भारत का चिकित्सा विज्ञान आज जो तरक्की के बुलंद सपने देख रहा है। उसको पूंज देने वालों में एक प्रमुख नाम है, प्रोफेसर ललित अग्रवाल जिनके नाम में ही प्रकाष है। संयोग देखिए प्रकाष के धनी प्रोफेसर अग्रवाल की जन्म तिथी वही है जो महान स्वतंत्रता सेनानी नेताजी सुभाश चन्द्र बोस की हैं। तेजस्वी ललित अपने बडे़ भाई प्रेम प्रकाष अग्रवाल आईसीएस के तरह गणित पढ़ना चाहते थे। कुषाग्र बुद्धि और परिश्रमी स्वभाव से किंग जार्ज मेडिकल कालेज में उन्हे प्रवेष मिल गया। जब युवा ललित द्वितीय वर्श की पढ़ाई कर रहे थे, उसी वक्त देष में भारत छोड़ो आन्दोलन का बिगुल बज गया। ऐसे में एक देष भक्त युवक कहा रह सकता था पीछे। वे कूद पड़े आन्दोलन में इसकी वजह से उन्हें प्रषासन का प्रकोप भी सहना पड़ा। एमबीबीएस पूरी करने के बाद डा अग्रवाल उच्च षिक्षा के लिए लंदन चले गए। ब्रिटेन में षिक्षा लेते वक्त उनके गुरूजन भी उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके। उनके गुरू और विष्व प्रसिद्ध नेत्र विषेशज्ञ डा देवेन पोर्ट ने उन्हें एक पत्र में लिखा- आफ आल दा इंडियन पोस्टग्रेजुएट्स हू हैव बीन एट मुरफील्ड्स सिंस दा वार, देयर हैज बीन नो कीनर मैन नो मैन हू हैज डॅन बैटर इन हिज एक्जामिनेषन और वर्क हार्डर टू गैन एक्सीपियरेस इन एवरी ब्रांच आफ दासब्जैक्ट । पढ़ाई के बाद डा अग्रवाल ने भारत आकर अपने कार्य की षरूआत सिविल सर्जन के तौर पर एक छोटे से कस्बे बिजनौर से की। लेकिन उनकी मंजिल तो कुछ और ही थी। लग गए आगरा और कानपुर में युवा डाक्टरों का भारत खड़ा करने में। इस वक्त तक प्रोफेसर अग्रवाल की षोध विष्वप्रसिद्ध हो चुकी थी। महज 34 वर्श की आयु में ही वें प्रतिंश्ठत षोध पत्रिका, आप्थमेलाजीका, के संपादक मंडल के सदस्य बने। 37 वर्श की आयु में ही एम्स के प्रोफेसर के रूप में चुने गए। कानपुर मे अपनी और पत्नी डा. सावित्री के धनवर्शा करने वाली प्रैक्टिस नहीं भाई। भाती भी कैसे, एम्स में अपने सपने को साकार करने का अवसर जो मिल गया था। इस सपने के पीछे एक दर्द छुपा था, जो उन्हें लंदन में पढाई के वक्त मिला था। उन्हें पूजनीय मानने वाले डा. अग्रवाल के उसी दर्द को बताते हैं प्रोफेसर पी.के खोसला। उस वक्त तक प्रोफेसर अग्रवाल के साथ कई उपलब्धिया जुड़ चुकी थी। जैसे प्रोफेसर अग्रवाल ने एम्स परिसर में ही देष को आत्म निर्भर बनने वाले डा राजेन्द्र प्रसाद नेत्र संस्थान की स्थापना की। प्रोफेसर अग्रवाल के आर पी सेन्टर बनने के पीछे एक सोच थी। क्योंकि प्रोफेसर जानते थे, देष के हालातों के बारे में। प्रोफेसर मदनमोहन बताते हैं। आर पी सेन्टर के पीछे प्रोफेसर अग्रवाल की दूर- दृश्टि। वे भारत में आई सेन्टर और उसकी उपयोगिता जानते थे। जब देष में डा अग्रवाल ने आई सेन्टर और राश्ट्रीय नेत्र बैक की नींव रखी उस वक्त देष में कार्निया की कमी थी। प्रोफेसर अग्रवाल की दूरदर्षिता और कड़ी मेहनत सामने आने लगी। विदेषी भी सोचने पर मजबूर हो गए। भारतीय छात्रों की आवष्यकता को ध्यान में रखते हुए नेत्र विज्ञान के क्षेत्र में अनेक पुस्तकें लिखीं। वे भारत सरकार के पहले आनेनरी ओपथेलमिक एडवाइजर बने। डा अग्रवाल के कई प्रतिश्ठित राश्ट्रीय और अंर्तराश्ट्रीय सम्मान मिले। विष्व के सबसे प्रतिश्ठित केवल साठ नेत्र वैज्ञानिको की संस्था ओपथेलमिक इंन्टरनैषनल के भारत के पहले और एकमात्र सदस्य थे। विष्व स्वास्थ्य संगठन के सहयोग से प्रोफेसर अग्रवाल ने एसिया और अफ्रीका में अंधेपन को रोकने के लिए कार्ययोजना बनाई। देष, विदेष के वरिश्ठ डा उन्हें भारत में आप्थलमोलोजी को नई उचाई तक ले जाने का श्रेय देते हैं। एम्स के डा. राजेन्द्र प्रसाद सेन्टर परिसर मे स्थित ओपथेलमीक रिसर्च एसोसिएषन का पुस्तकालय उनके सम्मान में उनके नाम पर कर दिया गया। डा. अग्रवाल के परिवार की एन जी ओ संकल्प मे रोटरी कल्ब दिल्ली अपटाउन के सहयोग से डा. एल पी अग्रवाल रोटरी मेमोरियल आई बैंक की स्थापना की। इस आई बैंक का उदघाटन भारत के उपराश्ट्रपति महामहिम हांमिद अंसारी ने 26 दिसम्बर 2011 को किया। इस अवसर पर अपने उदघाटन भाशण मे उपराश्ट्रपति ने कहा, प्रोफेसर अग्रवाल अपने जीवन काल में ही एक नेत्र विज्ञान के क्षेत्र में ख्यातिप्राप्त हस्ती बन चुके थे। प्रोफेसर अग्रवाल कर्म करते- करते कर्मयोगी बने। कर्मयोगी कभी सेवानिवृत नहीं होता। जीवन की अंतिम सास लेने से आधा घंटा पहले ये कर्मयोगी इंडिया हैबिटेट सेंटर में सेमिनार के आयोजन कर व्यवस्थाओं में सक्रिय भाग ले रहा था। आज ऐसे दूर दृश्टा और कर्मयोगी की कमी खलती रहेगी। ऐसे प्रेरणा विद् को षत् षत् नमन।
No comments:
Post a Comment