30 March 2013

क्या तीसरे मोर्चे की राजनीति देश के लिए सही है ?

देश में एक बार फिर से तीसरे मोर्चे की आहट सुनार्इ देने लगी है। भारत के संसदीय लोकतंत्र में कर्इ बार तीसरा मोर्चो बना और टूटा है। मगर मुलायम सिंह यादव ने एक बार फिर तीसरे मोर्चे की राग अलापना सुरू दी है। एैस में क्षेत्रिये दलों के बिच सुगबुगाहट तेज हो गर्इ है। तो वही कांग्रेस और बीजेपी इस पर भड़की हुर्इ हैं। मुलायम कह रहे हैं कि अगले दस साल तक किसी भी एक दल को बहुमत मिलने की संभावना नहीं है लिहाजा तीसरे मोर्चे की सख्त जरूरत है। अभी तक कांग्रेस के संकटमोचन बने मुलायम शायद कांग्रेस से अलग रास्ते की तलाश कर रहे हैं। इसी तरह यूपीए के तकरीबन हर फैसले में साथ रहने वाली एनसीपी को भी इसकी जरूरत महसूस हो रही है। उधर जेडीएस ने भी मुलायम के सुर में सुर मिलाया है। सीपीआर्इ भी सकारात्मक रुख दिखा रही है। लगता है इन दलों को इस बात का आभास हो रहा है कि यूपीए सरकार कभी भी गिर सकती है और कभी भी चुनाव का बिगुल बज सकता है। तीसरे मोर्चे की पिछले संस्करणों को देखें तो यह विशुद्ध स्वार्थ का गठजोड़ का राजनीति रहा है। मुलायम की साख सिर्फ यूपी में है और जीतते भी यूपी में है, लेकिन तीसरे मोर्चे की हवा वह महाराष्ट्र के सांगली में दे रहे है। जहां वह एक सीट भी जीत ले तो बड़ी बात होगी, लेकिन महाराष्ट्र में तीसरे मोर्चे का मतलब है शरद पवार की सियासत में पैनापन लाना। तीसरे मोर्चे की दस्तक, बीजू जनता दल की पहल और शरद पवार के प्रधानमंत्री बनने की इच्छा ने चौदहवी लोकसभा चुनाव से पहले इसके संकेत दिये थे ताकी सत्ता के लिये जीत से पहले और सत्ता भोगने के लिये जीत के बाद के गठबंधन में खासा बदलाव तय किये जा सके। क्या ये गठजोड़ भारतीय राजनीति में कोर्इ बड़ा बदलाव कर सकती है, यह सबसे बड़ा सवाल है। आज के दौर में देश जिन हालातों से गुजर रहा है, उसमे सत्ता से जुड़कर मलार्इ खाने की जो परंपरा राजनीतिक दलों की बन पड़ी है, उसमें सरकार चलाने की कांग्रेस और बीजेपी की अपनी सोच टिकती कहा है ये भी एक बड़ा सवाल है। 

जाहिर है सरकार देश में होनी चाहिये। जिसकी नजर में आम आदमी हो। हर धर्म-प्रांत का व्यä हिे। देश की अर्थव्यवस्था बाजार पर नहीं खुद पर निर्भर हो। आतंकवाद के जरीये बंटते समाज को बांधा जा सके। पड़ोसी देश आंखे न तरेरे । सुरक्षा व्यवस्था चाक चौबंद हो। यानी देश में कही लोकतांत्रिक सरकार है, इसका एहसास देश को हो। मगर अब तक के तीसरे मोर्चे की सरकार कि इतिहास को देखा जाए तो हर बार ये सारे मुददे इससे काफी दूर रहा है। मुशिकलों में मुहाने पर खड़े देश को लेकर कोर्इ सहमति तीसरे मोर्चे में बन पायेगी यही सबसे बड़ी संकट देष में तीसरे मोर्चे को लेकर हमेषा से खड़ा होते रहा है, जाहिर है यह समझ देश चलाने के लिये होगी तो सौदेबाजी की राजनीति कर अपने वोटबैंक को सत्ता से मलार्इ दिलाने की क्षेत्रिय राजनीति बंद हो जायेगी। जब-जब तीसरे मोर्चे की गठन की हवा बही कुर्सी की लड़ार्इ में, तीसरा मोर्चा बनते-बनते, बनाने से पहले बिखर गया। बाधा हर बार यही रही कि इस मोर्चे का प्रधान मंत्री कौन बनेगा ? मुलायम सिंह का प्रयास हमेशा ही रहता है की तीसरी मोर्चा बने और मुलायम इस मोर्चे के सरकार में प्रधान-मंत्री बने। मोर्चे में शामिल होने वाली पार्टी के मुखिया इस पद को हासिल करना चाहता हैं, और इसी में मोर्चा नहीं बन पाता है। स्वार्थ की बात से दूर हो कर पार्टियाँ तीसरी मोर्चा बना सकती है, पर स्वार्थ से दूर होना पार्टियों के लिए आसमान से तारे तोड़ना जैसी बात है। तो एैसे में सवाल खड़ा होता है की क्या तीसरे मोर्चे की राजनीति देष के लिए सही है।

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