अनेक दिवस-दिवसों की तरह 30 मई को हिंदी पत्रकारिता दिवस सिर्फ एक कर्मकांड
नहीं है। साल-दर-साल अपने पेशे यानी पत्रकारिता को कसौटी पर कसने,
मूल्यांकन करने और आत्म-निरीक्षण का यह दिन हमें अपनी परंपरा के प्रति
जागृत करता है और आगे का रास्ता भी तय करने का अवसर देता है। साल 1826 की
30 मई को कलकत्ते (अब कोलकाता) की आमड़ातल्ला गली के एक कोने से प्रकाशित
अल्पजीवी पत्र उदन्त मार्तण्ड ने इतिहास रचा था। मुफलिसी में भी अपने
पत्रकारीय जज्बे को जिंदा रखने वाले इसके संपादक युगल किशोर सुकुल को 187
साल बाद याद करके भारतीय पत्रकारिता की संघर्षशीलता का रोमांच कौंध उठता
है।
थोड़ा पीछे देखें, तो ‘संघर्ष’ भारतीय पत्रकारिता की नियति प्रतीत
होता है और आज भी वह इस पेशे का प्रेरणा-बिंदु या थाती है। पत्रकारिता के
पौधे को सींचने वाली ‘कंपनी’ के मुलाजिम जेम्स आगस्टस हिक्की (भारत के पहले
समाचार पत्र के संपादक) को ईस्ट इंडिया कंपनी ने देश से निकाला दिया।
कोलकाता के ही राजा राममोहन राय को अपने समाचार-पत्रों को सुधारवादी
आंदोलनों का हथियार बनाने के लिए कट्टरपंथियों की तीखी आलोचनाएं व प्रहार
झेलने पड़े।
कोलकाता में ही बड़ा बाजार और दूसरे बाजारों में दुकान-दुकान,
घर-घर जाकर सेठों को अपना अखबार ‘बांच’ (पढ़) कर सुनाने और बदले में चार-छह
पैसा पाकर अखबार चलाने वाले उचित वक्ता के संपादक दुर्गाप्रसाद मिश्र का
संघर्ष कम ही लोगों को ज्ञात होगा। घोर मुफलिसी में काशी की गंदी अंधेरी
कोठरी में ‘स्वनामधन्य- संपादकाचार्य’ पराड़करजी के आखिरी दिनों की कहानी
और भी सिहरन भरी है। वर्तमान दौर भी कम उद्वेलित नहीं करता। समूचे विश्व में पत्रकारिता आज भी
संघर्ष और जज्बे का पेशा है। मिशन से प्रोफेशन और फिर ‘बिजनेस’ की बातें
बहुत होती रही हैं, पर वास्तविकता से परे पत्रकारिता का कोई भी विमर्श कुछ
भी अर्थ नहीं रखता। पहले मानते थे कि ललाट (मस्तक) पर टीका, धोती-कुरता,
अंग-वस्त्रम् के बिना संस्कृत पढ़ने-पढ़ाने का काम नहीं हो सकता। वक्त बदल
चुका है। कुछ वैसी ही धारणा पत्रकारिता की ‘संघर्षशीलता’ को लेकर भी रही।
बढ़ी हुई दाढ़ी, कुरता, कंधे पर बगल में टंगा थैला, फटी-पुरानी चप्पलें,
बिवाई वाले पांव व वाचलता यानी किसी भी विषय पर कुछ भी उल्टी-सीधी
क्रांतिकारी बयानबाजी- ये सभी एक पत्रकार को रूपायित करते थे।
लेकिन आज के
व्यावसायिक दौर में पत्रकारिता की कार्यशैली काफी कुछ बदल चुकी है। उसका
स्वरूप निरंतर बदल रहा है।
बदलाव के इस दौर में ‘जाके पैर न फटे बिवाई, सो क्या जाने पीर पराई’ का
जुमला उछालकर पत्रकार और पत्रकारिता के स्वरूप और दायित्वों को समेटना
बेमानी है। मेरी दृष्टि में ‘मिशन’ से ‘प्रोफेशन’ के दौर में पहुंची
पत्रकारिता के लिए व्यावसायिक नैतिकता (प्रोफेशनल एथिक्स) का महत्व सबसे
ऊपर है। इसके बावजूद समूचा परिदृश्य निराशापूर्ण है। कितना भी
प्रोफेशनलिज्म हो, पत्रकारिता का मूलमंत्र या पत्रकारिता की आत्मा ‘मिशन’
ही है और वही रहेगी। तभी तो देश के लगभग 37,000 से ज्यादा स्ट्रिंगर और
अल्पकालिक संवाददाता-पत्रकार पत्रकारिता की सेवा में जुटे हुए हैं। मोटी
तनख्वाह या तनख्वाह न पाने वालों का असली मानदेय ‘मिशन’ की पूर्ति से मिलने
वाला संतोष ही है। आखिर अपना कैमरा संभाले कमर तक पानी में घुसकर या
नक्सलियों के ‘डेन’ (अड्डों) में जाकर कवरेज करने वाले किस पत्रकार की
भरपायी की जाती है?
या फिर आतंक के महासागर पाकिस्तान में मीडिया के लिए
समाचार या कंटेंट जुटाने-लाने के लिए अपनी जान गंवा देने वाले, सिर कटा
लेने वाले डैनियल पर्लो को भला कितना वेतन मिलता है?
यह सच है कि आज के बाजारीकरण के दौर में पत्रकारिता का काम बदला है।
‘मीडिया कर्म’ को या पत्रकार को जर्नलिस्ट नहीं, ‘कंटेंट प्रोवाइडर’ माना
जाने लगा है। फिर भी भारतीय पत्रकारिता की मूलधारा इस बाजारीकरण की आंच से
नहीं पिघली। उसमें जोखिम झेलने का जज्बा बरकरार है। आज पत्रकारिता के कामकाज की दशाएं बदली हैं। एक पत्रकार को जीविका के लिए
पूरा साधन न मिले, तो वह देश-दुनिया की चिंता क्या करेगा? फिर भी दूसरे
पेशों में यह स्थिति पत्रकारिता क्षेत्र में काम करने वालों से काफी अच्छी
है। चीन के ‘नंगे पैर डॉक्टर’ वाले प्रयोग का हमारी पत्रकारिता में एक अलग
समर्पित रूप मिलता है। नंगे पैर गांव-गिरांव की सेवा करने वाले पत्रकारों
की यहां कमी नहीं, पर इन्हें पूछता कौन है? वह दौर-ए-गुलामी था, यह
दौर-ए-गुलामां है- पत्रकारिता के संघर्ष की इससे दो दिशाएं साफ होती हैं।
तब ‘मिशन’ था अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति का और अब दौर है
आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक दासता से मुक्ति का। इसी ‘मुक्ति’ की चाहत के साथ
समर्पित भाव से काम करने वाले दुनिया के 29 देशों में 141 पत्रकारों ने
अपनी जानें गंवा दीं। आंकड़े देखें, तो सीरिया पत्रकारों व पत्रकारिता के
लिए सबसे खतरनाक देश है। भारतीय पत्रकारिता के बारे में भी कहा गया- ‘तलवार
की धार पे धावनो है’- पत्रकारिता तलवार की धार पर दौड़ने के समान है।
सचमुच इन 141 पत्रकारों ने सिर्फ एक वर्ष 2012 में ऐसा कर दिखाया। इनके
जज्बे को भी सलाम करने का मौका है, अंडमान निकोबार की सेलुलर जेल में ही हजारों
भारतीयों ने कालापानी की सजा काटी थी। उस जेल की काल कोठरियों से अंग्रेज
हुक्मरानों को दहला देने वाली ‘वंदे मातरम’ की जो आवाजें गूंजती थीं, उनमें
बहुत से स्वर पत्रकारों-संपादकों के भी थे। जेल के फांसी घर में लटकते तीन
फंदों पर कितने पत्रकार-संपादक झूल गए थे, लोगों को यह पता भी नहीं। इस
विषय पर पत्रकारिता विश्वविद्यालयों और विभागों में शोधकार्य की आवश्यकता
पर केंद्र सरकार-राज्य सरकारों को ध्यान देना चाहिए।
उन पत्रकारों के
संघर्ष और बलिदान को यह नमन-श्रद्धांजलि होगी।
आज इसी के साथ स्वंतत्र पत्रकारिता के नाम पर मीडिया में, ब्लैकमेलरों के विरुद्ध समाज और खुद मीडिया की
मुहिम जरूरी है। तभी तो भाषा, संदर्भ और विषय की जानकारी न रखने वाले, कहीं
काम न पा सके लोगों के पत्रकारिता में घुस आने पर देश के जिम्मेदार लोगों
की चिंता का हल ढूंढ़ा जा सकेगा।
तिलक, गांधी और भगत सिंह सहित आजादी के दौर के प्राय: सभी
क्रांतिकारियों-राजनेताओं ने मिशन के लिए पत्रकारिता का सहारा लिया। वह भी
भाषायी पत्रकारिता, खासकर हिंदी पत्रकारिता का, ताकि ज्यादा से ज्यादा
लोगों तक अपनी बात पहुंचाई जा सके। आज पत्रकारिता में इस मिशन या समर्पण को
बनाए रखने के लिए समाज के सहारे और व्यापक समर्थन की जरूरत है।
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