16 March 2022

बाबा विश्वनाथ की नगरी काशी में देवस्थान से लेकर महाश्मसान तक होली के रंग

देशभर में होली की धूम और उत्सव चल रहा है. मगर बाबा विश्वनाथ की नगरी काशी की होली कुछ खास है. यहां पर देवस्थान से लेकर महाश्मसान तक होली के रंग विरंगे उत्सव बाबा की नगरी में देखने को मिलती है. ऐसे तो कहा जाता है कि बाबा विश्वनाथ की नगरी में जन्म और मृत्यु दोनों मंगल है. यही कारण है कि यहां पर होली की अलबेली रंग कुछ अलग हीं छटा बिखेरती है. ऐसी अलबेली अविनाशी काशी में खेली जाती है दुनिया कि सबसे अनूठी जलती चिता की राख और भस्म से होली. महाश्मशान मणिकर्णिका पर बाबा मसान नाथ के चरणों में चिता की राख समर्पित कर फाग और राग-विराग दोनों का ही उत्सव आरम्भ हो जाता है. यह पूरा दृश्य ऐसा प्रतीत होता है जैसे कि जैसे भूतभावन महादेव स्वयं वहां अपने देवगणों के साथ साक्षात प्रकट हो गए हों.


हर वर्ष रंगभरी एकादशी के अगले दिन महाश्मशान मणिकर्णिका पर चिता भस्म की होली होती है. लेकिन माहौल बनाने के लिए रंगभरी एकादशी के दिन भी हरिश्चंद्र घाट के श्मशान पर चिता की राख से होली खेलकर काशी में चिता-भस्म की होली की शुरुआत हो जाती है. इसी दिन से बनारस में रंग-गुलाल खेलने का सिलसिला प्रारंभ हो जाता है जो लगातार छह दिनों तक चलता हैकाशी में मान्यता है कि बाबा विश्वनाथ के साथ होली खेलने और उत्सव मनाने के लिए भूत-प्रेत, पिशाच, चुड़ैल, डाकिनी-शाकिनी, औघड़, सन्यासी, अघोरी, कपालिक, शैव-शाक्त सब आते हैं.

महादेव शिव अपने ससुराल पक्ष के निवेदन पर अपने गणों को जब माता पार्वती का गौना लेने जाते हैं तो बाहर ही रोक देते हैं. क्योंकि, जो हाल महाशिवरात्रि पर शिव के विवाह में हुआ था वही अराजकता दोबारा पैदा न हो जाए. इसलिए अगले दिन मिलने का वादा करके सबको महाश्मशान बुला लेते है जिनको गौना में बुलाने पर उपद्रव तय था.


काशी की आदिकाल से चली आ रही यह परंपरा उसे अविमुक्त क्षेत्र बनाती है. जहां आम से लेकर खास तक, संत से लेकर सन्यासी तक चिता भस्म को विभूति मानकर माथे पर रमाए भाँग-बूटी छाने होली खेलते हैं. ऐसे में राग-विराग की नगरी काशी की प्राचीन काल से चली आ रही परम्पराएँ भी निराली हैं. जहां रंगभरी एकादशी पर महादेव काशी विश्वनाथ अड़भंगी बारात के साथ माता पार्वती का गौना कराकर ले जाते हैं तो वहीं दूसरे दिन बाबा अप्पने वादे के अनुसार गणों के साथ उत्सव मनाने महाश्मशान मणिकर्णिका भी जाते हैं. जहां चिता भस्म के साथ ये होली खेली जाती है.

परंपराओं के अनुसार भगवान शिव के स्वरूप बाबा मशान नाथ की पूजा कर महाश्मशान मणिकर्णिका घाट पर उनके गण जलती चिताओं के बीच गुलाल की जगह चिता-भस्म की राख से होली खेलते हैं. हर वर्ष काशी मोक्षदायिनी सेवा समिति द्वारा बाबा कीनाराम स्थल रवींद्रपुरी से बाबा मसान नाथ की परंपरागत ऐतिहासिक शोभायात्रा निकाली जाती है.

लौकिक परंपरा की बात करें तो मणिकर्णिका पर जहां अनवरत चिताएं जलती रहती हैं वहां पारम्परिक चिता भस्म की होली खेलने न केवल देश के कोने-कोने से साधक और शिव भक्त आते हैं बल्कि विदेशों से भी लोग पहुँचते हैं.

वहीं इस सनातनी परंपरा का निर्वाह करते हुए आज भी काशी में हर वर्ष रंगभरी एकादशी को बाबा विश्वनाथ का विशेष श्रृंगार किया जाता है. वे दूल्हे के रूप में सजाए जाते हैं. फिर विधिपूर्व​क हर्षोल्लास से बाबा विश्वनाथ के संग माता गौरा का गौना कराया जाता है. पूरी परंपरा का बनारस में विधिवत पालन होता है.

काशीवासी आज भी बाराती, भक्त तो शिव के गण बनते हैं. महाशिवरात्रि पर जो गण बाराती बनकर शिव विवाह में शामिल हुए थे वही अब बाबा की पालकी लेकर गौना कराने निकलते हैं. माँ गौरी की विदाई कराकर शिव जब काशी विश्वनाथ मंदिर की तरफ प्रस्थान करते हैं तो काशी में शिव के गण बने शिव-भक्त रंग-गुलाल उड़ाते हुए साथ चलते हैं. ये पूरा मनोरम दृश्य मनो स्वर्ग की छटा बिखेर रही हो.

बनारस में कहा जाता है कि महादेव कितनी भी मस्ती में क्यों न हों लेकिन अपने दृश्य-अदृश्य उन गणों को उत्सव में बिसरा दें यह हो नहीं सकता. वे गण जो थोड़े डरावने हैं. वही जो बिना बुलाए जब शिव बारात में सब चलें गए तो द्वारचार में माँ गौरा की माँ मैना देवी ऐसी बारात और बारातियों को देखकर बेहोश हो गई थीं. इसलिए, कहा जाता है कि गौना में ऐसे भूत-पिचास, अदृश्य आत्माएँ थोड़ी दूरी बना लेती हैं ताकि सब सकुशल संपन्न हो जाए.

काशी की संगीत परंपरा भी अपने आप में अद्भुत है. बनारस की होली भी बनारस के मिजाज के अनुसार ही अड़भंगी है. दुनिया का इकलौता शहर जहाँ अबीर, गुलाल के अलावा धधकती चिताओं के बीच चिता भस्म की होली होती है. घाट से लेकर गलियों तक होली के हुड़दंग का हर रंग अद्भुत होता है. महादेव की नगरी काशी की होली भी अड़भंगी शिव की तरह ही निराली है.

परंपराओं के अनुसार, आज भी महाश्मशान मणिकर्णिका पर, भगवान शिव के स्‍वरुप बाबा मशाननाथ की पूजा कर श्‍मशान घाट पर चिता भस्‍म से उनके गण होली खेलते हैं। कहते शैव-शाक्त, अघोरी से लेकर तमाम महादेव के भक्त-गण इस अवसर का साक्षी होने के लिए कई जन्मों तक प्रतीक्षा करते हैं. कहा तो यह भी जाता है जब तक महादेव न बुलाएं तब तक किसी को ऐसा सौभाग्य नहीं मिलता कि वह स्वयं काशी में महादेव संग होली खेलने का पुण्य अवसर प्राप्त करे.


काशी मोक्ष की नगरी है और दूसरी मान्‍यता यह भी है कि यहां भगवान शिव स्‍वयं तारक मंत्र देते हैं. लिहाजा यहाँ पर मृत्‍यु भी उत्‍सव है और होली पर चिता की भस्‍म को उनके गण अबीर और गुलाल की भाँति एक दूसरे पर फेंककर सुख-समृद्धि-वैभव संग शिव की कृपा पाने का उपक्रम भी करते हैं.

आपको यह भी बता दूँ कि होली बनारस और बिहार के गया में बुढ़वा मंगल तक चलता है. होली के बाद आने वाले मंगलवार को काशीवासी बुढ़वा मंगल या वृद्ध अंगारक पर्व भी इसे कहते हैं. काशी में होली जहां युवाओं के जोश का त्यौहार है तो बुढ़वा मंगल में बुजुर्गों का उत्साह भी दिखाई पड़ता है.

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