24 September 2015

जंगल राज के रास्ते पर बिहार..!

बिहार में चुनावी बिगुल बज चुका है, जो पहले दोस्त थे आज दुश्मन बन बैठे हैं और दुश्मन दोस्त। बिहार विधानसभा के लिए होने वाले चुनाव इस बार गजब के वातावरण में हो रहे हैं। वर्तमान में सत्ता पर काबिज पार्टी जनता दल (यू) के नेता इन चुनावों में केन्द्र की डेढ़ साल पुरानी मोदी सरकार से जवाब मांग रहे हैं। चुनावों में किसी भी पार्टी के बदहवास होने का यह पहला लक्षण है क्योंकि चुनाव बिहार में राज्य सरकार गठित करने के लिए हो रहे हैं न कि लोकसभा के लिए। दूसरी तरफ राज्य की प्रमुख विपक्षी पार्टी भाजपा लगातार सत्तारूढ़ पार्टी के गठबन्धन में शामिल दलों के एक-दूसरे के विरोधी होने के प्रमाण प्रस्तुत कर रही है। जो लोग बिहार की राजनीति के तेवर और कलेवर को समझते हैं और जिन्होंने पटना का गांधी मैदान को देखा है, वे भलीभांति अनुमान लगा सकते हैं कि राज्य के मुख्यमन्त्री नीतीश कुमार के हाथ से सत्ता खिसकती नजर आ रही है और वह एक जमाने के अपने प्रबल प्रतिद्वन्द्वी लालू प्रसाद यादव के समक्ष हथियार डालते नजर आ रहे हैं। गांधी मैदान में जो सभा दो दिन पहले की गई थी, उसमें कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी और लालू प्रसाद समेत नीतीश कुमार व शरद यादव चुनावों का एजेंडा तय करने से पूरी तरह चूक गये और भाजपा के दिग्गज प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने इस गफलत का पूरा लाभ उठाते हुए उसे अपनी भागलपुर रैली में बहुत चतुराई के साथ तय कर डाला और चुनौती दी कि राज्य के चुनाव में राज्य के विकास और इसके लोगों की समस्याओं और उनके निवारण की बात होनी चाहिए और सत्ता पर काबिज लोगों से उनकी हुकूमत का 'हिसाब-किताब' लिया जाना चाहिए। अब बिहार के चुनावों में नीतीश एंड पार्टी के पास सिवाय जातिवाद का कार्ड चलाने के अलावा और कुछ नहीं बचा है। बिहारी अस्मिता का मुद्दा नीतीश कुमार बहुत जोश-ओ-खरोश से उठा रहे थे मगर उसकी हवा स्वयं लालू प्रसाद उनके साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर निकाल रहे हैं और सरेआम ऐलान कर रहे हैं कि उनका एकमात्र अजेंडा 'यदुवंश' है। 


बिहार के लोगों के बारे में लालू प्रसाद यह कहते हैं कि 'वे उड़ती चिड़िया को हल्दी लगाने में माहिर होते हैं', यदि ऐसा है तो फिर चुनावों से पहले ही इसके नतीजे आ चुके हैं! भागलपुर की रैली से पूरे बिहार में जो सन्देश गया है वह बिहार की अस्मिता को पुन: राष्ट्रीय पटल पर स्थापित करने का है और इसे मोदी ने इस रैली में बखूबी लोगों को बताने में काफी हद तक सफल भी रहे हैं। इस तथ्य को नीतीश कुमार जैसा अनुभवी राजनीतिज्ञ न पहचान पाये, इसे कोई भी स्वीकार नहीं कर सकता मगर अब वह ऐसे भंवर में फंस चुके हैं जिससे निकलना उनके वश में नहीं रहा है क्योंकि लालू यादव ने उनके चारों तरफ जो घेरा बांधा है वह उनके ही जनाधार को निगल जायेगा। बिहार में जंगलराज का उदाहरण लालू यादव के शासनकाल में सबने देखा है। हमें याद है जब शाम के 6 बजते ही घरवाले अपनों के सकुशल घर वापसी के लिए ब्याकुल हो उठते थे। इस बात का डर रहता था की कोई बाज़ार से लौटते समय लूट-पाट न कर ले। कोई अपनी पुरानी दुश्मनी इस जंगलराज के रास्ते से न चुका ले। लोगों में न्याय की उम्मीद भी खत्म हो चुकी थी क्योंकी थानेदार की कुर्सी पर 'यदुवंश' का बोलबाला था। इसी  जंगलराज को ख़त्म करने के नाम पर नीतीश कुमार भाजपा से हाथ मिलाया था और बिहार विकास के रास्ते पर चल पड़ा था। मगर आज नीतीश कुमार अपने राजनीतिक लाभ के लिए जंगलराज के राजदार से हाथ मिलाया है। ऐसे में सवाल वाजिब हो चला है की क्या बिहार एक बार फिर से जंगलराज के रास्ते पर है ? यही नीतीश कुमार सुशासन बाबू के नाम से प्रसिद्ध हुए थे। मगर इस बार बिहार की जनता नीतीश कुमार को किस रुप में पुकारती है ये सब कुछ 8 नवम्बर को साफ हो जायेगा। पटना की रैली में लालू यादव द्वारा केवल अपने जातिगत वोट बैंक को लामबन्द करने की कोशिश ने उनकी हालत अपने ही दरबारियों की कैद में पड़े किसी लुटे नवाब की मानिन्द बना दी है जिसे सत्ता से बाहर होने के बावजूद कहीं अनाम जगह अपने 'खजाने' के गड़े होने पर भरोसा है मगर अफसोस यह खजाना भी अब लुट चुका है क्योंकि स्वयं नीतीश कुमार ने ही उस जगह को तलाश कर वहां 'धान' की खेती बो दी थी। 


क्या ये बताना पड़ेगा कि वर्ष 2000 में किस तरह नीतीश कुमार के मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के बाद उन्हें लालू यादव ने अपनी पत्नी राबड़ी देवी के साथ मिलकर किस तरह बेइज्जत किया था और हफ्ते भर बाद ही नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री की कुर्सी खाली करनी पड़ी थी। मगर भागलपुर की सभा में प्रधानमन्त्री ने एक और महत्वपूर्ण मुद्दा उठाया कि जिन लोगों ने जीवन भर कांग्रेस विरोध की राजनीति की और जो डा. राम मनोहर लोहिया, जय प्रकाश नारायण व कर्पूरी ठाकुर के खुद को सैद्धान्तिक वारिस बताते हैं वे किस तरह कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ रहे हैं। इनमें लालू प्रसाद को मैं अपवाद मानता हूं क्योंकि उनका न तो इन सभी नेताओं से कोई खास लेना-देना था और न सिद्धान्तों से। वह बिहार में स्व. देवीलाल द्वारा भेजे गये ऐसे 'गुमाश्ते' थे जो अपने दबंगई व्यवहार से बिहार की राष्ट्रवादी व समाजवादी सोच को जातिवाद की दलदल में फंसा सकता था। लालू प्रसाद इस अपेक्षा पर खरे उतरे मगर 2005 में नीतीश कुमार ने भाजपा के साथ मिलकर इस दलदल में कमल खिला दिया और 2010 में तो पूरी दलदल को कमल के फूलों से पाट डाला और 243 सदस्यीय विधानसभा में लालू यादव  की पार्टी राजद के कुल 24 विधायक ही जीत पाये।


एक तरफ लालू यादव और नीतीश कुमार इसे यदुवंश-दलित की लड़ाई बता रहे हैं तो वहीँ दुसरी तरफ प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी इसे बिहार की अस्मिता को पुनस्र्थापित करने का चुनाव बता रहे हैं। कभी डॉ. लोहिया के विचारों की प्रयोगशाला बने इस राज्य के लोगों को विकास से दूर रखने की कोशिशें हो रही हैं और इसी वजह से उन्होंने पटना की सभा को 'तिलांजलि सभा' कहा। क्या गजब है कि जिस गांधी मैदान में कांग्रेसी मुख्यमन्त्री स्व. अब्दुल गफूर ने 'जय प्रकाश नारायण से लेकर साहित्यकार फणीश्वरनाथ रेणु पर लाठियां बरसाईं हों आज उसी गांधी मैदान से कांग्रेस को भी वोट देने की अपीलें हो रही हैं? लालू यादव तो अर्से से कांग्रेस के साथ हैं और उन्होंने बीड़ा उठाया हुआ है कि वह इस पार्टी का बिहार में 'जनाजा' उठाने में अपना कन्धा जरूर देंगे। इससे ज्यादा भाजपा को और क्या चाहिए!



जहां तक नीतीश कुमार का सवाल है तो उन्होंने भी अपने गुरुओं को 'तिलांजलि' दे डाली है और अब सब रास्ते बन्द होने पर उन्हें अपने डीएनए का ख्याल आ रहा है। बिना शक यह बिहार का डीएनए नहीं है क्योंकि इस राज्य का डीएनए ठीक वही है जो धनाढ्य समझे जाने वाले पंजाब राज्य का है। ठीक वही भौगोलिक स्थिति, कल-कल करती नदियां, वैविध्यपूर्ण उपजाऊ जमीन, राष्ट्रीय गौरव को महिमामंडित करती ऐतिहासिक धरोहर समेटे महान संस्कृति। और तो और पंजाब के तक्षशिला विश्वविद्यालय से चलकर पाटिलीपुत्र पहुंचे महान दार्शनिक आचार्य चाणक्य, क्या नहीं है बिहार में जो पंजाब में है। खुदा रहमत बख्शे, पंजाब में बस लालू प्रसाद नहीं है! श्री गुरु ग्रन्थ साहब में भी इसी बिहार की मिथिला भूमि के 'राजा जनक' को पहला 'बैरागी' राजा बताया गया है मगर क्या सितम हुआ कि ऐसे राज्य को पूरे भारत में इन्ही राजनीतिज्ञों ने 'जंगलराज' का पर्याय बना कर छोड़ दिया।


बिहार विधानसभा के होने वाले चुनावों को यदि किसी एक नाम से पहचाना जा सकता है तो वह यह है कि यह विरोधाभासों का महासंग्राम है। संभवत: पहली बार बिहार ऐसा तमाशा देख रहा है। यह चुनाव 'विरोधाभासों' का चुनाव है। इसके साथ ही यह चुनाव बिहार के मूल चरित्र के विरुद्ध विषमताओं के जमघट का चुनाव है। यह विकट स्थिति इन चुनावों में बन रही है जिसमें जातिवादी ताकतें राष्ट्रीय चिन्तन की ताकतों को अपने शिकंजे में कस रही हैं। पटना के गांधी मैदान में हुई भाजपा विरोधी दलों के महागठबंधन दलों की रैली को बिहार के लिए सबसे शर्मनाक दिन रहा। कांग्रेस की अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी की उपस्थिति में राष्ट्रीय जनता दल के नेता लालू प्रसाद यादव प्रत्यक्ष तौर पर जातिवाद के नाम पर वोट मांगते नजर आए और उन्होंने यादवों की संगठित शक्ति का आह्वान तक कर डाला। बिहार के लिए इससे बड़ी शर्म की बात कोई दूसरी नहीं हो सकती और इससे भी ऊपर कांग्रेस पार्टी के लिए शोचनीय स्थिति कोई दूसरी नहीं हो सकती। इसे बिहार के सम्मान की रैली के नाम पर आयोजित किया गया था मगर वास्तव में यह बिहार के 'अपमान' की रैली ही निकली। इस महागठबंधन रैली के मंच पर अजीब किस्म का नजारा पेश हो रहा था जिसमें शामिल हर दल अपनी ढपली अलग-अलग बजा रहा था और बाद में संगठित होकर भाजपा से मुकाबला करने का दम्भ भर रहा था। जरा सोचिये क्या बिहार का विकास जातिगत जनगणना के आंकड़े जारी करने से हो सकता है?


क्या सामाजिक समता की लड़ाई जातिवाद के आधार पर लड़ी जाएगी? बेशक समाजवादी नेता स्व. डा. राम मनोहर लोहिया ने अलख जगाई थी कि 'संसोपा ने बांधी गांठ-पिछड़ों को हो सौ में साठ' मगर इसी के साथ डा. लोहिया ने यह भी अलख जगाई थी कि 'जाति तोड़ो-दाम बांधो' अर्थात सामाजिक न्याय की लड़ाई की पहली शर्त जातिवाद दरकिनार करके केवल आर्थिक आधार पर होनी चाहिए तभी पिछड़ों के साथ न्याय हो सकेगा मगर महागठबंधन के लोग अपने ही जाल में बुरी तरह फंस गए हैं क्योंकि आज देश का प्रधानमंत्री स्वयं एक पिछड़ी जाति से है और गरीबी की घनघोर व्यवस्था से संघर्ष करते हुए इस मुकाम तक पहुंचा है। ऐसा कैसे संभव है कि बिहार की राजनीति में शुरू से ही उद्दंडता और शालीनता के दो प्रतीक क्रमश: लालू प्रसाद और नीतीश कुमार एक ही मंच पर बैठ कर दोस्ती की पींगें बढ़ाते हुए लोगों को विश्वास दिला सकें कि दोनों ने अपने रास्ते बदल दिए हैं। लालू यादव ने तो नीतीश कुमार की उपस्थिति में ही स्पष्ट कर दिया कि उनका रास्ता केवल यादववाद ही है। यह तथ्य तो एक औसत आदमी के सामने भी प्रकट हो गया। ऐसी विसंगति और विषमता के साए में बिहार के विकास की जो लोग कल्पना भी करते हैं वे स्वयं को ही छलावे में रखते हैं। 


बिहार की आज की राजनीति के तेवर को देख कर 1971 के लोकसभा चुनावों की याद आ रही है जब देश के सभी प्रमुख विपक्षी दलों ने स्व. इंदिरा गांधी की नई कांग्रेस के खिलाफ 'चौगुटा' मोर्चा बना कर चुनाव लड़ा था और जबर्दस्त तरीके से मुंह की खाई थी। इसकी वजह केवल एक थी कि इस चौगुटे के निशाने पर नई कांग्रेस नहीं बल्कि केवल इंदिरा गांधी थीं। इन्दिरा जी ने उस समय सरकार की नीतियों में क्रांतिकारी बदलाव किया था। विपक्षी दल इन नीतियों की जगह इन्दिरा गांधी की आलोचना करके ही चुनावी चौसर बिछा रहे थे। ठीक यही स्थिति आज बिहार में बनी हुई है। इस महागठबंधन के दलों में नरेन्द्र मोदी सरकार की जनधन योजना या सामाजिक सुरक्षा योजना की आलोचना करने की ताकत नहीं है। इनका लक्ष्य अकेले श्री नरेन्द्र मोदी बने हुए हैं। इस महागठबंधन की चुम्बकीय शक्ति नीतीश कुमार में भाजपा की आलोचना करने की हिम्मत नहीं है क्योंकि स्वयं आठ साल तक मुख्यमंत्री की कुर्सी पर वह भाजपा के बूते पर ही बैठे रहे हैं। लालू यादव के लिए भाजपा जब 'भारत जलाओ पार्टी' है तो नीतीश कुमार पिछले 14 साल से इसी पार्टी की छत्रछाया में केन्द्र व राज्य की सत्ता किस तरह भोग रहे थे? 


इस महागठबंधन के बनने से केवल एक व्यक्ति को लाभ होने जा रहा है जिसका नाम लालू प्रसाद है। यह उनके अस्तित्व की लड़ाई का सवाल है। इन चुनावों में यदि लालू प्रसाद अलग-थलग पड़ जाते तो उनकी पार्टी का वजूद ही खत्म हो जाता मगर 'उस्ताद' लालू ने बड़ी ही चतुराई से कांग्रेस पार्टी के बिहार में वजूद को खत्म करने का पुख्ता इंतजाम बांध दिया है। जिस रैली में खुले तौर पर समाज के केवल एक जाति के लोगों के लामबन्द होने की अपील की जा रही हो उसमें कांग्रेस अध्यक्ष के साथ राज्यसभा में इस पार्टी के विपक्ष के नेता गुलाम नबी आजाद का शामिल होना क्या यह नहीं बताता कि जिस कांग्रेस के आंदोलन को महात्मा गांधी ने इसी राज्य के चम्पारण जिले से शुरू करके उसे आजादी का आंदोलन बना दिया हो अब उसी से आजादी लेने का इस मुल्क में अभियान शुरू हो गया है? क्या गजब का 'सीन' पटना के गांधी मैदान में पेश हुआ कि बिहार के सम्मान के नाम पर आज उसी बिहार के लोगों का अपमान किया जा रहा है जिन्होंने गरीब और भूखे रह कर भी स्वयं को राष्ट्रीय चेतना के केन्द्र में सदा ही बनाए रख कर संदेश दिया कि राजनीति में सिद्धान्तों से ऊपर कुछ नहीं होता। बिहारी अस्मिता की पहचान तो इसके लोगों की राजनीतिक सजगता है। क्या नीतीश कुमार को 2014 के लोकसभा और 2010 के विधानसभा चुनावों की याद नहीं है। मगर आज तो ऐसा लग रहा कि आज बिहार एक बार फिर से जंगलराज के रास्ते पर है...!

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