दिल्ली की एक अंग्रेज़ी पत्रिका कारवाँ ने जेल
में बन्द स्वामी असीमानन्द के हवाले से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर यह
आरोप लगाया है कि संघ ने उन्हें हिंसात्मक गतिविधियों की अनुमति प्रदान की
थी। यह पहला मौका नहीं है जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के चरित्र पर इस तरह
से हमला किया गया है। संघ उन शक्तियों के निशाने पर अपने जन्म काल से ही
रहा है, जो भारत को कमजोर करना चाहती है और इसको खंडित करने के स्वप्न
देखती रही हैं या अभी भी देख रही हैं। इसका मुख्य कारण यही है कि संघ ने
शुरू से ही भारत के जिस सांस्कृतिक स्वरूप का समर्थन किया है, विदेशी
शासकों और विदेशी ताकतों को वह कभी पसंद नहीं रहा है। उन्हें सदा खतरा रहता
है कि इस सांस्कृतिक उर्जा से अनुप्राणित होकर भारत एक बार फिर विश्व में
अपना गौरवशाली स्थान प्राप्त कर सकता है।
1947 से कुछ साल पहले तक मुस्लिम लीग संघ का इस लिए विरोध करती
थी क्योंकि संघ मुस्लिम लीग के देशघाती विभाजन के सिद्धांत का विरोध कर रही
थी और विभाजन के बाद कांग्रेस ने संघ पर इस लिए आक्रमण तेज किए क्योंकि
देश विभाजन के राष्ट्रघाती फॉर्मूले को स्वीकार कर लेने के बाद कांग्रेस के
भीतर जो अपराध बोध पल रहा था, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के आईने में वह उसे
टीस देता रहता था इसलिए यह जरूरी था कि संघ के इस आईने को भी किसी प्रकार
से तोड़ दिया जाए। मामला यहां तक बढ़ा कि नेहरू और उसकी टीम के मुख्य लोगों
यथा मौलाना अब्दुल कलाम आज़ाद और रफ़ी अहमद किदवई ने भी महात्मा गांधी के
मन में भी संघ के बारे में गलतफहमी पैदा करने की कोशिस की। यही कारण था कि
महात्मा गांधी स्वयं संघ की शाखा में उसे समझने बुझने के लिए पधारे थे।
नेहरू और उसकी टीम के लोग महात्मा गांधी के मन में मोटे तौर पर संघ की
भूमिका को लेकर भ्रम पैदा करने में सफल नहीं हुए लेकिन जब नेहरू के मित्र
और उस समय के गवर्नर जनरल लॉर्ड माउंटबेटन ने, पाकिस्तान को 55 करोड़ दिए
जाने के प्रश्न पर महात्मा गांधी को उपवास करने के लिए उकसाया, तो
माउंटबेटन भी शायद इतना तो जानते ही थे की विभाजनोपरांत उत्पन्न हुए
उत्तेजक वातावरण में इस उपवास से और उत्तेजना बढ़ सकती है और इसका परिणाम
घातक भी हो सकता है।
इसे भी माउंटबेटन की रणनीति का हिस्सा ही मानना चाहिए कि उन्होंने गांधी
को मरणव्रत रखने के लिये उकसाते समय सरदार पटेल और अन्य राष्ट्रीय ताकतों
को अंधेरे में रखा। महात्मा गांधी की हत्या पर जब सारा देश स्तब्ध और
शोकाकुल था तो जवाहार लाल नेहरू इस राष्ट्रीय शोक का इस्तेमाल केवल
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को निपटाने के लिए ही नहीं कर कर रहे थे बल्कि लगे
हाथ यह चर्चा भी चला दी थी कि इसके लिये सरदार पटेल भी दोषी हैं । पटेल
इससे बहुत आहत हुये थे । नेहरु ने गान्धी हत्या का बहाना लेकर राष्ट्रीय
स्वयंसेवक संघ को प्रतिबंधित ही नहीं किया बल्कि संघ के उस वक्त के
सरसंघचालक गुरू गोलवलकर को गिरफ्तार भी कर लिया। ताज्जुब होता है कि भारत
विभाजन के लिये काम कर रही मुस्लिम लीग को तो १९४७ के बाद भी काम करने दिया
गया और संघ को स्वतंत्रता के तुरन्त बाद प्रतिबन्धित कर दिया गया । यह अलग
बात है कि न्यायालयों ने नेहरू की इस चाल को तार-तार कर दिया और संघ को
महात्मा गांधी की हत्या के आरोप से मुक्त किया,जिसके बाद सरकार को संघ से
प्रतिबंध हटाना पड़ा।
बहुत से लोगों को यह जान कर हैरानी होगी कि जिन दिनों पंडित नेहरू जम्मू
कश्मीर के प्रश्न को संयुक्त राष्ट्र संघ में ले गए थें उन दिनों लेक
सक्सेस में पाकिस्तान का प्रतिनिधि बार-बार इस बात पर जोर देता था कि जम्मू
कश्मीर से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से सभी लोगों को निकाला जाए। उसका
मुख्य कारण शायद यही था कि पाकिस्तान को विश्वास था कि नेहरू और शेख
अब्दुल्ला के साथ तो मजहब के आधार पर जम्मू कश्मीर के विभाजन की बात की जा
सकती है लेकिन जब तक राज्य में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोग हैं तब तक
वे जम्मू कश्मीर के किसी भी हिस्से को पाकिस्तान को दिए जाने का विरोध करते
रहेंगे।
विभाजन से पूर्व मुस्लिम लीग ने और विभाजन के बाद कांग्रेस ने संघ के
नेतृत्व में राष्ट्रवादी शक्तियों को अपने निशाने पर बनाए रखा। लगता है
सोनिया गांधी की पार्टी भी मुस्लिम लीग की उसी विरासत को लेकर एक बार फिर
किसी गहरे षड्यंत्र को लेकर देश की राष्ट््वादी शक्तियों को निशाना बना कर
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को घेरने के षड्यंत्र में जुट गई है। अंग्रेजी की
एक पत्रिका की किसी पत्रकार को आगे करके संघ पर देश में हिंसात्मक
गतिविधियों को सहमति देने को लेकर जो आरोप लगाया है वह उसी रणनीति का
हिस्सा है। सोनिया गान्धी की पार्टी के क्रियाकलापों और उसकी रीति नीति को
समझने के लिये मुसोलिनी की कार्यप्रणाली और मैकियावली की राज्य नीति को
समझना बहुत जरुरी है। कारवाँ में प्रकाशित तथाकथित साक्षात्कारः को तभी
ठीक से पकड़ा जा सकता है ।
कारवां अपने इस तथाकथित साक्षात्कार को लेकर किस प्रकार एक पूरी रणनीति
के तहत काम कर रहा था इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि कारवां में
प्रकाशित इस आलेख को जब किसी ने बहुत ज्यादा तवज्जो नहीं दी तो पत्रिका की
ओर से 5 फरवरी को बाकायदा एक प्रेस नोट जारी किया गया जिसमें संघ के
सरसंघचालक पर यह आरोप लगाया गया कि उन्होंने असीमानंद को देश में हिंसात्मक
गतिविधि करने के लिए अपनी सहमति दी थी। यह प्रेस नोट दिल्ली प्रेस के
मालिकों की सहमति या सहभागिता के बिना तैयार नहीं किया जा सकता था जो
कारवाँ के मालिक हैं । रिकॉर्ड के लिए बता दिया जाए कि दिल्ली प्रेस नाम से
मीडिया के धंघे में लगी यह कंपनी पिछले कई सालों से अंग्रेजी और हिंदी में
अनेक पत्र-पत्रिकाएं छाप रही है। दिल्ली प्रेस के इस मीडिया हाउस का स्वर
शत प्रतिशत हिंदू विरोधी रहता है। हिन्दू संस्कृति और उसके प्रतीकों को
खासतौर पर निशाना बनाया जाता है। जो काम तरूण तेजपाल का मीडिया हाउस
तथाकथित स्टिंग ऑपरेशनों के माध्यम से करता था वही काम दिल्ली प्रेस का
मीडिया हाउस हिन्दू आस्थाओं पर प्रहार द्वारा करता है । कहना चाहिए कि
दोनों मीडिया हाउस एक ही उद्देश्य की पूर्ति के लिए अलग-अलग तरीकों से काम
कर रहे हैं । इस उदेश्य की पूर्ति के लिए एक तीसरा समूह भी कार्यरत है।
भारत में चर्च के विभिन्न संस्थानों द्वारा प्रकाशित पत्र पत्रिकाओं को इस
तीसरे समूह की संज्ञा दी जा सकती है। दिल्ली प्रेस की पत्र पत्रिकाओं और
चर्च द्वारा भारत में मतांतरण आंदोलन को तेज करने के लिए प्रकाशित की जा
रही पत्र पत्रिकाओं की भाषा का यदि गहराई से अध्ययन किया जाए तो लगभग एक
समान दिखाई देती है।
सोनिया गांधी की पार्टी को लगता होगा कि यदि संघ पर ये आरोप तरूण तेजपाल
के मीडिया हाउस तहलका के माध्यम से लगाए जाते हैं तो उस पर कोई विश्वास
नहीं करेगा क्योंकि तेजपाल की कथित करतूतों का पर्दाफाश हो जाने के कारण
उसकी विश्वसनीयता लगभग समाप्त हो गई है। शायद इसी मजबूरी में दिल्ली प्रेस
को पर्दे के पीछे से निकाल कर यह खेल खेलने के लिए मैदान में उतारा गया।
लेकिन दिल्ली प्रेस वालों ने शायद इस खेल में नए होने के कारण ऐसी भूलें कर
दी जिससे उनका झूठ पकड़ा ही नहीं जा रहा बल्कि उसके भीतर के अंतरविरोध भी
स्पष्ट नजर आ रहे हैं। कारवां के प्रेस वक्तव्य में अंतरविरोध इतने स्पष्ट
थे कि उन्हें इस वक्तव्य के जारी हो जाने के तुरंत बाद भूल सुधार और
स्पष्टीकरण जारी करना पड़ा।
पिछले चार पाँच साल से सोनिया गान्धी की पार्टी सरकारी जाँच एजेंसियों
के साथ मिल कर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का नाम हिंसात्मक गतिविधियों से
जोड़ कर, एक प्रकार से आतंकवादियों को कवरिंग रेंज प्रदान कर रही है। इस से
होता यह है कि जाँच एजेंसियाँ यदि चाहें भी तो वे न तो इस्लामी
आतंकवादियों की गतिविधियों की जाँच कर सकतीं हैं और न ही उन्हें रोक सकतीं
हैं। सोनिया पार्टी को लगता है कि इस्लामी आतंकवाद के प्रति उसके इस रवैये
से मुसलमान उसे एक मुश्ताक़ वोट दे देंगें। सरकार को अच्छी तरह पता होता है
कि संघ को लेकर फैलाए जा रहे इस दुर्भावना पूर्ण इतालवी झूठ को सिद्ध करने
के लिये उसके पास कोई प्रमाण नहीं है । इसलिये न्यायालय में किसी को
आरोपित नहीं किया जा सकता है और न ही आज तक किया गया है। लेकिन सरकार की
मंशा तो चुने गये मीडिया समूहों की सहायता से संघ और राष्ट्रवादियों को
जनमानस में बदनाम करना है। दिल्ली प्रेस की सहायता से किया गया यह प्रयास
भी उसी कोटि में आता है। कारवाँ के किसी पत्रकार ने दावा किया है कि उसने
जेल में असीमानन्द से दो साल में बार बार मुलाक़ात की है तो ज़ाहिर है यह
सारी साज़िश सरकारी सहायता के बिना संभव नहीं हो सकती। दिल्ली प्रेस भी और
सोनिया गान्धी की पार्टी और उसकी सरकार भी अच्छी तरह जानती है कि तथाकथित
टेपों की जब तक जाँच होगी तब तक तो संघ पर लगे यह आरोप सब जगह चर्चित हो
चुके होंगे।
कारवाँ के इस कारनामे को एक और पृष्ठभूमि में भी देखना होगा। पिछले एक
दो साल से देश में यह चर्चा फिर से हो रही है कि सोनिया गान्धी की इतालवी
पृष्ठभूमि और उनके राजीव गान्धी से शादी से पूर्व के जीवन के बारे में
तहक़ीक़ात की जाये। सोनिया गान्धी इस समय देश की सत्ता के केन्द्र बिन्दु
में है और देश सुरक्षा के लिहाज़ से एक प्रकार से संक्रमण काल से ही गुज़र
रहा है । वैश्विक इस्लामी आतंकवादियों के निशाने पर भारत भी है, यह रहस्य
किसी से छिपा नहीं है। ऐसे समय में सोनिया गान्धी की सरकार आतंकवादियों के
प्रति नर्म रवैया ही नहीं अपना रही बल्कि देश की जनता का ध्यान भी इस ओर से
हटाने के लिये संघ पर दोषीरोपण कर रही है। पार्टी के एक महामंत्री तो
खुलेआम आतंकवादियों का समर्थन करते नज़र आते हैं। आख़िर आतंकवादियों के
प्रति सरकार की इस नर्म नीति के पीछे कौन है ? ये प्रश्न और भी तेज़ होकर
चारों ओर गूँजने लगें , उससे पहले ही देश की राष्ट्रवादी ताक़तों पर
दोषारोपण कर उन्हें रक्षात्मक रुख़ अख़्तियार करने के लिये विवश किया
जाये,लगता है संघ पर दोषारोपण के पीछे यही सरकारी नीति काम कर रही है।
क्या कारण है कि आज अमेरिका भी संघ को निशाना बना रहा है , पाकिस्तान भी
और सोनिया गान्धी की पार्टी भी ? हरिशंकर परसाई ने एक बार लिखा था कि यदि
दुकानदार किसी ग्राहक की बुराई करें तो समझ लेना चाहिये कि ग्राहक ने उस
दुकानदार के हाथों चुपचाप लुटने से इन्कार कर दिया है । इसी प्रकार अमेरिका
भारत में जब किसी संगठन को गालियाँ देना शुरु कर दे तो मान लेना चाहिये कि
वह संगठन भारत में अमेरिकी हितों के रास्ते की सबसे बड़ी बाधा है। लेकिन
क्या सोनिया गान्धी और उसकी पार्टी इस बात का ख़ुलासा करेगी कि वह संघ को
बदनाम करने के काम में किसके हितों की रक्षा में लगी हुई है? रही बात
कारवाँ की, इस लड़ाई में अभी पता नहीं कितने छिपे हुए कारवाँ लोकसभा के
चुनावों तक प्रकट होते रहेंगे। तरुण तेज़पाल के जेल जाने से कारवाँ ख़त्म
थोड़ा हो गया है।
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