मानव जीवन प्राप्त करना सबसे दुर्लभ है,ऐसा हम आज तक सुनते पढ़ते आये हैं परन्तु परिस्तिथियों और प्रमाणों पर विचार किया जाये तो यह धारणा सत्य प्रतीत नहीं होती। लोगों को यदि मांस आदि का सेवन करना हो तो बाजार से खरीद कर लाना होता है, उसका मूल्य चुकाना पड़ता है, शिकार करने के भी नियम हैं और पकडे जाने पर कठोर दंड का प्रावधान है, परन्तु मानव जीवन को खत्म करने का कोई आधार नही है। आज लोग इंसान को इंसान नही समझ रहे हैं। थोड़ा सा लालच इंसान के कत्लेआम की वजह बन रहा है। दबंग और गुण्डे अपने छोटे से मतलब के लिए पता नही रोज कितने लोगों की जान लेते है। कुछ ऐसे मामलो का तो पता चल जाता हैं जो बड़े होते हैं और मीडिया की नजर में आ जाते है। लेकिन बाकी का क्या। अगर आप 50-100 किलोमीटर की यात्रा भी करते हैं तो आपको सड़क के किनारे एक दो डैड बाडी देखने को मिल जायेंगी। ऐसे में सवाल उठता है कि हम कब तक इंसानी जिंदगी को कीड़ों मकोड़ों की तरह खत्म होते देखेंगे। कब तक मनुश्य को मनुश्य के जीवन का अंत करत देखेंगे। कहा जाता है कि मानव में दैवी व दानवी दोनों ही गुण विद्यमान रहते हैं। यदि व्यक्ति के दैवी गुण अधिक प्रबल हैं तो वह सज्जन के रूप में समाज में अपनी भूमिका का निर्वाह करता है और यदि पाशविक प्रवृत्ति प्रबल हो तो वह दानव का रूप धारण कर लेता है। व्यवहार में भी इन गुणों का अनुपात कम अधिक चलता रहता है। परन्तु कुछ लोग शायद आसुरी प्रवृत्ति के साथ ही जन्म लेते हैं। आसुरी प्रवृत्ति प्रधान लोग वही हैं जिनके लिए मानव जीवन एक गुब्बारे से भी सस्ता है जब चाहा, जिसका चाहा, उसका अंत कर दिया। पांच रुपए के लिए चाकू मार दिया, अबोध बालक को मौत के घाट उतार दिया। मिटटी का तेल छिड़क कर आग लगा दी। तेजाब डाल दिया। परिवार क्या पूरी की पूरी बस्ती को जला कर राख कर दिया। चलती ट्रेन से धक्का दे दिया आदिण् ऐसे समाचार प्राय समाचारों की सुर्खियाँ बनते हैं। परन्तु बहुत से अनाम लोग तो अनाम रहते हुए ही ऐसे ही किसी के कोप का भाजन बन जाते हैं। कब काल का ग्रास बन जाते हैं। और अनाम रहते हुए ही उनके जीवन का दुखद अंत हो जाता है,। ऐसे दुखद समाचारों में बच्चों के आपसी झगडे या खेल खेल में पत्थर या बैट से पीट कर मार डालने की घटनाएँ भी प्रकाश में आती हैं।यदि विचार किया जाये तो ऐसा नहीं कि दानवी प्रकृति के लोग इसी युग में हैं। ये तो सनातन प्रकृति रही है बस घटनाओं का स्वरूप व अनुपात बदल गया है। पहले ये काम दुराचारी राजाओं तथा निरंकुश सामंतों अथवा अन्य प्रभावशाली कुत्सित बुद्धि युक्त लोगों द्वारा किया जाता था और आज तो अंदाजा लगाना ही कठिन है कि कब किसके जीवन का अंत कर दिया जाये। क्योंकि मानव जीवन मूल्य हीन होता जा रहा है।
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