देश में एक बार
फिर से तीसरी शक्ति पारिभाषिक शब्द बन गया है जिसका अर्थ जरूरी नहीं है कि वह
तीसरे स्थान का ही कोई राजनितिक मोर्चा हो | यह ऐसे राजनीतिक प्रवृतियों वाले दलों
के मोर्चे के रूप में रूढ शब्द हो गया है जो वैकल्पिक धारा का प्रतिनिधित्व करते
है | वैकल्पिक से अर्थ है ऐसी राजनीति जिसमे सामाजिक सत्ता से छिटकी हुई जातियों
के नेताओं का नेत्रत्व हो , जिसमे सफ़ेद पोश की वजाय मेहनतकश वर्ग से आये नेता
अगुआकार हो , जो मजबूत संघ की वजाय राज्यों को अधिकतम स्वायतत्ता की पक्षधर हों |
वी पी सिंह ने रामो वामो के रूप में सही मायने में तीसरी शक्ति का जो विम्ब
प्रस्तुत किया था आज भी तीसरी शक्ति का नाम आता है तो लोग उसी विम्ब की कल्पना कर
लेते है |
लेकिन वी पी
सिंह के बाद कोई नेता ऐसा सामने नहीं आया जो तीसरी शक्ति का कुनबा जोड़ सके |
जनतादल परिवार की एकता का तराना छेडकर मुलायम सिंह ने तीसरी शक्ति के नेता के नये
अवतार को साकार करने की कोशिश की लेकिन अवसरवादी नीतियों की वजह से जनता दल के समय
ही यह साबित हो चुका था कि मुलायम सिंह ऐसी किसी संरचना की सामर्थ्य नहीं रखते
बल्कि अपने वर्ग द्रोही चरित्र के कारण वे तीसरी शक्ति को विखेर देने का काम करने
लग जाते है | फिर भी तीसरी शक्ति इस देश की एक जरूरत है ताकि आधुनिक भारत के
निर्माण के लिए देश में वांछित परिवर्तन लाया जा सके |
इस समय जबकि
कोंग्रेस के भविष्य पर अनिश्चितता के बादल मडरा रहे है , नरेन्द्र मोदी के प्रति
मोहभंग की बजह से भा ज पा के केंद्र में पैर डगमगाने लगे है राष्ट्रीय स्तर पर
विकल्प के रूप में तीसरी शक्ति के सितारे बुलंद होने के आसार देखे जाने लगे है
लेकिन बिहार के चुनाव परिणाम आने के पहले तक तीसरी शक्ति में किसी राष्ट्रीय स्तर
के नेत्रत्व के अभाव की बजह से किसी संभावना को टटोलना मुश्किल लग रहा था लेकिन
बिहार के चुनाव परिणाम ने रातों रात इस मामले में हालात बदल दिए है | तीसरी शक्ति
को अब नीतीश कुमार के नेतृत्व के तले सजोए जाने की कल्पना दूर की कौड़ी लाना नहीं
माना जा सकता | बिहार का चुनाव राष्ट्रीय स्तर का दंगल बन गया था इसलिए नीतीश
कुमार इसे जीत कर एकाएक ऐसे महाबली बन गये है जिन्हें केंद्र बिंदु बनाकर
राष्ट्रीय स्तर का धुर्वीकरण होने की पूरी पूरी संभावना है |
तीसरी शक्ति
बदलाव की ऐसी ख्वाहिश का नाम है जिसकी तृप्ति न होने से बदलाव की भावना से ओत
प्रोत भारतीय जन मानस प्रेत की तरह भटकने को अभिशप्त है | मोटे तौर पर भारतीय समाज
को लेकर यह अनुमानित किया जाता है कि भेद भाव और अन्याय पर आधारित वर्ण व्यवस्था
में बदलाव होने पर देश में एक साफ़ सुथरी व्यवस्था कायम हो सकेगी | लोहिया जी से
लेकर वी पी सिंह तक सवर्ण नेताओं की एक जमात भी साफ़ सुथरी व्यवस्था की कायल होने
की वजह से वंचित जातियों का सशक्तिकरण करके इसीलिए वर्ण व्यवस्था को कमजोर करने की
रणनीति पर अमल करती रही लेकिन यह विडम्बना है कि इन रणनीतियों के परिणाम उलटे
निकले है |
वंचित जातियों
के सशक्तिकरण के दौरान जिन नेताओं के हांथो में राजनीतिक सत्ता पहुची उन्होंने
जातिगत भावनाओं को चरम पर पहुचा कर वर्ण व्यवस्था को अलग ढंग से पहले से ज्यादा
मजबूती तो दी ही उन्होंने अन्याय की पराकाष्ठा भी वंशवाद व् स्वेच्छा चारी शासन के
रूप में फलित की | बिहार के चुनाव में लालू को मतदाताओं ने सबसे बड़ा इनाम दिया
क्योकि उन्होंने बदलाव की राजनीति में सदैव अपने को पटरी पर रखा लेकिन उक्त
बुराइयों और अदालत के निर्णय के कारण सत्ता के गलियारे से बाहर रहने की अपनी
मजबूरी के चलते वे खुद किंग नहीं बन सकते | उनकी भूमिका फिलहाल किंग मेकर तक की रह
गयी है | अगर वे आगे चलकर अदालत से क्लीन चिट भी पा लेते है तब भी बिवादित हो चुके
अपने व्यक्तित्व के कारण वे राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकार्य नहीं हो सकते |
ऐसे में इस
पूरे घमासान की सफलता का सारा इनाम नीतीश कुमार की झोली में जा गिरा है हालाकि वे
एक बार लालू की ही हठधर्मिता की वजह से जार्ज और शरद यादव के बहकावे में भा ज पा
नीति गठबंधन में शामिल होकर फिसलन के शिकार बन चुके है लेकिन समय रहते उन्होंने इस
कलंक का प्रक्षालन कर लिया है|
तीसरी शक्ति
की गुणात्मक विशेषता के अनुरूप झा उनका नेतृत्व सामाजिक बदलाव की कसौटी को पूरा
करता है वही वे मूल्यों की राजनीति में भी खरे है और तीसरी शक्ति के संघर्ष को
तार्किक परिणति तक पहुचाने के लिए इसकी जरूरत सर्वोपरि है |
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