न्याय सार्वभौमिक अवधारणा है। अतः संसार के
प्रत्येक देश में इसके संबंध में बहुत विपुल कार्य किया गया। पश्चिम में
अरस्तु-प्लेटो जैसे आदर्शवादियों से लेकर मैकियावेली जैसे कूटनीतिज्ञों व
लॉक-हॉब्स जैसे सामाजिक समझौतावादियों से लेकर मार्क्स जैसे क्रांतिवादियों
तक सभी ने न्याय को अपने-अपने ढंग से परिभाषित किया। अपने देश में भी
प्राचीनकाल लेकर अर्वाचीन समय तक बहुत से विद्वानों ने इस विषय पर गहनता से
विचार किया। मनु, शुक्र व चाणक्य जैसे राजनीतिशास्त्रियों ने न्याय की
प्रतिष्ठापना का दायित्व शासकों पर डाला है। उन्होंने न्याय को गतिशील व
विकेंद्रित करने के लिए कई प्रकार की संस्थाए व संगठन बनाने का सुझाव दिया।
साथ ही उन्हें प्रभावी अधिकार देने की वकालात भी की।
ऐसी संस्थाओं को विकसित करने के लिए उन्होंने कुछ पद्धतियां भी
बनाई। उन्हीं पद्धतियों के अन्तर्गत ग्रामीण स्तर पर लोक न्याय के
विकेन्द्रित स्वरूप के लिए ग्राम पंचायतों का सृजन किया गया। तत्कालीन समय
में इनका स्वरूप बडा ही मजेदार था। उस समय में इसके सम्बंध में एक कहावत
प्रचलित हुई-‘‘ पंच परमेश्वर’’। विनोबा भावे ने लोकनीति संबंधी अपने
साहित्य में इस कहावत का बहुधा प्रयोग किया है। कहावत बहुत ही छोटी है
लेकिन यह अपने में बहुत ही गहरा भावार्थ समेटे हुए है। इसका पहला भाव तो यह
है कि तत्कालीन भारत में समाज में परस्पर विश्वास की भावना ज्यादा थी।
न्याय का इच्छुक व्यक्ति पंचों पर पूर्ण विश्वास रखता था। यानी पंच जो
निर्णय देंगे वह बिल्कुल सही होगा। क्योंकि उनके द्वारा दिया गया निर्णय
ईश्वर की वाणी माना जाता था। पंच परमेश्वर वाली न्याय प्रणाली की दूसरी
विशेषता यह है कि समाज के कुछ वृद्धजन प्रबुद्धजन यदि कोई निर्णय ले लेते
थे तो वह सभी के लिए ईश्वर की वाणी के समान माना जाता था। विचारणीय तथ्य यह
है कि निर्णय लेने वाले वे वृद्ध अनुभवी होने के साथ ही आचरण में पवित्र
होते थे। अतः उनके द्वारा दिया गया निर्णय कभी गलत नहीं होता था। समाज में
पंचो व पंचायतों के प्रति बहुत ही सम्मान होता था।
न्याय की यह प्रकिया पहले सम्पूर्ण गांव के लिए एक ही होती थी, विनोबा
जी ने इसका कारण यह बतलाया है कि उस समय जाति वर्ग श्रेणी आदि का चलन समाज
में नही थे। मेरे विचार में शायद जाति वर्ग आदि तो अस्तित्व में होंगे
लेकिन न्याय की व्यवस्था पूरे गांव के लिए एक ही रही होंगी। धीरे-धीरे देश
की अर्थनीति व समाज व्यवस्था में बदलाव होने लगा, जातीय स्वाभिमान व रक्त
शुद्धता की भावना जोर पकड़ने लगी। जाति के सदस्य अपनी जाति के लिए पृथक
नियमों व रिवाजों की वकालात करने लगे। यह विचार ही भविष्य में जातीय
पंचायतों की मजबूती व दृढिकरण का आधार बना। तत्कालीन समय इनके विकास के लिए
एक वरदान सिद्ध हुआ। तब राजव्यवस्था का देश में प्रभाव अधिक था, बाहरी
आक्रमणों से त्रस्त लोग अपने सांस्कृतिक अभिमान को बचाने की कोशिशों में
लगे हुए थे। उनके सामने एक खतरा भयंकर रूप से विद्यमान था, ‘वर्ण संकरता
उत्पन्न होने का‘ ऐसी परिस्थिति में खापों के द्वारा अपने स्वयं में कठोरता
लाना लाजिमी था। उन्होनें इसका हल कुछ इस प्रकार निकाला कि खांप की
निर्णयकारी संस्था पंचायत न केवल अपनी खांप की नीति निर्धारक बन गई बल्कि
नियति निर्धारक भी बन गई। उन्हें जाति की सुरक्षा के लिए व्यवस्थाएं लागू
करने का अधिकार अवष्य दिया गया लेकिन तब भी पद्धति वही थी ‘पंच बोले
परमेष्वर‘। चाहे समाज से बहिष्कार का डर हो चाहे समाज के साथ चलने की
सदस्यों की नीति, लेकिन व्यक्ति पंचायत के निर्णयों को शिरोधार्य करता
अवष्य था। पचांयत के नियमों के संबंध में कुछ भी कहने की आवष्यकता नहीं, आज
भी समाज के नियम इतने कठोर है तो तत्कालीन समय में इनकी कठोरता कितनी रही
होंगी यह हम सभी जानते है।
जाति-पंचायतों के अस्तित्व को मिटाना आज लगभग
असंभव है क्योंकि इनका आधार जाति है और जाति आज राजनीति का आधार बन चुकी
है लेकिन इन पर नियंत्रण तो किया जा ही सकता है। सरकार यदि सभी खाप
पंचायतो में समानता लाने का प्रयास करे तो ये नियंत्रित हो सकती है,
अन्यथा इनका कहर दिन प्रतिदिन बढता ही जायेगा। इसमें कोई संदेह नहीं।
विचारणीय बिंदु यह है कि पंचायतों ने समय के साथ अपनी शक्ति में वृद्धि
तो बड़े जोर-शोर से किया लेकिन जिस प्रकार की गतिशीलता की मांग समय के साथ
उठी वह गतिशीलता ये अपने में स्थापित करने में उतने सफल नहीं हो सकी। अपने
तंत्र में युगानूकूल परिवर्तन करने में ये पूर्णतया असमर्थ रहीं। तब वक्त
दूसरा था, जब न तो किसी प्रकार के उन्नत साधन थे न ही न्याय की कोई समर्थ
संस्थाएं। समाज के लिए खाप की पंचायते ही ‘माई-बाप‘ थी। मध्यकालीन समाज
व्यवस्था के लिए खाप पंचायते बिल्कुल सही संस्था थी। काल के प्रवाह में
उठा-पटक के कई दौर चले मुगलों का शासन समाप्त हुआ अंग्रेजों का काला शासन
देश में जड़ें जमाने लगा। उन्होने अपने स्वार्थों को पूरा करने के लिए
जातियों में एक अलग प्रकार की भावना को जागृत किया। उन्होने जातियों को
‘वाद‘ के दायरे में बिठाकर उनके व्यवहारों को अलगाव के अंधे भंवर में डालने
का घिनौना प्रयास किया। प्रत्येक व्यक्ति के लिए अलग-अलग प्रकार के
नियम-कायदों को स्थापित करके उनकी व्यवस्था में असामाजिकता का प्रवेश
उन्होनें करवाया, उन्होने जाति-बिरादरी के प्रमुख लोगों को यह सोचने के लिए
मजबूर किया कि किस प्रकार अपनी जाति की सदस्य संख्या को बढाया जाय? जाति
आधारित जनगणना करवाने के पीछे अंग्रेजों का अहम उदेश्य यही था। आज जातियों
में आपसी वैमनस्य की भावना इतनी बलवती हो रही है उसका अंकुरण करने में
प्रमुख हाथ अंग्रेजों का ही है।
सन् 1947 को अपना देश आजाद हो गया। 15 अगस्त की पहली किरण के साथ ही देश
में स्वराज का बिगुल बजा, दिल्ली में लाल किले की प्राचीर पर तिरंगा
फहराया गया और शुरू हो गई लोकतंत्र को साकार करने की मुहिम, महात्मा गांधी
के ग्राम आधारित स्वराज के स्वप्न को मूर्त रूप देने का जिम्मा सरकार ने
अपने ऊपर लिया। तत्कालीन प्रधानमत्री पं. जवाहर लाल नेहरू ने राजस्थान के
नागौर कस्बे से देश में ग्राम स्वराज की आधारषिला रखते हुए पंचायतीराज की
स्थापना की। प्राचीन व्यवस्था को सरकार द्वारा सर्वथा नवीन अर्थ प्रदान
किया गया। नेहरू जी ने उसे गांधी जी का स्वप्न घोषित किया। पंचायतीराज को
लोकतंत्र की प्राथमिक कडी के रूप में ‘प्रोड्यूज‘ किया गया तथा पंचायतों को
बहुत से अधिकार भी दिये गये। लेकिन जातीय पंचायतो पर किसी भी प्रकार का
प्रभावी नियंत्रण करने की कोशिश आज तक नहीं की गयी। महात्मा गांधी ने जिस
प्रकार के जाति विहिन वर्गविहिन समाज (या यूं कहिए देश) का सपना देखा था
उसको सरकार यदि वास्तव में पूर्ण करना चाहती तो सर्वप्रथम खाप पंचायतो पर
प्रभावी अंकुश करने का कार्य करती, किंतु देश की राजनीति में जिस गति से
मूल्यों की गिरावट आयी व राजनीति का रूप जातिवाद के भंवर में जितनी तीव्रता
से फंसा उससे दोगुनी मात्रा में जाति पंचायतो की तानाशाही बढी।
आज स्थिति
इतनी खराब हो गयी है कि चुनाव में खड़े हुए किसी जाति विशेष के उम्मीदवार
को उसकी जाति पंचायत स्वयं का प्रतिनिधि मानने लग जाती है और उसे विजयी
बनाने के लिए जाति के सदस्यों को उसके पक्ष में अनिवार्य रूप से मत देने
का दबाव बनाने लग जाती है। यदि व्यक्ति ऐसा नहीं करता तो वहीं समाज से
बहिष्कृत कर देने का डर, कुछ मामले ऐसे देखे गये है जिसमें विपरीत विचार
रखने वाले जाति सदस्य चुनाव के दौरान बिल्कुल मौन रहे उनके सामने दो रास्ते
थे। पार्टी के प्रति निष्ठा रखे। आखिर में उन्होनें दूसरा रास्ता ही
अपनाया क्योंकि जाति से बहिष्कार एक नर्क माना जाता है। क्या यह लोकतंत्र
की भावना के अनुकूल है? शायद नहीं! फिर प्रश्न उठता है कि इस प्रकार हम किस
लोकतंत्र को मजबूत कर रहे है?
उपरोक्त उदाहरण एक तथ्य स्पष्ट करता है कि आज जिस रूप में जातीय पंचायते
हमारे सामने है वह रूप किसी भी दृष्टि से लोकतंत्र के अनुकूल नहीं। लेकिन
विडंबना यह है कि कोई भी राजनीतिक दल यहां तक कि सरकार भी इस समस्या के हल
के लिए आगे आने को तैयार नहीं, सभी इसे और अधिक बढाने का तरिका खोजने में
ज्यादा व्यस्त दिखाई दे रहे है क्योंकि जातीयों का बढना उनकी जीत को पक्का
करता है। इसका एक प्रमाण गत जनगणना में हम सभी ने देखा कि किस प्रकार
केंद्र सरकार द्वारा जाति आधारित गणना करवाकर जातिगत अंतर्विरोध को गड़े
मुर्दो की भांति उखाडने का प्रयास किया। जो काम कभी अंग्रेजों ने अपनी गंदी
नीति के तहत किया था वह काम केंद्र सरकार द्वारा अपनी वोट बैंक की नीति के
तहत किया गया। इसलिए हम कह सकते हैं कि जाति-पंचायतों के अस्तित्व को
मिटाना आज लगभग असंभव है क्योंकि इनका आधार जाति है और जाति आज राजनीति का
आधार बन चुकी है लेकिन इन पर नियंत्रण तो किया जा ही सकता है। सरकार यदि
सभी खाप पंचायतो में समानता लाने का प्रयास करे तो ये नियंत्रित हो सकती
है, अन्यथा इनका कहर दिन प्रतिदिन बढता ही जायेगा। इसमें कोई संदेह नहीं।
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