उत्तराखंड की त्रासदी ने दो प्रमुख प्रश्न हमारे सामने खड़े किये हैं| पहला प्रश्न है कि विकास का वही माडल क्या पहाड़ों, रेगिस्तानों और समुद्र के किनारों पर लागू किया जा सकता है, जिसे मैदानी इलाकों पर लागू किया जा रहा है? दूसरा प्रश्न है कि क्या तीर्थस्थान माने जाने वाले स्थानों को पर्यटन स्थलों या सैरगाहों के समान विकसित करना और पर्यटकों को मौज मजे के लिए वहां जाने को प्रेरित करना उचित है? यह सच है की मानव सभ्यता का पूरा विकास प्रकृति पर मनुष्य के विजय का इतिहास ही है| पर, आज विकास के जिस माडल पर चला जा रहा है, उसकी प्रेरक शक्ति मानव सभ्यता के विकास के लिए प्रकृति पर विजय प्राप्त करना न होकर, प्रकृति से अधिक से अधिक धन पैदा करना है और ये हवस प्रकृति का विनाश कर रही है| पर, यहाँ जिस बात को मैं पाठकों के संज्ञान में लाना चाहता हूँ, वह है कि तीर्थ स्थानों पर सैलानियों की तरह लोग क्यों घूमने जा रहे हैं?
ये स्थान तपस्या करने के लिए थे, अब मौज मजे के लिए लोग इसका उपयोग कर रहे हैं और सरकारें भी पर्यटन के जरिये पैसा कमाने के चक्कर में इसे प्रोत्साहित कर रही हैं| सैलानियों के बढ़ने के कारण सभी तरह के नार्म्स , जिनका पालन पहाड़ों पर मकान बनाने के लिए होना चाहिए था, को धता बताकर अवैध निर्माण हुए हैं| पहाड़ मैदान नहीं हैं , जहां आप आगे बढ़कर निर्माण करते रह सकते हैं| पहाड़ों पर पक्के निर्माण की सीमा होती है| फिर लोग जायेंगे तीर्थ स्थान और उन्हें चाहिए वहां पांच सितारा होटल की सुविधाएं|
दरअसल, पिछले दो दशक में एक ऐसा धनाड्य वर्ग तैयार हो गया है, जिसके लिए ईश्वर और ईश्वर भक्ति भी विलासिता है| उसका परिणाम भी भुगतना होगा| दूर क्यों जाते हैं, हमारे पड़ोस में अमरकंटक है, मैं वहां प्राय: जाता हूँ| आज से दो दशक पहले धर्मशाला में ठहरते थे, कच्चे होटल में खाना खाते थे, कच्ची सड़कों पर चलते थे , ठंडा स्थान था| आज बड़ी बड़ी होटले हैं, पक्के रास्ते हैं , आवश्यकता से अधिक यातायात है और गन्दगी , उसकी बात ही नहीं पूछिए और युवाओं के लिए वो तीर्थस्थान नहीं , घूमने की जगह है|
दरअसल, आजादी के बाद स्वराज के लिए समाज को जिस शिक्षा की आवश्यकता थी, वो हमारे देश के सत्ता संभालने वाले नहीं दे पाए और एक अराजक समाज का निर्माण हुआ है, जो शासक वर्ग को सूट करता है| जिसे निहित स्वार्थियों से लेकर फिरकापरस्त तक, सभी अपनी थोथी धारणाओं और इच्छाओं से नचा रहे हैं| राजिम कुम्भ को ही ले लीजिये , हर साल कुम्भ. ये क्या अवधारणा है| सारे शास्त्र किनारे हो गए, रह गया, हर साल सड़क बनाना, अस्थायी निर्माण करना और समाज के पैसे को अनुपयोगी कामों में खर्च करना| पहले लोग तीर्थ यात्रा करने कष्ट उठाकर जाते थे, अब ईश्वर को कष्ट देने जाते हैं|
मेरी पूरी सुहानुभूति वहां घूमने गए लोगों के साथ है| जिन्हें भी असामयिक मृत्यु मिली है, उनके लिए भी गहन दुःख है, पर, ईश्वर को ईश्वर रहने दो और ईश्वर के निवास स्थान को पवित्र रहने दो| वहां सांसारिक सुखों से परे होकर कष्ट उठा के जाओ| मैं जानता हूँ , अनेक लोगों को ये बातें पसंद नहीं आयेंगी, पर मुझे यही ठीक प्रतीत होता है| जो पूजा-पाठ, ईश-भजन तो दूर, कभी मंदिर के पास से नहीं गुजरते| जिनकी शाम की आरती मंदिर में नहीं मदिरालय में होती है, लेकिन, अमरनाथ दस बार हो आये| ये क्या बात हुई? पूछो तो कहते हैं कि घूमने जाते है|
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