18 February 2014

मेरे देश की संसद मौन है !

                                                              ‘एक आदमी रोटी बेलता है
                                                               एक आदमी रोटी खाता है
                                                               एक तीसरा आदमी भी है
                                                        जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है।

                                                               वह सिर्फ रोटी से खेलता है
                                                                       मैं पूछता हूं-
                                                               यह तीसरा आदमी कौन है?
                                                               मेरे देश की संसद मौन है।’

धूमिल ने जब यह कविता लिखी थी तब शायद उन्हें एफडीआई शब्द का अर्थ भी नहीं मालूम रहा होगा। वह तथाकथित समाजवादी सोच का भारत था, जहां रह रहकर अत्यंत आध्यात्मिक तौर पर समझाया जाता था कि प्रजा ही राजा है, वही असली मालिक है और चीथड़ों से सजे लोग भक्तिभाव से नेताओं के इस प्रवचन को सुनते थे। तब इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन नहीं, बैलट बॉक्स थे। उनमें अपनी पसंद के नेता के चुनाव-चिह्न् पर ठप्पा लगाकर बैलट ठूंस दिए जाते थे। चुनावी प्रक्रिया के अर्थ भी अलग होते थे। महिलाएं और दलित अक्सर वोट डालने नहीं जा पाते थे। उनकी जगह गांवों, कस्बों के दबंग इस नेक काम को पूरा कर देते थे। लोकतंत्र के उस शुरुआती दौर में भी अगर धूमिल को लगता था कि रोटी बनाने और उससे खेलने वाले में जमीन आसमान का अंतर है तो यह उनकी दृष्टि थी, जो छल को परत दर परत देख पाती थी।

सुदामा पांडे (धूमिल का स्कूली नाम) गांव से आते थे। वे जानते थे कि खेती कितना मुश्किल काम है। उनका आक्रोश संसद के मौन पर फूटता था। धूमिल को गुजरे हुए बरसों बीत गए पर हालात में फर्क कहां आया है? संसद आज भी मौन है। तब जमींदारों, जमाखोरों के जुल्म पर कोई सियासी एका नहीं था, आज किराने पर एफडीआई को लेकर जितने दल उतने वैचारिक दलदल हैं।

कमाल देखिए। जो लोग इन दिनों हो-हल्ला कर रहे हैं, वे जब सरकार में थे तब उन्होंने इसके पक्ष में तर्क दिए थे। आज का सत्तापक्ष तब विपक्ष में था, लिहाजा कांग्रेस के लोग हमलावर थे। एक और आनंद की बात। द्रमुक के नेता दयानिधि मारन ही वह मंत्री थे, जिन्होंने वाजपेयी की सरकार में इसका नोट बनाया था। मारन अब नहीं रहे, उनकी पार्टी पाला बदल कर कांग्रेस के साथ आ गई है। फिर भी द्रमुक सुप्रीमो भी इस फैसले पर नाखुशी जता चुके हैं। नेताओं का यही गिरगिटी चरित्र है।

देश के लोगों में सुगबुगाहट है कि एफडीआई पर यह बहस संसद के बाहर क्यों की जा रही है? हम सब जानते और मानते हैं कि संसद सर्वोच्च है और उसके सदस्य हमारी रीति-नीति के रखवाले हैं। गरीबों की भरमारवाले इस देश का काफी धन लोकसभा और राज्यसभा के अधिवेशन पर खर्च होता है। क्यों नहीं इसका सार्थक उपयोग किया जाता? क्यों नहीं वहां तर्क-वितर्क होते और उन्हें एक सम्मानजनक नतीजे पर पहुंचाया जाता? क्या वजह है कि पार्टियों के प्रमुख नेता सदन में बोलने की बजाय टीवी कैमरों पर अपनी राय जाहिर करना बेहतर समझते हैं? इन सवालों पर हम पहले भी चर्चा कर चुके हैं, इसलिए सीधे एफडीआई के मुद्दे पर आते हैं।

एफडीआई के बहाने एक बार फिर बेहद पुराना और बेसुरा राग अलापा जा रहा है कि भारत गुलाम हो जाएगा। किसी को ईस्ट इंडिया कंपनी याद आ रही है, तो कोई मुगल बादशाह जहांगीर का स्मरण कर रहा है और किसी को देश की संप्रभुता का खतरा सता रहा है। क्या 121 करोड़ की विशाल आबादी वाला यह महान देश इतना कमजोर है कि वह फिर से गुलाम हो जाएगा? अजीब बात है! जिन कंपनियों का नाम लेकर कोसा जा रहा है, उनमें से कुछ के मुख्यालय अमेरिका में हैं।

इसी अमेरिका के राष्ट्रपति ओबामा अपने बच्चों को यह कहकर डराते हैं कि मन लगाकर पढ़ो नहीं तो तुम्हारी कुर्सियों पर भारत या चीन से आए नौजवान कब्जा कर लेंगे। हमारे जागृत और जोशीले नौजवानों का रास्ता रोकने के लिए वहां तरह-तरह के कानून बनाए जा रहे हैं। ऐसे नौनिहालों के रहते क्या कोई देश गुलाम हो सकता है? सवाल उठता है, हमारे नेता अपने स्वार्थ साधने के लिए कब तक अतीत के रिसते जख्मों में नमक-मिर्च झोंकते रहेंगे? यह समय उभरते हुए हिन्दुस्तान के लोगों का मनोबल बढ़ाने का है, डिगाने का नहीं।

आप भूले नहीं होंगे। 1991 में जब नरसिंह राव की अगुवाई में मनमोहन सिंह ने अर्थव्यवस्था की खिड़कियां खोली थीं तो कैसा जलजला आया था? तब भी ऐसी ही बातें की गई थीं। क्या उदारीकरण के इन बीस साल में हम गुलाम हो गए? हकीकत यह है कि उस समय के अमेरिकी राष्ट्रपति भारत का संज्ञान तक नहीं लेते थे, आज उन्हें हमारी युवा शक्ति से डर लगता है। अगर हम उसी पुराने रास्ते पर चल रहे होते, तो आज हमारा हाल भी उन देशों की तरह होता, जिन्होंने समय रहते अपनी खिड़कियां-दरवाजे नहीं खोले और अपनी ही वैचारिक सीलन का शिकार हो गए।

मैं खुद गांव से आता हूं। अपने बचपन में मैंने देखा था कि वहां का एकमात्र व्यापारी परिवार किस धूर्तता से लगभग समूचे गांववालों को अपना देनदार बनाए हुए था। हालात तब भी खराब थे। धरती पर अन्न उपजाने वाला किसान अपनी उगाई फसल की सही कीमत कभी भी नहीं पाता था। पहले तो लेनदार ही उस खलिहान से सब कुछ उठवा लेता था और बचे-खुचे की भी सही कीमत नहीं मिलती थी। अफसोस! गांवों में साहूकारी का यह जाल अभी भी बेहद मजबूत है।

इस वजह से भी हमारे गांव वीरान होते जा रहे हैं। महानगरों में नौकरी तलाशने वालों की बढ़ती तादाद ने अपने ही मुल्क में हर रोज विस्थापित होते लोगों की संख्या में जानलेवा बढ़ोतरी की है। यह क्रम जारी है। इसे रोकने के लिए जरूरी है कि किसान को उसकी उपज की सही कीमत मिलनी शुरू हो। यह तभी हो सकता है, जब बिचौलियों और दलालों से भरी मौजूदा व्यवस्था को तोड़ने के लिए एक समानांतर प्रणाली स्थापित की जाए। एफडीआई इसका एक विकल्प हो सकती है।

पर यह हो कैसे? साझे चूल्हे पर कोई भी पकवान आसानी से नहीं पकता। डॉक्टर मनमोहन सिंह के नसीब में राजयोग के साथ तमाम रुकावटें भी हैं। हुकूमत के पिछली पाली में जब वे अमेरिका से परमाणु समझौता कर रहे थे तब वामपंथियों ने अपनी बैसाखियां हटा ली थीं। मजबूरी में उन्हें मुलायम सिंह की शरण में जाना पड़ा था, जिसके दुष्परिणाम जगजाहिर हैं। इतिहास जैसे खुद को समूचे विद्रूप के साथ दोहरा रहा है। अब ममता बनर्जी रूठ गई हैं। उनका दावा है कि सरकार ने अपने फैसले को फिलहाल टाल दिया है। अंतिम फैसले की शक्ल क्या होगी, इसका इंतजार है पर कुछ विघ्नजीवी इस गठबंधन में पड़ी दरारों की लम्बाई-चौड़ाई मापने लग गए हैं। राजनीति की अंधी गली किस तरह बड़े उद्देश्यों का रास्ता रोक देती है, इसका यह त्रसद उदाहरण है।

मैं खोखले तर्कशास्त्रियों की तरह आपको आंकड़ों में नहीं उलझाना चाहता, पर यह सच है कि हम चीन के बाद सबसे ज्यादा सब्जियां उगाते हैं। ब्राजील के बाद सर्वाधिक फल हमारी धरती से ही उपजते हैं। फिर भी हमारे किसान गरीब हैं। न तो उन्हें उपज की कीमत मिलती है और न ही वे उसे बचा पाते हैं। इसे दुरुस्त करने के लिए भी एक नई व्यवस्था की जरूरत है। यह समय उससे खौफ खाने के बजाय सीखने का है। क्यों न हम उनकी कुछ बेहतर चीजें ग्रहण कर उनका सदुपयोग अपनी शक्ति बढ़ाने में करें?

हिन्दुस्तानियों की एक बड़ी दिक्कत है। हम इतिहास से सीखते कम हैं, उसे तोड़ते-मरोड़ते ज्यादा हैं। संसद को मौन रखकर खुद मुखर रहनेवाली नामचीन हस्तियों से आग्रह है कि वे खुद नया इतिहास गढ़ने की कोशिश करें। उन्हें भूलना नहीं चाहिए कि काल उनका भी आंकलन कर रहा है।

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