01 January 2021

भारत में प्रजनन दर सबसे निचले स्तर पर

सुप्रीम कोर्ट में केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय का हलफनामा भारतीय जनसंघ/भारतीय जनता पार्टी के इतिहास में मील का एक पत्थर माना जा सकता है। हलफनामे में कहा गया कि सरकार जनसंख्या नियंत्रण के तहत बच्चों की एक निश्चित संख्या थोपने के खिलाफ है; दंपति को अपने परिवार का आकार तय करने का अधिकार है। कोर्ट को बताया गया कि वर्ष 2000 में कुल प्रजनन दर 3.2 थी, जो 2018 में 2.2 पर आ गई। अतीत की, संघ परिवार की घोषित परिवार नियोजन नीति का यह नकार है। संघ साहित्य में अभी तक पढ़ते आए हैं कि मुसलमान चार-चार शादियां कर बहुत सारे बच्चे पैदा करते हैं, जिससे भारत कई दशक बाद हिंदू बहुल नहीं रह पाएगा। इस प्रक्रिया को रोकने के लिए अनिवार्य परिवार नियोजन की मांग की जाती रही। पिछली जनगणना का निष्कर्ष था कि मुसलमानों में जन्म दर कम हो रही है। कई हलकों में आशंकाएं तब भी बनी रहीं।

यह भारत का नया विचार हुआ या अनुभवों पर आधारित निष्कर्ष? जाहिरा तौर पर संघ के विचारों से प्रभावित, हर्ष मधुसूदन और राजीव मंत्री की नवीनतम पुस्तक अ न्यू आइडिया ऑफ इंडिया के पन्नों से इस तरह के सवाल निकलते हैं। स्वाभाविक है, लेखक द्वय पाठक के मन में चित्रांकन करते हैं कि पहले वाजपेयी और अब मोदी के कार्यकाल में भारत के नए विचार पर अमल हो रहा है। पुस्तक के प्रारंभ में जवाहर लाल नेहरू के एक चर्चित भाषण से लंबा उद्धरण दिया गया है, जो लेखकों की बौद्धिक ईमानदारी का सबूत है। 1961 में कांग्रेस के अधिवेशन में नेहरू ने कहा था, 'इतिहास की शुरुआत से ही भारत के लोग हमेशा मानते रहे हैं कि उनका संबंध एक महान देश से है। एक देश, एक संस्कृति की अनुभूति एकता के सूत्र में पिरोए रही है। यह समान विचार और समान आकांक्षा कदाचित हजारों साल पहले उत्पन्न हुए। हजारों साल से यह भूमि दिल, दिमाग और आध्यात्मिक विरासत में हमारी अपनी रही है।

शाश्वत भारत का यह विचार नेहरू के लेखन, मुख्यतः डिस्कवरी ऑफ इंडिया में निरंतर दृष्टिगोचर होता है। अन्य राष्ट्रवादी चिंतकों की भी भारत की यही अवधारणा रही है। इस विचार से असहमत लोगों ने पाकिस्तान आंदोलन चलाया और उसमें कुछ हिंदुओं का भी उन्हें वैचारिक सहयोग प्राप्त हुआ। नेहरू के इस चिंतन के मद्देनजर, पाश्चात्य सभ्यता से प्रभावित होने का आरोप उन पर चस्पा नहीं होता। तो फिर नेहरू पर निर्मम प्रहार क्यों किए जाते हैं? सबसे बड़ा और वह भी अघोषित कारण शायद यह है कि नेहरू राष्ट्रीय स्वयं संघ के सर्वाधिक मुखर आलोचक थे। नागपुर से गोरखपुर तक हर हिंदुत्ववादी विचार को वह त्याज्य मानते रहे। मंत्री और मधुसूदन दूसरे धरातल से नेहरू पर वार करते हैं। 

अर्थव्यवस्था पर राजकीय नियंत्रण, विदेश नीति और अल्पसंख्यकों के प्रति विशेष व्यवहार- ये तीन खास मोर्चे है। लेखक अगर टेक्नोक्रेट हैं, तो उनसे तथ्यपरक और वैज्ञानिक विश्लेषण की न्यूनतम उम्मीद की जाती है। सार्वजनिक क्षेत्र को वरीयता देने के लिए नेहरू पर पत्थर फेंकने से पहले 'बांबे प्लान' को नजरंदाज नहीं किया जा सकता। 1944-45 में जेआरडी टाटा, जीडी बिरला, लाला श्रीराम और कस्तूरभाई लाल भाई सहित आठ उद्योगपतियों ने यह दस्तावेज नेहरू को सौंपा था। प्लान का केंद्र बिंदु यह था कि सरकारी हस्तक्षेप और नियमन के बगैर आर्थिक पुनर्निर्माण संभव नहीं है। फिक्की ने बांबे प्लान की पुष्टि की थी। भारतीय उद्योग खुद शैशवावस्था में था। भिलाई स्टील प्लांट (1955) जैसे विराट कारखाने खड़ा करना भारतीय उद्योगपतियों के लिए संभव नहीं था। ऑक्सफोर्ड हिस्ट्री ऑफ इंडियन बिजनेस के लेखक द्विजेंद्र त्रिपाठी संसद में निजी क्षेत्र को दिए गए नेहरू के आश्वासन को याद करते हुए लिखते हैं कि उन्होंने निजी क्षेत्र के लिए ऋण व्यवस्थाओं का प्रावधान किया; आईएफसीआई (भारतीय औद्योगिक वित्त निगम) का गठन इसका पहला उदाहरण है।

1947 में नेहरू की जगह किसी अन्य के प्रधानमंत्री बनने की कल्पना करें। क्या भारत अमेरिकी खेमे में शामिल हो जाता? बड़े-बड़े कारखाने लगाने में अमेरिका मदद करता? मिग जैसे लड़ाकू विमान बनाने में सहयोग करता? गोवा की मुक्ति का विरोध न करता?कश्मीर पर प्रतिकूल समझौते के लिए न कहता? यह सब संभव मान लें, तो राष्ट्रीय अस्मिता के खाते से कितनी भारी कीमत चुकानी पड़ती? गुटनिरपेक्षता के चश्मे से देखें या अन्य कोई चश्मा पहन लें, भारतीय विदेश नीति सदैव राष्ट्र के प्रति समर्पित रही है। सोवियत संघ की निर्णायक सहायता से भारी उद्योगों की स्थापना, 1962 में चीन के हमले के बाद भयभीत नेहरू का अमेरिकी राष्ट्रपति के नाम पत्र, नंदादेवी पर चीन के खिलाफ जासूसी के लिए अमेरिकी परमाणु पावर पैक की स्थापना, 1971 में भारत-सोवियत संधि, 2005 में भारत-अमेरिकी परमाणु सहयोग पर समझौता और मोदी का 'ऐतिहासिक झिझक' को तोड़ना- ये सभी राष्ट्र रक्षा के संकल्प के विभिन्न रूप हैं।

सैकड़ों साल से जाति-उत्पीड़न की शिकार जनता के विषय में भारतीय मनीषियों और राज्य सत्ता ने जो निष्कर्ष निकाले, शेष जनता भी उसी की हकदार है। संविधान से सेक्यूलर शब्द निकल जाने पर भी कालपरीक्षित संविधान और इस सनातन राष्ट्र की आत्मा प्रभावित नहीं होगी। कालांतर में सेक्यूलरिज्म और पंथनिरपेक्षता पर्यायवाची हो चुके हैं। करोड़ों भुजदंड एक तनी हुई मुट्ठी की तरह जब नव-निर्माण में संलग्न हो जाएंगे, आशंकाओं से सर्वथा मुक्त, एक फौलादी, अपराजेय देश का अभ्युदय होने लगेगा। पूर्णतया आश्वस्त, नवीन भारत की पराकाष्ठा उसी में निहित है।

No comments:

Post a Comment