23 October 2012

क्या देश के अगले जमींदार कारर्पोरेट घराने है ?

भारत की प्राचीन विचारधारा के अनुसार भूमि सार्वजनिक संपत्ति थी, इसलिये यह व्यक्ति की संपत्ति नहीं हो सकती थी। मगर आज देष के अंदर हालात इसके बिलकुल विपरित है। भूमि का संपत्ति के रूप में क्रय विक्रय प्राचीन भारत में संभव नहीं था। अब देष में जिस प्रकार से जमीन की लुट मची हुई है उसको लेकर किसानो में देष के औधोगिक घरारानो के प्रति एक रोष उत्पन्न हो गई है। जमींदारी प्रथा भारत में मुगल काल एवं ब्रिटिश काल में प्रचलित एक राजनैतिक-सामाजिक कुरीति थी जिसमें भूमि का स्वामित्व उस पर काम करने वालों का न होकर जमींदार का होता था जो खेती करने वालों से कर वसूलते थे। स्वतंत्रता के बाद जब ये प्रथा बदली तो कानुन भी बना। लेकिन अब स्थिति यहा तक पहुंच गई है की औधोगिक घराने ही सबसे बड़े जमींदार बन गये है। क्योकी सत्ता की ताकत और पैसों की कुबेर उन्ही लोगो के हाथो में है जो औधोगिक घरानो से संबंध रखते है। तो सवाल भी उठना लाजमी है की क्या देष के अगले जमींदार कार्पोरेट घराने ही होंगे। असल सवाल यहीं से शुरु होता है कि क्या संसद के भीतर जमीन को लेकर अगर राजनीतिक दलों से यह पूछा जाये कि कौन पाक साफ है तो बचेगा कौन। क्योंकि देश के 22 राज्य ऐसे हैं, जहां जमीन को लेकर सत्ताधारियों पर विपक्ष ने यह कहकर अंगुली उठायी है कि जमीन की लूट सत्ता ने की है। यानी आर्थिक सुधार के जरीये विकास की थ्योरी ने मुनाफा के खेल में जमीन को लेकर झटके में जितनी कीमत बाजार के जरीये बढ़ायी, वह अपने आप आजादी के बाद देश बेचने सरीखा ही है। भले ही आधुनीकिकरण ने सरहद तोड़ी लेकिन उसमें बोली देश के जमीन की लगी। इस दायरे में सबसे पहले सत्ता की ही कुहुक सुनायी दी। औघोगिक विकास की लकीर खिंचने के नाम पर ये कारर्पोरेट घराने जमींदार बनते जा रहे है तो वही दुसरी ओर देष के सबसे गरिब तबका किसान इस चकाचैध की आपाधापी में हासिये पर ढकेल दिया गया है। बीते तीस साल में राजनीति का पहिया कैसे घूम गया, इसका अंदाज अब लगाया जा सकता है। क्योकी जिस संसद के अंदर किसान और मजदूर वर्ग की बात होती थी आज वहा पर इन्ही कारपोरेट घरानो की कुहूक सुनाई दे रही है। औधोगिक विकास के नाम पर केवल पंष्चिम बंगाल में 40 हजार एकड़ जमीन इन ठप पड़े उघोगों की है जिसे कुछ दिन पहले कारपोरेट घरानो को दी गई थी। यह जमीन दुबारा उघोगों को देने के बदले व्यवसायिक बाजार और रिहायशी इलाको में तब्दील हो रही है। चूंकि बीते दो दशकों में बंगाल के शहर भी फैले हैं तो भू-माफियो की नजर इस जमीन पर पड़ी है। बात सिर्फ पंष्चिम बंगाल की ही नही है ऐसे तमाम राज्य है जहा पर ये लुटतंत्र का समराज्य फल फुल रहा है। नयी जमीन जो उघोगों को दी जा रही है, उसके लिये इन्फ्रास्ट्रक्चर भी खड़ा किया जा रहा है, जो लोगो के रहते और खेती करते वक्त कभी नही किया गया । आज महंगाई को लेकर जिस प्रकार से देष के अंदर हाहाकार मची हुई है उसका भी एक कारण ये जमीन का लुटतंत्र ही है। प्रेमचंद ने सन 1936 में अपने लेख महाजनी सभ्यता में लिखा है कि मनुष्य समाज दो भागों में बँट गया है । एक बड़ा हिस्सा तो मरने और खपने वालों का है, और छोटा हिस्सा उन लोगों का जो अपनी शक्ति और प्रभाव से बड़े समुदाय को बस में किए हुए हैं। यही कारण है की ये कारपोरेट घराने देष के जमींदार बनते जा रहे है। तो ऐसे में सवाल खड़ा होता है की क्या देष के ये कारपोरेट घराने ही नए जमाने के जमींदार है। 

No comments:

Post a Comment