09 July 2020

चीन के साथ 1962 का युद्ध और देश के गद्द्दार कम्युनिस्ट पार्टी

देश के गद्दार हमेशा से ही अपनी राष्ट्र विरोधी गतिविधियाँ चलाते रहे हैं. मगर चीन के मुद्दे पर सबसे बड़ी गद्दारी 1962 के युद्ध के समय देखने को मिला था. 1962 के युद्ध में सिर्फ सीमा पर दुश्मन ही नहीं थे, घर के अंदर ही दुश्मन बैठे थे. यह दुश्मन कोई और नहीं बल्कि भारत के वामपंथी थे, जो चीन के वामपंथियों को अपना भाई समझते थे और भारत-चीन युद्ध में चीन का समर्थन कर रहे थे.

जब 1962 का युद्ध हुआ था, तो भारत के वामपंथियों के एक वर्ग ने यह कहते चीन का समर्थन किया था कि यह युद्ध नहीं बल्कि एक समाजवादी देश और एक पूंजीवादी देश के बीच का संघर्ष है. यह तब हो रहा था, जब भारत के वामपंथी उस वक्त देश के मुख्य विपक्षी थे. कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (CPI) मुख्य विपक्षी पार्टी थी.

उस वक्त पूरा देश हमलावर चीन को खदेड़ने की बात कर रहा था लेकिन भारत के वामपंथी यह मानने को तैयार नहीं थे कि सीमा पर चीन ने हमला किया था, उनका मानना था कि उग्र रवैया भारत का था और हमलावर भारत है. यहां तक कि कई वामपंथी नेता चीन के समर्थन में रैलियां कर रहे थे.

इनमें ज्योति बसु, हरकिशन सिंह सुरजीत मणिशंकर अय्यर जैसे उस वक्त के युवा नेता भी थे, जिन्होंने कहा था कि चीन तो कभी हमला कर ही नहीं सकता. 1962 के युद्ध में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया चीन का इस तरह से समर्थन कर रही थी कि ज्योति बसु और हरकिशन सिंह सुरजीत जैसे नेताओं को जेल में डालना पड़ा था

यह भारत के कम्युनिस्टों की चीन के कम्युनिस्टों के प्रति ऐसी वफादारी थी, जिसमें देश के साथ गद्दारी करने में भी हिचक नहीं हुई. चीन के प्रति इसी वफादारी की वजह से भारत में कम्यूनिस्ट पार्टी का विभाजन भी हुआ. कांग्रेस के बाद कम्युनिस्ट पार्टी देश की दूसरी सबसे पुरानी पार्टी थी. लेकिन भारत-चीन युद्ध के दो वर्ष बाद इस पार्टी के दो टुकड़े हो गए.

चीन का समर्थन करने वाले गुट ने कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया यानी CPI से अलग होकर एक नया दल बना लिया, जिसे कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया मार्क्सिस्ट यानी CPM के नाम से जाना जाता है. CPM में वो लोगशामिल हुए, जो चीन को ही अपना मसीहा मानते थे.

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