देश में गद्दारी का इतिहास काफी पुराना है और
गद्दारों की फेहरिस्त भी काफी लम्बी है. इस गद्दारी की फेहरिस्त में भारतीय वामपंथियों नाम सबसे पहले है. देश के
सामने एक बार फीर से कम्युनिस्टों का चेहरा बेनकाब हो गया है. वामपंथियों ने घायल जवानों के लिए
रक्तदान करना पार्टी विरोधी बताया है. साथ ही वामपंथियों ने चीन की निंदा में अभी तक एक
शब्द कुछ भी नहीं कहा है. इनकी ये चुप्पी कहीं न कहीं चीन का मूक समर्थन है.
भारतीय कम्युनिस्ट अपने धर्म और मातृभूमि के
नहीं होते है, ये चीन क्यूबा और उत्तर कोरिया को अपना देश मानते हैं. जहाँ लोकतंत्र नाम की कोई चीज नहीं है. सीपीएम
व अन्य कम्युनिस्ट पार्टियों के इस व्यवहार को समझने के लिए 1962 के युद्ध की चर्चा भी ज़रूरी है. उस समय जब
युद्ध छिड़ा था और चेयरमैन माओ ने भारत की पीठ में छुरी घोंपते हुए हमला किया था, तब वामपंथियों ने चीन का समर्थन किया था. उस
समय वामपंथियों ने माओ को अपना चेयरमैन बताया था.
चीन के प्रति कांग्रेस का भी शुरू से ही सहानुभूति रही है. 1962 में नेहरू ने हिन्दी चीनी भाई-भाई का नारा दिया था. तो वहीँ धोखेबाज चीन भारत के लद्दाख पर चढ़ाई करने के लिए रोड बना रहा था. मगर गद्दारी की हद तो तब हो गई जब नेहरू ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के स्थायी सीट पर चीन के दावे का समर्थन किया कर दिया. ये सिट भारत को मिलने वाली थी.
नेहरु की बहन और उस वक्त के तत्तकालीन भारतीय राजदूत
विजय लक्ष्मी ने भी नेहरु को इस बात की जानकारी दी थी. मगर नेहरु उस पत्र को
नजरंदाज कर दिया. नेहरु ने पत्र के जवाब में लिखा कि चीन की जगह भारत को सुरक्षा
परिषद् में स्थान लेना ठीक नही होगा, इससे चीन नराज हो जायेगा. चीन इसके बदले में 1962 का युद्ध दिया. इसी युद्ध में आक्साई चिन पर
चीन ने कब्ज़ा कर लिया.
आज से तकरीबन 58 साल पहले जब आधा हिंदुस्तान
सो रहा था उस वक्त विश्वासघात और छल की एक पटकथा लिखी जा रही थी. चीन ने भारत पर
सुनियोजित हमला किया. अरुणाचल से तवांग तक चीन की सेना ने न सिर्फ सीमा रेखा लांघी
बल्कि दोस्ती के नाम पर हज़ारों वर्ग मीटर किलोमीटर जमीन चीन ने हथिया लिया.
वर्ष 1950
में
सरदार पटेल ने नेहरू को चीन से सावधान रहने के लिए कहा था. देश के पहले गृह मंत्री
सरदार वल्लभ भाई पटेल ने चीन के खतरे को लेकर नेहरू को आगाह करते हुए एक चिट्ठी
में लिखा था कि भले ही हम चीन को मित्र के तौर पर देखते हैं लेकिन कम्युनिस्ट चीन
की अपनी महत्वकांक्षाएं और विस्तारवाद का उद्देश्य हैं हमें ध्यान रखना चाहिए कि
तिब्बत के गायब होने के बाद अब चीन हमारे दरवाजे तक पहुंच गया है. लेकिन नेहरू ने इस
सलाह को अहमियत नहीं दी.
कांग्रेस पार्टी अब भी वही
कर रही है जो पूर्व में करते आई है. कांग्रेस की तरफ़ से राहुल गांधी खुद चीनी कम्यूनिस्ट
पार्टी के साथ मेमोरैंडम ऑफ़ अंडरस्टैंडिंग पर दस्तख़त कर चुके है. यह समझौता
पार्टी के स्तर पर हुआ था. सोनिया गांधी और तब के चीनी उपराष्ट्रपति शी जिनपिंग
कांग्रेस-कम्यूनिस्ट पार्टी समझौते के गवाह थे. राहुल के दस्तख़त किए जाने से पहले
सोनिया गांधी ने शी चिनपिंग के साथ एक अलग मीटिंग भी की थी. ये देश के प्रति
गद्दारी का एक नयाब नमूना था.
मगर अब देश बदल चुका है. भारत लद्दाख में अपने सैनिकों की संख्या बढ़ाकर अब खुद चीन को धमका रहा है. आज भारत की सरहदों पर कोई आँख उठा कर नही देख सकता है. आज चीन का कोई भी हथकंडा भारत के सामने काम नहीं कर पा रहा है. क्योकि की ये 2020 का भारत है. ये देश में घुश कर मारना जानता है.
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