अप्रैल 1984 में विश्व हिन्दू परिषद् द्वारा दिल्ली के विज्ञान भवन में पहली धर्म संसद को आयोजित किया गया था, मुद्दा था, राम जन्मभूमि के द्वार से ताला खुलवाना। इस संसद में प्रस्ताव भी पारित हुआ। धर्म संसद कि इतिहास आज के राजनीतिक परिदृश्य में भले ही नेताओं को नया लगे, मगर स्वामी विवेकानंद जैसे महान संत भी ऐसे धर्म संसद का आयोजन देष- विदेष में अकसर करते थे। आज तुच्छ राजनीति करने वाले नेता बयान दे रहे है की धर्म और राजनीति का मेल नहीं हो सकता। मगर संगम तट पर चल रहे महाकुंभ में राजनीति के चैसर पर चल रही चालों को देखिए तो ऐसा प्रतीत होता है मानो धर्म ही अब राजनीति का मार्ग प्रशस्त करने की ओर अग्रसर है। भारत धार्मिक मान्यतों पर चलने वाला देश है, और यहां की अधिसंख्य आबादी धर्म के अधार पर अपने तमाम फैसले लेती है लिहाजा अब जनता के राजनीतिक फैसलों के लिए धर्म संसद का सहारा लिया जा रहा है तो हमारे संप्रदायिक नेता इस पर हाय तौबा मचा रहे है। विश्व हिन्दू परिषद से लेकर तमाम संत समुदाय देश के भावी प्रधानमंत्री कैसा व कौन हो तथा राजनीति की दशा-दिशा को लेकर चिंतन कर रहे हैं। इस चिंतन-मंथन सत्र ने देश की राजनीति को गर्मा दिया है। एक ओर इस धर्म संसद में साधु संतों की ओर से गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को एनडीए की ओर से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने की मांग उठ रही है, वही जदयू के राष्ट्रीय प्रवक्ता शिवानंद तिवारी ये कहते नही चुक रहे है कि धर्म संसद को हिन्दू समाज की असली समस्याओं से कोई सरोकार ही नहीं है। पीएम का उमीदवार साधु संत नहीं तय कर सकते। ऐसे में यहा पर सवाल खड़ा होता है की क्या ये साधु संतो को इस देष में अभिव्यक्ति की आजादी नहीं है, क्या ये संत- समाज हमारे देष के नागरिक नहीं है। क्या इन्हें अपने विचार रखने का कोई अधिकार नहीं है। भले ही आप इन बातों से सहमत न हो पर जदयू के शिवानंद तिवारी सरीखे नेताओं को तो कुछ ऐसे ही लग रहा है। जहां तक कुंभ में साधू संतों के जमावड़े और हिंदुत्व को पुनः उसके पुराने स्वरुप को जिंदा करने की बात है तो यह पहल अवश्य राजनीति में शुचिता का वरण करेगी। हिंदू समाज को विभाजित करने का आज जो कुचक्र चल रहा है उसे कुचलने में साधु संतो का ये धर्म संसद आज के राजनीति में एक नई दिषा दिखाने में जरूर सफल हुए है। राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता ने हिंदुत्व को जमकर नुकसान पहुंचाया है। ऐसे में संतों के चिंतन का निष्कर्ष अगर देष के प्रधानमंत्री को तय करता है तो वाकई ये साधु संतो के लिए और इस भारत भूमी के लिए मील का पत्थर साबित होगा। और देष एक बार भीर से अपने अपने सही रास्ते पर चल सकता है।
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