लोकतंत्र का मतलब है हर नागरिक को बराबर अधिकार और सत्ता में भागेदारी के लिये बराबर के अवसर। लेकिन बीते 8 बरस में जिस तरह भ्रष्टाचार, महंगाई, काला धन को लेकर संसद के भीतर बहस हुई और जनता के हित-अहित को अपने- अपने राजनीतिक जरुरत की परिभाषा में पिरोकर लोकतांत्रिक होने का मुखौटा दिखाया गया। उसको लेकर अब नये- नये सवाल खड़े होने लगे है। जो सिधे सरकार के उपर संवेदहीन होने का प्रत्यक्ष प्रमाण को दर्षाता है। देष में आज एक के बाद एक बड़े बड़े आंदोलन लगातार लोग कर रहे है मगर सरकार हर बार उसे सुलझाने के बजाय दबाने और कुचलने के लिए प्रयास कर रही है। भारत कुछ दिनों बाद तानाषाही में न बदल जाय इसको भी लेकर लोगो के मन में अभी से भय सताने लगा है। आज जो आवाज उठ कर सामने आ रही हैं उसको दबाने में सत्ता पक्ष को कोई खास मुश्किल नहीं आ रही है क्योकी सरकार इसे लोकतंत्र की गला घोंट कर असानी से निपटा ले रही है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र होने का तमगा लगाकर जीना आसान काम नहीं है। खासकर लोकतंत्र अगर संसदीय राजनीति का मोहताज हो। और संसदीय सत्ता की राजनीति समूचे देश को लोकतंत्र का पाठ पढ़ाये। और सत्ता के प्रतीक संसद पर काबिज राजनीतिक दलों के नुमाइन्दे भ्रश्टाचार, बलात्कार, जैसे विशयों पर जब चुप्पी ले तो सवाल अराजकता के मुहाने पर आकर खड़ा हो जाता है। आज देष का आक्रोस बात्कार पीडि़ता को न्याय दिलाने के लिए सड़को पर उमड़ रहा है, और सत्ता का षिखर रायसीना हिल्स अगर डगमगा रहा है तो इसका एकमात्र कारण भी सरकार की संवेदनहीनता है। जो समय रहते किसी भी मसले का समाधान निकालने के बजाय उसे रफा- दफा करने की प्रयास करती है। आम इन्सान की बिसात क्या जब इस देश में महिला आई ,ए .एस . अफसर मधु शर्मा के आई पी एस पति के ठीक उसी दिन हत्या कर दी गयी जिस दिन महिला दिवस था। अफसर की विधवा जो खुद भी आई 'ए .एस . अफसर है , जिसे खून के आंसू पीने को मजबूर कर दिया गया है तो किस से न्याय की उम्मीद की जा सकती है और किसे न्याय मिल सकती है। फिर भी देष ने बर्दास्त किया। मगर लगता है अब लोगों को न्याय से उमीद टूट चुकी है, राजनीति दलों से आस उठ चुकी है। क्योकी औरत की आबरू को सड़को पर चिरहरण होने लगा है। आम आदमी के अधिकार को दलाली के बाजार में बेचा जा रहा है तो एसे में ये जनआक्रोस बुलंद होना आम आदमी के गुस्से का प्रतीक को याद दिलाता है। जो बार- बार सरकार की संवेदनहीनता को दर्षाता है। दिल्ली में दरिंदगी की दहला देने वाली घटना के बाद जो माहौल दिखा है, वह कोई पहली बार नहीं दिखा। पिछले डेढ़ दशकों में करीब आधा दर्जन से ज्यादा बार दिल्ली इस तरह के झकझोर देने वाले माहौल से गुजर चुकी है। पिछले डेढ़ दशकों में दिल्ली कई बार उबली है। कई बार शर्मसार हुई है। कई बार मोमबत्तियों की रोशनी के साथ एकजुट हुई है, लेकिन खीझ और हताशा यही है कि बार-बार ऐसे मौकों की पुनरावृत्ति हो रही है। सवाल है कि गुस्से से उबल रहा देश इसकी पुनरावृत्ति के लिए क्यों मजबूर हो रहा है? आखिर दरिंदे इतने बेखौफ क्यों हैं? उन्हें कोई डर, अपराधबोध या चिंता क्यों नहीं होती? क्यों किसी प्रियदर्शिनी मट्टू, किसी मेडिकल कॉलेज की छात्रा, किसी कॉल सेंटर की कर्मचारी के साथ बर्बर दरिंदगी की घटना के कुछ महीनों बाद ही फिर उससे भी बड़ी दरिंदगी की घटना घट जाती है? आज सरकार की संवेदनहीनता इन्ही सवालों के इर्द- गिर्द ही घुम रही है। क्योंकि ये सवाल बार-बार हमारे गुस्से को आईना दिखाते हंै। क्योंकि ये सवाल बार-बार हमारे गुस्से को नपुंसक ठहराते हैं। हमारी सरकार हमें कैसी प्रशासन व्यवस्था प्रदान कर रही है यह आज सब के सामने आ गया है। तो ऐसे में सवाल खड़ा होता है की क्या सरकार संवेदनहीन हो गयी है।
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