04 July 2013

क्या रोकी जा सकती थी उत्तराखंड में तबाही ?


उत्तराखंड के मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने कहा है कि उनके प्रदेश में भीषण बाढ़ का शिकार हुए लोगों की सही संख्या का कभी पता नहीं चल पाएगा। उनका अंदाजा है कि इस त्रासदी में मरने वालों की संख्या सैकड़ों से लेकर हजारों में हो सकती है।बहुगुणा ने कहा, हम उन लोगों की संख्या का सही-सही पता कभी नहीं लगा पाएंगे, जो मारे गए, जो लोग मलबे में दबे रह गए या बाढ़ के पानी में बह गए। विधानसभा अध्यक्ष गोविंद सिंह कुंजवाल ने शनिवार को कहा था कि मारे गए लोगों की संख्या 10 हजार तक हो सकती है, लेकिन मुख्यमंत्री ने कहा था कि यह आंकड़ा गलत है। उत्तराखंड में कुदरत के कहर से बच निकलने वाला हर शख्श सिर्फ सेना या आइटीबीपी के जांबाजों के गुणगान कर रहा है। राज्य सरकार या स्थानीय प्रशासन नाम की कोई चीज ही किसी मुसीबत के मारे को महसूस नहीं हुई। राज्य शासन-प्रशासन की अक्षमता और लचरता पर सैलानियों से लेकर स्थानीय लोगों का आक्रोश भी बार-बार फट रहा है। यह संदेश जा रहा है कि राहत कार्यो में शुरुआती देरी से तमाम जानें चली गईं। उत्तराखंड आने वालों में दक्षिण भारत से लेकर पूरब-पश्चिम और उत्तर सभी क्षेत्रों के लोग हैं। सभी राज्यों में उत्तराखंड शासन-प्रशासन की लचरता का संदेश जा रहा है। केंद्रीय सुरक्षा दलों को भी राज्य सरकार से समन्वय में शुरुआती दिक्कत आई। जो भी राहत काम हुआ, पूरी तरह से केंद्रीय आपदा राहत बलों के कमान संभालने के बाद ही हुआ।


उत्तराखंड में आपदा के बाद देश के कोने-कोने से राहत सामग्री पहुंच रही है। रसद के भंडार लगे हैं, पर कई गांव अब भी भूखे-प्यासे हैं। इन गांवों तक अब तक रसद न पहुंचने की वजहें चाहे जो गिनाई जा रही हों, पर यह भी सच है कि कहीं न कहीं इस नाकामी के पीछे वितरण की कमजोर व्यवस्था भी जिम्मेदार है।हाल यह है कि कई जगह राहत सामग्री कूड़े के ढेर की तरह पड़ी है और खराब हो रही है। कई जगह रसद के दुरुपयोग की बातें भी सामने आई हैं। जहां एक ओर, कोटद्वार में राहत सामग्री बांटने वालों के मिनरल वाटर से नहाने की बात सामने आई, वहीं श्रीनगर से श्रीकोट के बीच लोगों के दिए कपड़ों को नाले में गिराने का भी पता चला। कुछ जगह ग्रामीणों ने राहत सामग्री के गलत वितरण की भी शिकायत की है। साफ है कि कहीं न कहीं राहत पहुंचाने में भी हीलाहवाली की जा रही है। ऐसा न होता तो शायद अब तक आपदा के मारे हजारों लोग और सैकड़ों गांव भूखे प्यासे रहने को मजबूर न होते।गुप्तकाशी में जहां स्टोर में राशन और राहत सामग्री की बर्बाद हो रही है, वहीं कालीमठ घाटी के गांवों में भुखमरी की स्थिति पैदा होने लग गई है। हालांकि प्रशासन द्वारा घाटी के गांवों में एयर ड्रॉपिंग के माध्यम से राशन पहुंचाया गया, लेकिन मात्रा कम होने से लोगों के सामने भुखमरी की स्थिति पैदा हो गई है।

उत्तराखंड में आपदा प्रभावितों तक राहत सामग्री पंहुचाने के बजाय कांग्रेस मिशन 2014 के लिए अपनी प्रचार सामग्री पंहुचा रही है। आपदा प्रभावितों के लिए भेजे जा रहे राहत सामग्रियों के पैकेट में राहुल और सोनिया गांधी के पंपलेट निकल रहे हैं।उत्तराखंड में बाढ़ आपदा राहत के लिए आए करीब 150 ट्रक सामान राहत से अधिक प्रचार सामग्री बन गई है। श्रीनगर बेस कैंप से हर रोज उत्तराखंड के बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों को भेजी जा रही राहत सामग्री के अंदर भारतीय युवा कांग्रेस के पंपलेट भी डाले जा रहे हैं।पंपलेट में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तथा राहुल गांधी के चित्रों के साथ ही कांग्रेस का चुनाव चिह्न हाथ भी छपा हुआ है।कुछ दिन पूर्व श्रीनगर में युवा कांग्रेस के स्वयंसेवियों के साथ केंद्र सरकार ने राहत सामग्री भेजी थी। युवा कांग्रेस के स्वयंसेवी राहत सामग्री को बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में भेजने के लिए दिन-रात जुटे हुए हैं और बड़े-बड़े बोरों में भरकर आई राहत सामग्री के छोटे पैकेट बनाकर प्रभावितों को बांट रहे हैं।पैकेट में राहत सामग्री से जुड़ी विभिन्न 25 वस्तुओं में एक रंगीन पंपलेट भी शामिल है। इस पंपलेट को सबसे ऊपर रखा जा रहा है। ताकि राहत लेने वाले व्यक्ति को यह मालूम हो सके कि राहत कहां से आई और किसने भेजी।ऐसे में राहत सामग्री, प्रचार सामग्री बनकर उभर रही है। अब इसे बेशर्मी कहें या फिर डिजास्टर कम इलेक्‍शन मैनेजमेंट कि कांग्रेस को आपदा प्रभावितों के बुझे हुए चेहरों में भी वोट नजर आ रहे हैं।

देवभूमि कहे जाने वाले उत्तराखंड में त्रासदी के बाद चार-पांच दिन बाद से ही श्रद्धालुओं के शवों की दुर्गति हो रही है। देवभूमि पर ससम्मान अंतिम संस्कार न हो पाने का हिंदू समाज का दर्द सिर्फ परिवार तक नहीं रुकेगा। लापता लोगों की संख्या और प्रत्यक्षदर्शियों की मृतक संख्या की आशंका दिल दहलाने वाली है। आपदा के 16 दिन बाद भी जो लोग नहीं लौटे हैं और उनकी कोई सूचना नहीं है, उनके परिजन भी अब भारी मन से उन्हें हादसे का शिकार मानने को विवश हैं। देहरादून के राहत शिविरों और सरकारी दफ्तरों के चक्कर काटकर थक चुके लोग अब अपने लापता परिजनों के नीयति की शिकार होने की बात स्वीकार करने लगे हैं। वे अब केदारनाथ में अंतिम संस्कार से पहले लाशों के खींचे जा रहे फोटो और पहचान स्पष्ट करने वाली वस्तुओं को देखने के इच्छुक हैं, जिससे उन्हें अपने परिजनों की सही स्थिति का पता तो लग सके।

आंकड़ों की बाजीगरी दिखा रहे राज्य के मुख्यमंत्री उन लोगों का दर्द नहीं समझ पा रहे जो अब भी अपनों का इंतजार कर रहे हैं। तबाही के 16वें दिन राज्य सरकार केदारनाथ में सिर्फ 36 लोगों के शवों का अंतिम संस्कार कर पाई। सरकार ने बड़े-बड़े दावे किए थे कि 200 लोगों की टीम केदारनाथ भेजी गई है। डॉक्टरों की ये टीम डीएनए सैंपल लेगी और अंतिम संस्कार में मदद करेगी लेकिन एजेंसियों की मानें तो इस टीम के कई सदस्य केदारनाथ में बीमार पड़ने के बाद वापस लौट आए हैं। इसी से अंदाजा लग सकता है कि 16 दिन बाद भी हालात कितने बेकाबू हैं।

राज्य सरकार के लचर रवैये से खुद देश की सबसे बड़ी आपदा प्रबंधन अथॉरिटी परेशान है। मजबूर होकर राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन अथॉरिटी के उपाध्यक्ष शशिधर रेड्डी को कैमरे पर कहना पड़ा कि सरकार के आंकड़े भ्रम फैला रहे हैं। पहले राज्य सरकार ने दो रिपोर्ट भेजीं। दोनों में बचाए गए लोगों के अलग-अलग आंकड़े दिए गए हैं। इससे भ्रम हो रहा है। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन अथॉरिटी के ये आरोप बेहद गंभीर हैं। जिस अथॉरिटी का मुखिया खुद प्रधानमंत्री होता है, वो संस्था उत्तराखंड सरकार के आंकड़ों को कठघरे में खड़ा कर रही है। NDMA ने लापता लोगों के उत्तराखंड सरकार के महज 3000 के आंकड़े पर भी सवाल उठा दिया है। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट का हवाला देते हुए NDMA ने कहा कि जलप्रलय के बाद मची तबाही में 11 हजार 600 लोग लापता हुए हैं।

उत्तराखंड जैसी त्रासदी इस देश ने पहले कभी नहीं देखी लेकिन कोई भी सरकार आपदा के 16 दिन बाद ऐसे तर्क का सहारा नहीं ले सकती। तबाही बड़ी है तो उससे निपटने की तैयारी भी वैसी ही होनी चाहिए थी। तबाही का अंदाजा लगाने में सरकार ने तीन दिन लगा दिए। आपदा और राहत को लेकर सरकार एक कंट्रोल रूम तक नहीं बना पाई। एक एजेंसी ऐसी नहीं रही जो सारे काम पर नजर रखे। आंकड़े को लेकर भी सरकार की तरफ से अलग-अलग बयान दिए गए। कभी राज्य विधानसभा के स्पीकर ने 10 हजार लोगों के मरने की आशंका जताई तो कभी कैबिनेट मंत्री 5 हजार के आंकड़े तक पहुंच गए।ऐसी संवेदनहीनता ने राज्य सरकार से लोगों का भरोसा तोड़ दिया है। उत्तराखंड में जलप्रलय के 16 दिन बाद सरकार ने अब जाकर आपदा प्रबंधन अथॉरिटी तो बना दी है लेकिन इस सवाल का कोई जवाब नहीं है कि सरकार लापता लोगों के बारे में पुख्ता जानकारी कब तक जुटा पाएगी? आखिर कब वेबसाइट पर पूरी जानकारी अपलोड की जाएगी? जिन लोगों की मौत हुई है उनकी शिनाख्त के लिए क्या सिस्टम बनाया गया है? लोगों के अंतिम संस्कार के लिए सरकार के पास क्या इंतजाम हैं?

उत्तराखंड में बाढ़ की विभीषिका की खबरें आना जारी हैं। इस आपदा की तीव्रता का अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 2 हफ्ते बाद भी यह पता नहीं चल पा रहा है कि विभीषिका में कितनी जानें गयी। लेकिन हद की बात यह है कि उत्तराखंड की इस आपदा को लेकर कुछ लोग राजनीतिक नफा-नुकसान का हिसाब लगाने से बाज नहीं आ रहे हैं। राजनीति के अलावा मीडिया का रुख और रवैया दूसरा पहलू है। इस आपदा को लेकर टीवी चैनलों और अखबारों में खूब बहस और नोंक-झोंक हो रहीं हैं। उत्तराखंड में अब तक की भीषणतम आपदा ने राज्य के आपदा प्रबंधन और इससे निबटने की तैयारियों की पोल तो खोल कर रख ही दी, साथ ही सरकार को अपनों के कारण ही असहज हालात का सामना भी करना पड़ा। विपक्षी दल भाजपा के वरिष्ठ नेताओं ने आपदा के दौरान राज्य सरकार पर किसी तरह के आक्षेप से परहेज किया है, लेकिन अपनों का रवैया तल्ख है।राज्य सरकार आपदा राहत में नाकाम साबित हुई तो केंद्र सरकार ने खुद राहत कार्यो की कमान संभाल ली। दरअसल जब आपदा बरसी तो राज्य सरकार को कतई अंदाजा नहीं हुआ कि इससे जानमाल की इस कदर भारी तबाही हुई है। यही वजह रही कि जब केंद्रीय गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे देहरादून पहुंचे तो उन्होंने मीडिया के सामने स्वीकार किया कि आपदा राहत को लेकर केंद्र व राज्य सरकार में तालमेल की कमी रही। इससे किरकिरी राज्य सरकार की ही हुई।

उत्तराखंड में आपदा राहत का पहला चरण निपटते ही सियासी सैलाब नजर आने लगा है। कांग्रेस और भाजपा के बीच राजनीति गरमा गई है। दोनों ही दलों ने सीधे किसी पर हमला करने के बजाय एक-दूसरे के खिलाफ साइबर युद्ध छेड़ दिया है। सोशल साइट ट्विटर पर सूचना प्रसारण मंत्री मनीष तिवारी के हमले के बाद लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने उनका जवाब तो दिया ही, साथ ही आपदा प्रबंधन में राज्य व केंद्र सरकार को असफल बताते हुए मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा का इस्तीफा भी मांग लिया। इस जंग की शुरुआत की सूचना प्रसारण मंत्री मनीष तिवारी ने। उन्होंने संसद के दोनों सदनों के प्रतिपक्ष के नेताओं सुषमा स्वराज और अरुण जेटली पर उनके उत्तराखंड न जाने को लेकर ट्विटर पर कटाक्ष किया। साथ ही, कहा कि यह पार्टी सिर्फ कांग्रेस नेताओं के दौरे की आलोचना करती रही है। जेटली की तरफ से उठाए गए सवालों की तरफ इशारा करते हुए तिवारी ने ट्वीट किया कि विपक्ष के नेता सीबीआइ की स्वायत्तता पर प्रस्तावों की आलोचना कर सकते हैं, जिसे अभी सुप्रीम कोर्ट में पेश किया जाना है, लेकिन उनके पास उत्तराखंड के दौरे का समय नहीं है।

सुषमा स्वराज ने ट्विटर पर ही तुरंत पलटवार किया। उन्होंने लिखा कि गृह मंत्री के निर्देश के कारण ही वह उत्तराखंड नहीं जा सकीं। सरकार पर पीड़ितों के लिए कुछ नहीं करने का आरोप लगाते हुए उन्होंने लिखा कि जो संकट के समय सही शासन नहीं दे सके, उसे एक दिन भी सत्ता में बने रहने का अधिकार नहीं है। नेता विपक्ष ने कहा, ‘मुझे यह कहते हुए दुख होता है कि उत्तराखंड सरकार इस आपदा से निपटने में पूरी तरह नाकाम रही है। इसके लिए राज्य सरकार को बर्खास्त कर दिया जाना चाहिए। दुर्भाग्य से केंद्र की सरकार भी इससे निपटने में पूरी तरह नाकाम रही।’ उन्होंने कहा कि जब हम बात जिम्मेदारी की उठाते हैं, आप इसे राजनीति करार देते हैं। हम राजनीति के नाम पर सरकार को उसकी नाकामी से बचकर नहीं जाने दे सकते। जितना भी राहत-बचाव कार्य हुआ है, वह सब सेना, वायुसेना और आइटीबीपी ने किया है। उन्होंने अपने जान की बाजी भी लगा दी। मैं उन्हें सलाम करती हूं। सुषमा के इस ट्वीट के जवाब में मनीष तिवारी ने फिर लिखा कि अगर लोकसभा की नेता विपक्ष गृह मंत्री की सलाह पर अमल करती हैं तो भाजपा अध्यक्ष और चुनाव समिति के प्रमुख पर ये लागू क्यों नहीं होता। नरेंद्र मोदी और राजनाथ सिंह उत्तराखंड गए थे। मनीष से उलट कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने इस मौके पर किसी को राजनीति न करने की नसीहत दी।

उत्तराखंड में दर्जनों बस्तियों की बर्बादी रोकी जा सकती थी। सैकड़ों जानें बचाई जा सकती थीं।हजारों घर बचाए जा सकते थे और बचाया जा सकता था इस सुंदर सूबे को बर्बादियों का टापू बनने से।अगर संविधान की शपथ लेकर राज करने वाली सरकारों ने झूठ न बोला होता था। जी हां आपकी चुनी हुई सरकारों ने आपसे झूठ बोला है।
झूठ का सबूत अमेरिका से आया सबूत नहीं है। इसी गणतंत्र के उपग्रहों और वैज्ञानिकों की गवाही है ये। लेकिन न उत्तराखंड के मुख्यमंत्री को सोने से फुर्सत थी और न राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण नाम के परिंदे के बहेलियों को रोने से।6 घंटे का ऐसा वक्त जो उत्तराखंड के लिए सबसे भयावह होने वाला था, बचाने वाले बर्बादी के दस्तावेज पर अपनी बेफिक्री के दस्तखत कर रहे थे।

राज्‍य के मुख्‍यमंत्री विजय बहुगुणा कहते हैं कि बादल फटने के बारे में कोई पहले से नहीं बता सकता। काश मुख्यमंत्री सच बोल रहे होते। सच तो ये है कि बादल फटने से पूरे छह घंटे पहले भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन यानी (इसरो) ने आफत की सारी तस्वीर शीशे की तरह साफ कर दी थी। 16 जून को उत्तराखंड में तेज बारिश शुरू हो चुकी थी।जीएमटी के मुताबिक सुबह साढ़े सात बजे यानी भारतीय समयानुसार दोपहर एक बजे ये रिपोर्ट जारी की थी इसरो ने। इस पर साफ-साफ लिखा है कि उत्तराखंड में बादल फट सकते हैं। वो भी मुहावरे की भाषा में नहीं। कस्बों और शहरों के नाम के साथ। एक नहीं दो नहीं पूरे 11 जगहों पर ईश्वर के आने वाले आतंक की भविष्यवाणी।

ये 11 जगहें हैं: बारकोट, कीर्तिनगर, मुनिकीरेती, नरेंद्र नगर, पौड़ी, रायवाला, ऋषिकेष, रुद्रप्रयाग, श्रीनगर, टिहरी, उत्तरकाशी! इसरो ने अपनी ये रिपोर्ट उत्तराखंड की सरकार को भी भेजी थी और एनडीएमए को भी। लेकिन इतनी जरूरी सूचना पर सियासत के सम्राट सोते रहे। ये रिपोर्ट आने के छह घंटे के बाद उत्तराखंड के हालात हौसले के दायरे से बाहर निकल चुके थे। आपदा से पहले तेज इंतजामों की खाने वाले एनडीएमए के खुदा भयावहता को भांपने में असमर्थ रहे। एक साधारण वैज्ञानिक सूचना को दरकिनार करके सबने मिलजुलकर उत्तराखंड को एक अनियंत्रित आपदा की तरफ धकेल दिया था। उन छह घंटों में कुछ भी हो सकता था। सियासत के सूरमा कहते हैं कि बादल फटना एक दैवीय आपदा है और इसका पता नहीं लगाया जा सकता। झूठ बोलते हो आप सरकार। सरासर झूठ। बादल फटने की जुबानी बाजीगरी में अपराध ढकना चाहते हैं। एक घंटे में दस सेंटीमीटर की बारिश को बादल फटना कहते हैं और इसका पता लगाने की मेटार नाम की मशीन मुश्किल से डेढ़ करोड़ की आती है।इसरो का कहा सुन लिया होता सत्ता और नौकरशाही के नियंताओं ने तो उत्तराखंड एक नर्क में बदलने से बहुत हद तक बच जाता। लेकिन एक सामूहिक अपराध ने साधना की सुहानी तस्वीरों पर हजारों मौतों का नाम लिख दिया। दाता होने के राजनैतिक दंभ ने विज्ञान के अभिमान को ऐसे चूर किया कि सत्यानाश की तस्वीर तक नहीं देख सकीं सिंहासन की आंखें।

प्रकृतिक आपदा के 16 दिन बाद उत्तराखंड में खंड-खंड जिन्दगी की यह तस्वीरें बताती है कि हालात और बिगड रहे है। राहत सिर्फ नाम की है। आपदा प्रबंधन चौपट है। मौसम के आगे बेबस पूरा तंत्र है। जिन्दगी की आस जगाने वाला तंत्र, राजनीतिक दलो के घाटे मुनाफे में बंट गया है। सीएम से लेकर पीएम तक राहत कोष की रकम से जिन्दगी लौटाने के सपने देख रहे हैं। राज्य के मुख्यमंत्री यह बर्दाश्त करने की स्थिति में नहीं है कि उनकी सत्ता को कोई दूसरा राजनेता हिलाने की कोशिश करें। या मोदी सरीखा कोई सीएम मदद देने की बात कह कर देश को यह एहसास कराये कि बहुगुणा कमजोर हैं। तो बीते 15 दिनों में मौत का आंकडा लगातार बढ रहा है उसकी जिम्मेदारी मुख्यमंत्री ने नहीं ली। दोष मौसम पर मढा।बीते 16 दिनों में 200 से ज्यादा गांव में सबकुछ खत्म होने का अंदेशा लगातार गहराया है।

तमाम जद्दोजहद के बाद भी 4000 से ज्यादा लोग अब भी फंसे है।बिगडे मौसम के आगे अगर आपदा प्रबंधन नतमस्तक है और सियासत चमक रही है।तो होगा क्या?और देश के बाकी राजनेता जो 2014 के मिशन में लगे हैं उन्हें उत्तराखंड दल-दल लगेगा।ध्यान दें तो हो यही रहा है और राहत से लेकर आपदा प्रबंधन तक सियासी स्क्रिप्ट के तहत दिल्ली से देहरादून तक लिखा जा रहा है। हर सियासी चेहरा अपने अनुकुल सियासी बयान देकर विरोधी पर राजनीतिक आपदा लाने जा रहा है। इस आपदा के बारे में सोचें तो तीन बातें सामने आतीं हैं। पहली ये कि हम इस प्रकृतिक आपदा से कुछ सबक ले सकें और भविष्य में आपदा से बचने के लिए कोई विश्वसनीय व्यवस्था कर सकें। यानि ऐसा कुछ कर पायें जो आपदा प्रबंधन व्यवस्था को सुनिश्चित कर सके। दूसरी बात यह है कि प्रशासन को कटघरे में लाकर उसे जबाबदेह बनाने का इंतजाम कर सकें। और तीसरी बात यह है कि शासन को घेरकर जनता को यह बताने की कोशिश करें कि आपदा के बाद की स्थिति से निपटने में आपकी सरकार नाकाम रही। लेकिन यहां सवाल यह भी खड़ा होता है कि क्या विगत में ऐसी आपदाओं से हमने कोई सबक नहीं लिया था? इस बारे में कहा जा सकता है कि आपदा प्रबंधन को लेकर पिछले 2 सालों से जिला स्तर तो क्या बल्कि तहसील स्तर पर भी जोर-शोर से कार्यक्रम चलाये जा रहे हैं। लेकिन ये कोशिशें जागरूकता अभियान चलाने के आगे जाती नहीं दिखीं। अब सवाल यह है कि क्या देश के 600 जिलों के लिए हम 2 लाख करोड़ रुपये का अलग से इंतजाम करने की स्थिति में हैं ? उत्तराखंड की इस विभीषिका का पूर्वानुमान करते हुए क्या कोई आपदा प्रबंधन व्यवस्था बनाने में हम आर्थिक रुप से समर्थ हैं ? सवाल यहीं नहीं खत्म होते क्योंकि ऐसी प्राकृतिक आपदा के खतरे के दायरे में उत्तराखंड के अलावा 100 से ज्यादा इलाके आते हैं।

उत्तराखंड की प्राकृतिक आपदा से हमें यह साफ संदेश मिल रहा है, कि हम अपनी छोटी-बड़ी नदियों के पाटों का पुनःनिर्धारण कर लें। देश में उत्तराखंड की इस आपदा से हमें यह सबक भी मिल रहा है कि वर्षा के जल का स्थानीय तौर पर ही प्रबंधन करना बुध्दिमत्तापूर्ण है। इसके लिए यह सुझाव भी दिया जा सकता है, कि देश में पारम्परिक तौर पर मौजूद 10-12 लाख तालाबों की जलधारण क्षमता की बहाली करना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए। लगे हाथ यह भी याद दिलाया जा सकता है, कि टिहरी बाध की जलधारण क्षमता के कारण ही उत्तराखंड की विभीशिका के और ज्यादा भयानक हो जाने की स्थिति से हम बच गये हैं। इन सब बातों के मद्देनजर हमें अपनी नीतिओं और नियोजन के तरीके पर गंभीरता से विचार करने की जरुरत है। उपनिषदों में हिमालय को देव-भूमि कहा गया। देव स्वभाव से शांत और संतोषी होते हैं। अत: वे हिमालय पर शांति और संतोष चाहते हैं, मगर हमने इसका घोर उल्लंघन किया है। एक तो उत्तराखंड में 70 बांध बना दिए। इनमें 37 हिमालय के पारिस्थितिकी संवेदनशील क्षेत्र-गंगोत्री, भागीरथी और अलकनंदा नदियों पर हैं, जिनमें बड़े पैमाने पर बारूद से विस्फोट किया गया है, जिसके कारण हिमालय जर्जर हो गया है।

दूसरे, नदियों से खनिजों का अंधाधुंध दोहन और उनके किनारों का अतिक्रमण करके वहां पर मानव बसाहट कर दी गई, जिससे उनकी जल-प्रवाह प्रणाली अब प्राकृतिक नहीं रही। नदियों में प्रलयंकारी बाढ़ का यही कारण है। बांधों, सड़कों और बसाहट के लिए पेड़ों की अंधाधुंध कटाई हुई है। पेड़ पहाड़ों की सतही मिट्टी और नीचे चट्टानों में जड़ें फोड़ कर मिट्टी और चट्टानों को बांधे रखते हैं, यह तो एक तरह की ‘ग्राउटिंग’ है। पेड़ कट जाने से ऊपरी मिट्टी की सतह बह जाती है और नीचे चट्टानों के अस्थिर हो जाने से स्खलन होने लगता है। वषर्-2000 में उत्तराखंड में 85 प्रतिशत वन आवरण था, जो कि 2010 में घटकर 75 प्रतिशत रह गया। यद्यपि विकास आवश्यक है, लेकिन प्रकृति के सिद्धांतों को दरकिनार करके नहीं। हिमालय के नाजुक संवेदनशील क्षेत्रों की पहचान करके उसे ‘बायोस्फीयर रिजर्व’ घोषित करना चाहिए। इसके बाहर वहां का विकास देश-विदेशों में विकसित तकनीकों के अनुसार ही किया जाए।इसके कुछ सबक भविष्य में ऐसी आपदाओं को रोकने व उनसे निपटने में सहायक होंगे। इसका पहला सबक यह है कि हम प्रकृति का आदर और प्रकृति के सिद्धांतों का पालन करें। प्रकृति बहुत दयालु और सहिष्णु है, पर एक सीमा तक। सीमा लांघ जाने पर वह कुपित होकर कहर बरपा देती है।

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