02 July 2013

बिहार बनाम बर्तमान राजनीति 2013 !

बिहार की वर्तमान राजनीतिक परिस्थितियों का निष्पक्ष विश्लेषण करने पर ऐसा लगता है जैसे आने वाले समय में मुख्यमंत्री, नीतीश कुमार की वही हालत होने वाली है जो आज लालू प्रसाद यादव की है। हां, इसमें थोड़ा समय लगेगा। अभी नीतीश कुमार सत्ता में हैं तो ज्यादा उछल रहे हैं। केंद्र से सहायता भी मिल रही है, लेकिन यह ना भूलें कि वोट नीतीश कुमार को नहीं गठबंधन को मिला था। नीतीश कुमार की भाव-भंगिमा को देखकर ऐसा लगता है कि उन्हें अपने बारे में कुछ ज्यादा ही गलतफहमी हो गई है। राजनीति में ऐसा होता रहा है। कई बार भीड़ को देखकर नेता लोग अपने समर्थकों का गलत अनुमान लगा लेते हैं। इनकी राजनीतिक औकाद क्या थी, जब इन्होंने लालू प्रसाद से हटकर समता पार्टी का गठन किया था तो 7 विधायक जीतकर आए थे।

ये तो भारतीय जनता पार्टी है जिसने इन्हें केंद्र में मंत्री पद दिया और ये अपनी जड़ें मजबूत कर सकें और आज ये उन्हें ही पाढ़ पढ़ा रहे हैं। बिहार और देश की जनता सब देख-सुन रही है। बिहार की जनता देश को हमेशा एक नई राजनीतिक दिशा देने में आगे रही है। बिहार से ही महात्मा गांधी ने नीलहे अंग्रेजों के विरोध और किसानों के हितों के लिए चंपारण में सत्याग्रह की शुरुआत की थी। फिर, आपातकाल के दौरान जयप्रकाश नारायण ने संपूर्ण क्रांति का नारा दिया था और पूरा देश जयप्रकाश नारायण के साथ हो लिया था।

आज की परिस्थितियां उनसे भिन्न नहीं है। देश में विभिन्न पार्टियों के नेतागण जनता से किए वादे को पूरा करना अपना लक्ष्य नहीं बनाते हैं बल्कि वे सदैव जनता को जाति-धर्म और प्रांत के झगड़ों में उलझाये रखकर सत्ता की मलाई खाते हैं। जनता इन्हें नजदीक से देखते हुए भी एकदम से निरीह है, उसे दो वक्त की रोजी-रोटी की पड़ी है और इसी का फायदा नेतागण और माफिया गिरोह उठाते हैं। लेकिन जब जनता का गुस्सा उबाल खाता है तो फिर बड़े-बड़े महारथियों को धूल चाटनी पड़ती है।

बिहार में मुख्यमंत्री, नीतीश कुमार ने कांग्रेस के 4 विधायकों और 4 निर्दलियों की सहायता से विश्वास मत हासिल कर लिया। लेकिन जैसा कि उन्होंने बिहार की जनता से वादा किया था कि अगर हम घर-घर में बिजली नहीं पहुंचा सके तो हम आपसे वोट मांगने नहीं आयेंगे। अभी तक तो स्थिति यह है कि राजधानी पटना ही में कई-कई घंटों बिजली नदारद रहती है बाकि के शहरों में स्थिति का अंदाजा इसी से लग सकता है। गांवों की बात तो छोड़ ही दीजिए इस वक्त।

जेडीयू के पास 118 विधायक हैं, बीजेपी 91 सीटों पर काबिज है जबकि आरजेडी के पास 23 सीटें हैं। कांग्रेस के पास चार विधायक हैं जबकि निर्दलीय छह सीटों पर और अन्य 2 सीटों पर कायम हैं। कांग्रेस की नज़र नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू के 20 लोकसभा सदस्यों पर है, क्योंकि ममता बनर्जी की तृणमूल और द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डीएमके) जैसी पार्टियों के समर्थन खींच लेने से सरकार अल्पमत में चल रही है और अभी अपना कार्यकाल पूरा करने के लिए जेडीयू के लोकसभा सदस्यों की हमेशा जरूरत रहेगी।

वैसे भी, जेडीयू ने राष्ट्रपति चुनाव के समय में कांग्रेस प्रत्याशी, वर्तमान राष्ट्रपति, डॉ. प्रणव मुखर्जी को वोट दिया था और बदले में कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए की सरकार ने बिहार सरकार को ना सिर्फ पिछड़े राज्यों के लिए नई नीति की घोषणा का वादा किया बल्कि बिहार को केंद्र सरकार द्वारा दी जा रही आर्थिक मदद में 12 हजार करोड़ रुपये अतिरिक्त दिए। बिहार में, कई परियोजनायें तो ऐसी है जो वर्षों से धूल फांक रही थी और उनके लिए धन का आवंटन भी हुआ था, लेकिन धरातल पर कोई कार्यवायी होती नहीं दिख रही थी। ऐसी ही एक परियोजना बौद्ध सर्किट के विकास की है जिसे जापान की सरकार ने 2010 में ही वित्तीय मदद देने की पेशकश की थी, लेकिन पता नहीं किन कारणों से उसे रोककर रखा गया था, अब गठबंधन टूटने के बाद इन परियोजनाओं पर काम शुरू होता दिख रहा है, ऐसी चर्चा चल रही है। इसके अतिरिक्त, केंद्र सरकार की रेलवे निर्माण के क्षेत्र में कार्यरत एजेंसी, राइट्स ने पटना में मेट्रो रेल के परिचालन संबंधी योजना को भी हरी झंडी दे दी है।

अभी की स्थिति में नीतीश कुमार और केंद्र की कांग्रेस की सरकार दोनों का हित सध रहा है लेकिन नीतीश कुमार, राजनीति के मंजे हुए किलाड़ी है और उन्हें राज्य की वास्तविकता के बारे में पूरा अंदाजा है। राज्य में मुस्लिमों की आबादी 16 प्रतिशत तक है। अभी तक यह आबादी लालू प्रसाद यादव के साथ है। गौरतलब है कि लालू प्रसाद यादव ने 1990 में लालकृष्ण आडवाणी की रथ यात्र को समस्तीपुर में रोककर मुस्लिमों का वोट थोक मात्रा में पाया था और तब से लेकर अब तक मुस्लिम यादवों का गठजोड़ कायम है और इसी के बीते लालू प्रसाद ने बिहार में 15 वर्षों तक शासन किया था।

नीतीश कुमार के साथ में कुर्मी-कोयरी, अति पिछड़ों, महादलितों का वोट बैंक है और अगर वे इसके साथ में थोड़ी मात्रा में भी मुस्लिमों को जोड़ने में कामयाब रहे तो फिर उनकी जीत पक्की है। इसके लिए वे दिन-रात नई-नई घोषणायें कर रहे हैं तथा पाकिस्तान की यात्रा करके मुस्लिमों के बीच में संदेश देने की कोशिश भी की है। लेकिन बिहार में अभी तक मुस्लिम समुदाय कांग्रेस और राष्ट्रीय जनता दल के बीच बंटा हुआ है और इसे तोड़ना नीतीश के लिए आसान काम नहीं है।


लालू प्रसाद यादव इतनी आसानी से अपने वोट बैंक को जाने नहीं देंगे। नीतीश कुमार ने मुस्लिम मतों को आकर्षित करने के लिए सीमांचल प्रांत के बाहुबली और अपराधी नेत और लालू प्रसाद के समर्थकों में शुमार रहे पूर्व केंद्रीय मंत्री, तुस्लीमुद्दीन को अपनी पार्टी में शामिल करा लिया है। इसके अतिरिक्त जेडीयू से वर्तमान में कई मुस्लिम विधायक है, लेकिन अगले चुनाव में उंट किस करवट बैठता है, अभी देखना बाकि है। वैसे राजनीति में ना तो कोई स्थायी दोस्त होता है और ना ही दुश्मन।

राजनीतिक क्षेत्रों में ऐसी चर्चा चल रही है कि आने वाले समय में लालू यादव के चारा घोटाला को भूलकर बिहार और देश की जनता अगर, वर्तमान मुख्यमंत्री, नीतीश कुमार के मॉरीशस कनेक्शन को याद रखें तो गलत नहीं होगा। केंद्र सकार नीतीश कुमार और कंपनी का मॉरीशस में बड़े-बड़े होटलों और अन्य व्यवसायों में निवेश से संबंधित कागजातों को जांच कर रही है। कांग्रेस के साथ नीतीश के राग का यह बड़ा कारण है। नीतीश कुमार की स्वच्छ और धवल छवि सिर्फ और सिर्फ मीडिया जनित है, वे भी अन्य राजनेताओं की तरह उतने ही भ्रष्ट हैं, लेकिन अभी इस मुद्दे पर कुछ भी कहना जल्दीबाजी होगी क्योंकि जांच रिपोर्ट जब तक नहीं आती, तब तक कुछ बी कहना गलत होगा और हमें नहीं लगता कि आने वाले समय में यह आयेगी भी। क्योंकि कांग्रेस और नीतीश कुमार दोनों एक-दूसरे से गलबहियां करने वाले हैं। हालांकि, दबाव बनाने के लिए, चुनावों तक कहीं कोई बड़ा खुलासा हो जाये तो किसी को इस पर आश्चर्य नहीं होगा? आखिर, लालू यादव के समय के सारे अपराधियों के साथ होते हुए भी नीतीश कुमार कैसे पवित्र और स्वच्छ रहे।

अब तो आने वाला वक्त बतायेगा कि गठबंधन टूटने के बाद, बिहार में जनता दल यूनाइटेड या भारतीय जनता पार्टी में से किसे ज्यादा नुकसान उठाना पड़ेगा? हम तो बस इंतजार करो और देखो की नीति को जानते हैं। कहीं ऐसा ना हो कि चौबे गए, छब्बे बनने और दूबे बन गए। वैसे बिहार की जनता ने गठबंधन को बहुमत दिया था ना कि जनता दल यूनाइटेड या नीतीश कुमार को। अभी चुनाव कराके देख लें नीतीश कुमार तो हकीकत खुद ब खुद सामने आ जायेगी। महाराजगंज में प्रभुनाथ सिंह की जीत कई बातों को बयां कर देती है। कुर्मी और कोयरी वोटों पर अन्य नेताओं की पकड़ भी अच्छी-खासी है। इनमें उपेन्द्र वर्मा, सतीश कुमार सहित कई अन्य नाम शामिल हैं।
कई बार तो ऐसा लगता है कि जिस तरह से, लालू प्रसाद यादव ने राबड़ी देवी की सरकार बचाने के लिए शीबू सोरेन की झारखंड मुक्ति मोर्चा की मांग को मानते हुए बिहार का बंटवारा करने में तनिक भी संकोच नहीं किया लेकिन बाद का हश्र सबको पता है। 

उसी तरह से जेडीयू और भारतीय जनता पार्टी के गठबंधन को बिहार की जनता ने विकास के नाम पर वोट दिया था ना कि ओछी राजनीति करने के लिए। आज सुशासन और मीडिया जनित छवि के नाम पर भले ही नीतीश कुमार अपनी सरकार बचा ले गए हैं लेकिन उनका राजनीतिक भविष्य इससे प्रभावित हुए बिना नहीं रहेगा। किस तरह से लालू प्रसाद यादव पिछले दस सालों से दोबारा सत्ता प्राप्त करने को लालायित हो गए हैं, कुछ इसी तरह का हाल हमारे सुशासन बाबू का होने वाला है, लेकिन आस-पास में स्थित चापलूसों की चांडाल चौकड़ी उन्हें हकीकत को पहचानने नहीं दे रही है, ये चापलूस तभी तक हैं जब तक वे जीत रहे हैं, जैसे ही हाथ से सत्ता गई सारे के सारे गायब हो जायेंगे। क्योंकि राजनीति में ना तो कोई स्थयी दोस्त होता है और ना ही दुश्मन।।
बिहार के लोग तो विकास चाहते हैं, जिससे कि कंधा से कंधा मिलाकर हम देश के अन्य राज्यों के साथ चल सकें। जाति और धर्म की राजनीति से किसी का कोई भला नहीं होने वाला। हां, राजनेता जरूर आम-आदमी के बीच फूट डालने में इस कारण से सफल हो जाते हैं और रहे भी हैं। अंग्रेजों के जमाने से फूट डालो और शासन करो की यह नीति चल रही है।

ये वही नीतीश कुमार हैं जिन्होंने गुजरात के कच्छ में 13 दिसंबर 2003 को एक सभा को संबोधित करते हुए कहा था – मुझे पूरी उम्मीद है कि नरेंद्र बाई बहुत दिनों तक सिमटकर गुजरात में नहीं रहेंगे, देश को उनकी सेवा का मौका मिलेगा। तब वे केंद्र में रेल मंत्री थे और रेल प्रोजेक्ट का उद्घाटन कर रहे थे और आज का दिन है दोनों के सुर बदले-बदले से हैं। और पूछने पर पलटकर कहते हैं कि ये प्रोटोकॉल से बंधे थे। हद होती है राजनीतिक बेशर्मी की , वैसे बी अब सुचिता औऱ नैतिकता की बात राजनीति में रही नहीं।

वर्तमान समय में नीतीश कुमार दूसरों की बात सुनना छोड़कर अपनी बात को पार्टी और संगठन पर लादना शुरू कर दिया है। शरद यादव तो बस पार्टी का राष्ट्रीय मुखौटा भर है, शरद यादव सिर्फ वही बोलते हैं जो नीतीश कुमार कहते हैं। अपने राजनीतिक लाभ को देखते हुए नीतीश कुमार को एक बहाना चाहिए था और नरेंद्र मोदी के तौर पर उन्हें वो बहाना मिल गया है। नरेंद्र मोदी का नाम लेकर वो बिहार में मुसलमानों का सबसे बड़ा हितैषी बनना चाहते हैं इससे उसकी राजनीति का परिचय तो मिलता ही है, नीतीश कुमार एंड कंपनी और अन्य दलों के चरित्र का भी पता चलता है। इस देश में पार्टियों और नेताओं का हित जब तक सधता रहा है तब तक वे एक-दूसरे के साथ होती हैं और जैसे ही उन्हें लगता है कि आगे वाला बंदा बाजी मार ले जायेगा तो फिर टंगड़ी मारते देरी नहीं लगती। ऐसा ही कुछ हो रहा है, इन दिनों? आम-आदमी की परवाह किसी को नहीं। अगर, अगले चुनाव में किसी को बहुमत मिल जाता है या बहुमत के करीब होता है तो फिर इनकी बोली कुछ और होगी।

No comments:

Post a Comment