आरटीआई से आये दिन सत्ता और सत्तासीनों के कारनामें का खुलासा हो रहा हैं। जनता अपने हक के लिए खड़ी हो गई है। लेकिन कुछ ताजा मामलों ने सत्तासीनों में खलबली पैदा कर दी है। सोनिया गांधी की विदेष यात्राओं का खर्च मांगना इसका ताजा उदाहरण है। इन सूचनाओं से घबराई सरकार के प्रधानमंत्री आरटीआई पर ही नकेल कसना चाहते हैं। कह रहे हैं आरटीआई से लोगों की निजता का उलंघन हो रहा है। सूचना अधिकार कानून यानी आरटीआइ को लेकर प्रधानमंत्री की यह चिंता समझ आती है कि इसका दुरुपयोग नहीं होना चाहिए, लेकिन इसके आधार पर इस कानून में काट-छाट की आवश्यकता जताने का कोई मतलब नहीं। यदि किसी कानून के दुरुपयोग के आधार पर उसमें हेर-फेर किया जाएगा तो फिर किसी भी कानून को सही.सलामत रख पाना मुश्किल होगा। आखिर ऐसा कौन सा कानून है, जिसका दुरुपयोग न होता हो। हमारे देश में तो शायद ही कोई कानून हो जिसका गलत इस्तेमाल न हुआ हो। अब क्या उन सभी में बदलाव किया जाएगा। निसंदेह इससे इन्कार नहीं किया जा सकता कि सूचना अधिकार कानून के तहत कुछ लोगों की ओर से ऐसी जानकारी पाने की भी कोशिश की जाती है जो किसी की निजी जिंदगी से जुड़ी होती है और उसके सार्वजनिक होने से संबंधित व्यक्ति की निजता का उल्लंघन होता है, लेकिन ऐसे लोगों को तो हतोत्साहित करने के प्रावधान सूचना अधिकार कानून में हैं। फिलहाल ऐसे किसी नतीजे पर पहुंचना मुश्किल है कि सूचना अधिकार कानून के तहत दी जा रही जानकारियों से बड़े पैमाने पर निजता का उल्लंघन हो रहा है। निजता का अधिकार संविधान प्रदत्त है और उसकी हर हाल में रक्षा होनी चाहिए, लेकिन इस अधिकार की आड़ में सार्वजनिक महत्व की सूचनाएं गोपनीय रखने की भी कोशिश नहीं होनी चाहिए। फिलहाल ऐसा हो रहा है। कई मामलों में सार्वजनिक महत्व की सूचनाएं देने से यह कहकर इन्कार कर दिया जाता है कि यह निजी जानकारिया हैं। बेहतर हो कि सूचना अधिकार को सीमित करने पर विचार करने से पहले निजता के अधिकार को सही तरीके से परिभाषित किया जाए। कम से कम सार्वजनिक जीवन में शामिल लोगों के मामले में तो ऐसा किया ही जाना चाहिए कि क्या निजता के दायरे में आता है और क्या सार्वजनिक महत्व के दायरे में। यह अच्छी बात है कि निजता की रक्षा के लिए अलग से कानून बनाने पर विचार हो रहा है, लेकिन यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि यह सूचना अधिकार कानून में किसी किस्म की कटौती का कारण न बने। प्रधानमंत्री ने सूचना अधिकार कानून के बेतुके इस्तेमाल पर भी चिंता जताई। चूंकि यह एक नया कानून है इसलिए यह संभव है कि कुछ लोग इसका बेतुका इस्तेमाल कर रहे हों, लेकिन इस तरह के इस्तेमाल को भी रोका जाना संभव है। प्रधानमंत्री ने सूचना अधिकार कानून के संदर्भ में रचनात्मक माहौल बनाने की आवश्यकता पर बल दिया। निसंदेह इस दिशा में काम करने की जरूरत है, लेकिन चिंताजनक यह है कि ऐसी कोई कोशिश होती हुई नहीं दिख रही है। यह ठीक नहीं कि सूचना आयुक्तों के पद पर बड़ी संख्या में पूर्व नौकरशाह तैनात हो रहे हैं। आखिर जो नौकरशाह अपने सेवाकाल में पारदर्शिता और जवाबदेही से बचते रहे हों वे सूचना अधिकार कानून को लेकर कोई रचनात्मक माहौल कैसे बना सकते हैं। यह पहली बार नहीं है जब सूचना अधिकार कानून में किसी किस्म की कटौती का कोई विचार सामने आया हो। इसके पहले भी इस तरह के विचार होते रहे हैं। इससे यही लगता है कि सत्ता में बैठे लोगों को सूचना अधिकार कानून रास नहीं आ रहा है। वस्तुस्थिति जो भी हो, इस कानून के संदर्भ में प्रधानमंत्री ने जिस तरह यह कहा कि इससे पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप का मसला भी उलझेगा उस पर सवाल खड़े होना स्वाभाविक है।
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