देश में सेवा निवृति को लेकर एक नयी बहस छिड़ी हुयी है.
सेवा निवृत्ति अर्थात जब व्यक्ति अपनी आयु के साठ वर्ष पार करता है तो जिस
संस्थान में अपनी सेवा देता है. उसे उस की सेवा से मुक्त कर दिया जाता है. वह
स्वयं मुक्त नही होता और न ही होना चाहता है. यह मुक्त होने की प्रणाली कोई नई
प्रणाली नही है. पुरातन काल से चली आ रही आश्रम अवस्था का एक विकृत रूप है.
आश्र्मावस्था में इसे वानप्रस्थ आश्रम की संज्ञा दी जाती है. इस व्यवस्था के
अंतर्गत व्यक्ति पारिवारिक जिम्मेवारियों को निभाने के बाद अथवा बेटे का बेटा होने
के बाद बेटे को पारिवारिक सामाजिक अधिकार सौप कर स्वेच्छा से वानप्रस्थी बन
वानप्रस्थ आश्रम को प्रस्थान कर जाता था. परिवार के संकुचित क्षेत्र से निकल कर
समाज के विस्तृत क्षेत्र में सेवा कर समय का सदोपयोग करता था. एक छोटे परिवार से
निवृत हो जाता और समाज के बड़े परिवार में प्रवृत हो जाता था धीर-धीरे
परिस्थितियों बदल रही हैं. सेवा निवृति के बाद समय का कैसे उपयोग हो एक बहुत बड़ा
प्रश्न चिह्न बनता जा रहा है.
न सेवा निवृति से पूर्व अधिकांश लोग कोई भी योजना
नहीं बना पाते हैं. आर्थिक रूप से सम्पन्न क्लबों में व किटटी पार्टियों में ताश व
पीने -पिलाने में मस्त रहने का प्रयास करते हैं, जो आर्थिक रूप से सम्पन्न नही हैं
वे पार्कों में अथवा चौपालों में या फिर जहाँ भी बैठने को स्थान मिल गया बैठ कर
ताश खेल लेते है. कई वरिष्ठ नागरिक पार्कों में अलग-अलग समूह बना कर बैठे मिलते
हैं. उन की चर्चा के विषय भी अलग -अलग ही होते हैं -राजनीति से लेकर पारिवारिक
उलझनों में उलझे रहते हैं. कई सेवा निवृत जिन की बहुएँ नौकरी करती हैं वे उनके बच्चो
की बेबी -सिटिंग करते है. एक वर्ग अपनी संतान से उपेक्षित होकर वृद -आश्रम में शरण
लेने को विवश हो कर जीवन की संध्या को वहाँ गुजार लेते हैं, खैर यह तो मेरा विषय
नही है, मेरा विषय है कि जब हम सेवा निवृत हों तो ऐसी प्रवृति अपनाएं जिस से
समय का सदोपयोग हो.
सेवा निवृति के पश्चात हम ने समय का सदोपयोग हो,
इसी भावना के साथ कुछ बच्चों को पढ़ाना शुरू किया है. ये बच्चे व इन के माता-पिता
झुग्गी-झोपडी में रहते हैं. पिता दिहाड़ी करता है. माँ कोठियों में काम करती है और
कोठियों में रहने वाले बच्चों के पुराने कपड़े जो मिलते हैं, उन्हें ये बच्चे
पहनते हैं. सरकारी स्कूलों में इन बच्चों को प्रवेश करा दिया है. ये बच्चे हैं
वहां क्या पढ़ते हैं व क्या इन्हें पढ़ाया जाता है, इन बच्चों को मालूम नहीं है, न
ही अनपढ़ माता -पिता जानते हैं. जिस प्रकार के वातावरण में रहते हैं वह शिक्षा का
वातावरण नहीं है. बच्चों का बुद्धि-स्तर भी विकसित नहीं है. एक-दो बच्चों को छोड़
बाकी बच्चों को पढाई का भी कोई विशेष शौक नहीं है.
स्कूल का पाठ्यक्रम देख कर मै घबरा गई. प्रथम कक्षा में हिन्दी, गणित
व् इंग्लिश पढाई जाती है. हिंदी तो ठीक ढंग से बोल नहीं पाते तो इंग्लिश
कैसे समझेगे व बोलेगे. चलना तो पाठ्यक्रम के अनुसार है ताकि अपनी परीक्षा
पास कर सकें और अपने दैनिक जीवन की आवश्कतायों को सहजता से पूरा कर सकें, स्वयं को
सामाजिक एवं राष्ट्र की मुख्य धारा से जोड़ सकें, साक्षरता तथा संस्कारों का आपस में
अभिन्न संबंध है. हम इन्हें अक्षर ज्ञान के साथ -साथ नैतिक शिक्षा की बातें बताते
हैं. शिष्टाचार सम्बन्धी जैसे सब को नमस्ते से अभिवादन करना व माता -पिता व
बड़ो का आदर करना तथा उनका कहना मानना साथ ही ईश्वर संबंधी चर्चा करते हैं कि
ईश्वर सर्व व्यापक, सब जगह पर है. वह हमे देख, सुन और जान रहा है. ईश्वर क्या
-क्या करता है? उस के साथ हमारे क्या-क्या संबंध हैं और गलत काम करते हैं तो ईश्वर
हमें सजा भी देता है और. अच्छे काम करने पर इनाम भी देता है. बड़ा अच्छा लगता
है जब बच्चे ध्यान से सुनते हैं व सुनाते हैं.
यह क्रियात्मक प्रयोग जो हम कर रहे हैं, इस की उपलबिध केवल बच्चों को
ही नहीं हो रही है. अब तक तो स्वाध्याय करते व प्रवचन सुन लेते थे परन्तु अब जीवन
में व्यवहार में लाने का अवसर मिला है. इस वर्ग के बच्चों के साथ जो स्वयं सफाई से
वंचित रहते हैं, जहाँ रहते हैं वहाँ पानी का अभाव है और जब इन बच्चो के शरीर से
विशेष करके ग्रीष्म ऋतु में पसीने की दुर्गन्ध आ रही होती है तो सहजता व धैर्य से
लेने का अभ्यास बना रहे हैं. जब कभी इन पर गुस्सा भी आता तो स्वयं पर नियन्त्रण
करने का अभ्यास करते हैं. यह सोच कर कि सब पवित्र आत्माएं हैं, इन्हें हमारी
सहानुभूति की आवश्यकता है. इन्हें भरपूर प्यार दें जिस से इन की रूचि बनी रहे.
हमें इस बात का भी संतोष होता है कि ये बच्चे हमारे पास स्वस्थ वातावरण में अपना
समय गुज़ार जाते हैं. ऋषि दयानन्द सरस्वती जी ने आर्य समाज के नौवें नियम –”-सब को
अपनी उन्नति में ही संतुष्ट नहीं रहना चाहिए सब की उन्नति में अपनी उन्नति समझनी
चाहिए” .इस नियम का रहस्य व तथ्य भी समझ में आ रहा है. बच्चे उन्नत हो रहे हैं तो
उन के साथ हम भी उन्नत हो रहे हैं.
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