत सारा पानी प्रदूषित कर दिया जाता है जिसे बाद में पानी के क़ुदरती स्रोतों – झीलों, नदियों आदि में बहा दिया जाता है। जहाँ कहीं भी इन कम्पनियों के बॉटलिंग प्लाण्ट लगे हैं, वहाँ रोज़ाना लाखों लीटर भूमिगत पानी निकाला जाता है जिस कारण इन इलाक़ों में पानी का स्तर काफ़ी नीचे चला गया है। वहाँ के लोगों को पानी मिलने में मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है व किसानों को सिंचाई के लिए पानी नहीं मिल पा रहा है। हैरानी की बात है कि ये कम्पनियाँ पानी के इन स्रोतों पर लगभग मुफ़्त में क़ब्ज़ा कर रही हैं और सरकारें इस लूट में कम्पनियों का पूरा साथ दे रही हैं। भारत में इसके कुछ उदाहरण देखते हैं। राजस्थान में जयपुर के निकट अकालग्रस्त काला डेरा में कोकाकोला का बॉटलिंग प्लाण्ट है। यहाँ हर रोज़ 5 लाख लीटर पानी धरती के नीचे से निकाला जाता है। एक लीटर बोतलबन्द पानी के लिए दो या तीन लीटर सादे पानी की ज़रूरत होती है। इस पानी को निकालने का ख़र्च कुछ ही पैसे आता है जिसको ये कम्पनियाँ बोतलों में भरकर 10 से 20 रुपये में बेचकर असीमित लाभ कमा रही हैं। छत्तीसगढ़ में भी ऐसे कई प्रोजेक्ट हैं – राजगढ़ में कीलो और खरिकर नदियों पर, जगजीर में मण्ड पर, रायपुर में खैरों नदी पर, दन्तेवाड़ा में सावरी नदी पर। इसी तरह मध्यप्रदेश सरकार ने सन 2000 में रेडियस वाटर लिमिटेड को शिवनाथ नदी का 23.6 किलोमीटर का हिस्सा 22 सालों के लिए लीज़ पर दे दिया। कम्पनी को पानी आपूर्ति करने का एकाधिकार दिया गया। सरकार द्वारा इस कम्पनी को इस्तेमाल के लिए ज़मीन बिना किसी क़ीमत के सौंपी गयी। इस कम्पनी के साथ समझौते के मुताबिक़ सरकार हर रोज़ कम से कम 40 लाख लीटर पानी इस कम्पनी से ख़रीदेगी। कम पानी ख़रीदने पर भी 40 लाख लीटर के ही पैसे देने होंगे वहीं ज़्यादा पानी लेने पर वास्तविक मूल्य लगाया जायेगा। अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर भी यही हाल है। कुछ साल पहले ही नेस्ले ने कोलोराडो में अरकानसस नदी का एक हिस्सा कौड़ियों के भाव ख़रीद लिया। 10 साल के लिए हुए इस सौदे के मुताबिक़ कम्पनी हर साल 2.45 बिलियन लीटर पानी निकाल सकती है जिसके लिए सिर्फ़ 1.6 लाख डॉलर सालाना का भुगतान करना होगा। इसी तरह 2003 में अकेले अमेरिका में नेस्ले की तरफ़ से 7 बिलियन लीटर पानी निकाला गया। दुनियाभर में इन कम्पनियों की तरफ़ से प्राकृतिक संसाधनों पर क़ब्ज़ा किया जा रहा है और पानी बर्बाद किया जा रहा है।
बोतलबन्द पानी का यह गोरखधन्धा क़ुदरती स्रोतों को प्रदूषित करने के अलावा और भी कई तरीक़ों से पर्यावरण को नुक़सान पहुँचा रहा है। पहली बड़ी समस्या इससे पैदा होने वाला प्लास्टिक कचरा है। अकेले अमेरिका में एक महीने में 500 मिलियन बोतलें पैदा होती हैं, जिनसे धरती को पाँच बार ढँका जा सकता है। 2001 की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ हर साल 89 बिलियन बोतलों के रूप में 15 लाख टन प्लास्टिक कचरा पैदा होता है। इसका सिर्फ़ 10 से 15 प्रतिशत ही पुनःचक्रित होता है, बाक़ी कचरे में जाता है। लैण्डफिल (कचरा भराव क्षेत्र) ऊपर तक भर चुके हैं और इस कचरे को समाने लायक नहीं बचे। इसलिए बड़े स्तर पर यह कचरा समुद्रों में फेंक दिया जाता है और इसका एक हिस्सा जलाया जाता है जिससे वातावरण में ख़तरनाक गैसें फैल जाती हैं। दूसरी बड़ी समस्या तेल के नुक़सान की है। पानी को धरती में से निकालने, बोतलें बनाने के लिए प्लास्टिक तैयार करने, तैयार बोतलों की ढुलाई व फिर ख़ाली बोतलों के निपटारे पर बहुत ज़्यादा तेल की खपत होती है। एक सर्वे के मुताबिक़ अकेले अमेरिका में बोतलबन्द पानी का उद्योग 1.5 बिलियन बैरल तेल का उपभोग करता है जो कि एक साल में 1 लाख कारों के लिए काफ़ी है। इस तरह सहज ही अन्दाज़ा लगाया जा सकता है कि दुनियाभर में कितना तेल बर्बाद होता होगा।
प्राकृतिक संसाधनों की इस अन्धाधुन्ध लूट के दम पर ही इन मुनाफ़ाख़ोरों ने अरबों की कमाई की है। बोतलबन्द पानी का कारोबार संसार के सबसे अधिक मुनाफ़े वाले क्षेत्रों में से एक है जिसके कारण यह तेज़ी से बढ़ रहे धन्धों में से भी एक है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक़ इस कारोबार में 1 डॉलर निवेश के पीछे 45 डॉलर का लाभ है। पर इस क्षेत्र में लगे मुनाफ़ाख़ोरों के लिए यह भी कम है, ये इस क्षेत्र में और ज़्यादा लूट चाहते हैं और ये इसको बिल्कुल भी ग़लत नहीं मानते। नेस्ले के चेयरमैन पीटर बरबैक लटमेथ का कहना है कि “धरती पर पानी की एक-एक बूँद पर पूँजीपतियों का क़ब्ज़ा होना चाहिए और आपको बिना पैसे दिये एक भी बूँद नहीं मिलनी चाहिए।” पेप्सी के उपाध्यक्ष रॉबर्ट मौरीसन का कहना है – “नल का पानी सबसे बड़ा दुश्मन है।” यहाँ उनका मतलब मुनाफ़े से है कि नल का पानी उनके मुनाफ़े का सबसे बड़ा दुश्मन है। ये लोगों को किसी भी तरह मुफ़्त मिलता पानी बर्दाश्त नहीं कर सकते। इसी तरह अमेरिका की कुआकर ओट्स कम्पनी की प्रधान सूजन वेलिंगटन के मुताबिक़ – “जब हम अपना काम कर चुके होंगे, तब नल का पानी नहाने-धोने के लायक ही रह जायेगा।” कोका कोला ने भी लोगों को होटलों, रेस्तराओं आदि में नल का पानी पीने से “बचाने” की योजना बनायी है जिसके अन्तर्गत लोगों को नल के पानी की जगह बोतलबन्द पानी, कोल्ड-ड्रिंक व अन्य बिकने वाले पेय पदार्थ पीने के लिए प्रेरित किया जायेगा।
जहाँ एक तरफ़ कुछ पूँजीपति घराने पानी के स्रोतों पर क़ब्ज़ा किये बैठे हैं, वहीं दूसरी तरफ़ करोड़ों लोगों को साफ़ पानी हासिल करना मुश्किल हो रहा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक़ दुनिया की एक तिहाई आबादी पानी की कमी से जूझ रही है। पानी के प्राकृतिक स्रोत ख़राब हो रहे हैं जिसमें उद्योगों का बहुत बड़ा हाथ है और बोतलबन्द पानी का उद्योग भी इन्ही में से एक है। 80 प्रतिशत बीमारियों का कारण ख़राब पानी है। रोज़ाना पूरी दुनिया में 25,000 लोग ख़राब पानी के कारण मर जाते हैं। भारत में 18.2 प्रतिशत लोग पानी के क़ुदरती स्रोतों से पानी हासिल करते हैं और 5.6 प्रतिशत जनसंख्या कुँए के पानी पर निर्भर करती है। 3.77 करोड़ भारतीय पानी सम्बन्धी बीमारियों के शिकार हैं। देश में 12 बड़ी, 46 मँझोली और 55 छोटी नदियों के बेसिन हैं जो गँदले हो चुके हैं।
सरकारें सरेआम इस लूट में भागीदार हैं, उनकी तरफ़ से लोगों को साफ़ पानी उपलब्ध करवाने की जगह पूँजीपतियों के लिए सब्सिडियाँ और करों में छूट दी जा रही है, ताकि वे लोगों को “शुद्ध पानी” पिलाकर “पुण्य” कमा सकें! अमेरिका में 24 बिलियन डॉलर की फ़ण्डिंग सरकार द्वारा दी जाती है, जिससे ये कम्पनियाँ लोगों को “शुद्ध पानी” मुहैया करवायें। एक और बात ध्यान देने योग्य है कि पानी की इस कमी का शिकार आम मेहनतकश जनता ही होती है। दुनियाभर में अमीरजादों के घरों, मुहल्लों, वाटर पार्कों और ऐसी ही मनोरंजन की अन्य जगहों पर पानी के हो रहे दुरुपयोग के बावजूद उनके लिए पानी की कोई कमी नहीं होती है।
आइये, अब जल स्रोतों की कमी और पानी की तंगी के पूँजीवादी प्रचार पर एक नज़र डालें। सिर्फ़ भारत की बात करें तो नदियों के बड़े जाल और लम्बे समुद्री तट के बावजूद अगर कोई कहे कि यहाँ पानी की कमी है तो यह पूँजीवादी लूट और लोगों पर किये जा रहे जुल्मों पर पर्दा डालना होगा। बारिश का पानी और हिमपात भारत में जल के प्रमुख स्रोत हैं। लगभग 4,200 अरब घन मीटर पानी हर वर्ष बरसात से हासिल होता है। औसतन सालाना बरसात 1,170 मिलिमीटर है। ख़राब जल प्रबन्धन के कारण बरसाती पानी का अधिकतर हिस्सा बहकर समुद्र में मिल जाता है। भारत में प्रयोग योग्य पानी की उपलब्धता 1,122 अरब घन मीटर है जिसका केवल 1.9 प्रतिशत हिस्सा ही आज प्रयोग हो पा रहा है। केन्द्रीय जल कमीशन के आँकड़ों के अनुसार नदियों का सालाना बहाव 186.9 घन किलोमीटर है। देश में उपलब्ध भूजल की कुल मात्र 431.88 अरब घन मीटर है जिसमें से 360.80 घन मीटर सिंचाई और 70.93 अरब घन मीटर औद्योगिक कामों में प्रयोग होता है। इण्डियन नेशनल ट्रस्ट फ़ॉर आर्ट एण्ड कल्चर हेरिटेज के अनुसार 980 बिलियन लीटर जल बरसाती पानी का संग्रह करके प्राप्त किया जा सकता है। आज यदि पूरे देश के लोगों को पीने का पानी उपलब्ध करवाना है तो प्रति व्यक्ति प्रतिदिन 150-200 लीटर पानी की ज़रूरत होगी। यह मात्रा बड़े शहरों के लिए है, छोटे शहरों और ग्रामीण इलाक़ों में यह पैमाना कम है। अब यदि 200 लीटर प्रति व्यक्ति प्रतिदिन के अनुसार देश की 121 करोड़ जनसंख्या के लिए एक वर्ष तक पानी की ज़रूरत का आकलन किया जाये तो वह 88.33 अरब घन मीटर होगा। जबकि प्रयोग योग्य उपलब्ध पानी 1,122 अरब घन मीटर है। यह मात्रा तो पूरी दुनिया की ज़रूरतों से भी ज़्यादा है। अगर पूरी दुनिया में पानी के स्रोतों को देखें तो यह मात्रा और भी नगण्य लगेगी।
असल संकट पीने के पानी समेत अन्य ज़रूरतों के लिए पानी की कमी का संकट है ही नहीं। ज़रूरत है पानी के स्रोतों का निजीकरण और इसे मुनाफ़े का उद्योग बनाना बन्द करके सभी लोगों की साझा सम्पत्ति बनाने की, हर व्यक्ति तक पानी पहुँचाने के उत्तम प्रबन्ध करने की। परन्तु मौजूदा लुटेरे ढाँचे व इसकी लुटेरी सरकारों से ऐसा करने की उम्मीद नहीं की जा सकती। इसके लिए तो मेहनतकश जनता को ही उठ खड़ा होना होगा।
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