मामला सिर्फ सरबजीत का नहीं है, मामला सैकड़ों अथवा हजारों सरबजीतों में
से एक और सरबजीत का है.! 28 अगस्त 1990 को बाघा सीमा पर अपने खेत पर गए
सरबजीत शराब के नशे में सीमा पार कर पाकिस्तान पहुँच गए और फिर उनकी
जिन्दगी ऐसे शैतानी शिकंजे में फंस गई जहां उन्हें मौत के लिए भी 22 साल तक
इंतजार करना पड़ा! पाकिस्तानी नियत और व्यवस्था का आदिम व संकुचित चेहरा
कितना घिनौना है और सरबजीत को किस प्रकार की न्याय व्यवस्था के तहत सजा
मिली इसे इस बात से ही समझा जा सकता है कि सर्वोच्च न्यायालय में उनकी
फांसी की सजा मुकर्रर रखी गई क्योंकि उनको मिला वकील समय पर अदालत नहीं
पहुंचा.! न्यायतंत्र का ऐसा संकीर्ण और गैरजिम्मेदार स्वरूप भी हो सकता है
सभ्य विश्व आज इसकी कल्पना नहीं करता!
ऐसे ही कितने सरबजीत पाकिस्तानी जेलों में एक हिंदुस्तानी होने की यातना
झेल रहे हैं यह हिंदुस्तान की सरकार भी भलीभाँति नहीं जानती। भारत
पाकिस्तान द्वारा गठित न्यायाधीशों की समिति की 1 मई 2013 की हाल रिपोर्ट
को यदि आधार मानें तो पाकिस्तान में भारत के 535 नागरिक बंद हैं। कुछ अन्य
स्रोत दावा करते हैं कि पाकिस्तान के इन यातनागृहों में पड़े भारतीयों की
वास्तविक संख्या हजारों में है। हाँलाकि कई ओर के दबाब और भारतीय जेलों में
बंद पाकिस्तानी कैदियों के बदले जनवरी 2012 से अब तक 714 भारतीय नागरिकों
की रिहाई अवश्य हुई है किन्तु भारत सरकार के लिए यह पाकिस्तान के साथ
नागरिकों के लेन-देन से अधिक कुछ रहा हो ऐसा बिलकुल नहीं है। सवाल यह उठता
है कि जिस एक सरबजीत की मौत पर पूरे देश में इस कदर आक्रोश है और
परिणामस्वरूप प्रधानमंत्री दावा कर रहे हैं कि इसे किसी भी कीमत पर सहन
नहीं किया जाएगा, वैसे ही सैकड़ों सरबजीत भारत सरकार के लिए कभी कोई मुद्दा
ही नहीं रहे…, आखिर क्यों.? जिस सरबजीत की मौत पर भारत सरकार इतना गंभीर
दिखने का प्रयास कर रही है वही सरबजीत जिंदा रहते हुए कभी सरकार की चिन्ता
का विषय क्यों नहीं रहे.? क्यों सरबजीत अथवा अन्य सैकड़ों या हजारों भारतीय
नागरिकों की जिन्दगी पाकिस्तान के साथ सम्बन्धों एवं वार्ताओं को प्रभावित
करने योग्य नहीं मानी गईं.?
सरकार या कॉंग्रेस की तरफ से यदि कोई इसके
जबाब में अपनी प्रयासों की कोई सूची लेकर आता है तो उससे पूंछा जाना चाहिए
कि सालों के प्रयास के बाद भी यदि पाकिस्तानी जेलों में सड़ते भारतीयों को
आजादी नहीं मिल पाती है, यदि सरबजीत को आखिर में मौत ही मिलती है तो इसे
भारत की कमजोर, दबाबहीन, प्रभावहीन स्थिति के रूप में रूप में निरूपित किया
जाना चाहिए अथवा सरकार की उपलब्धियों में गिना जाना चाहिए.?
अंतर्राष्ट्रीय पटल पर भारत की इस अशक्त, असमर्थ व कमजोर स्थिति के लिए
सरकार के अतिरिक्त किसे जिम्मेदार माना जाना चाहिए.? देश के सवा अरब
नागरिकों की ओर से सरकार से प्रश्न पूंछा जाना चाहिए कि एक विदेशी मुल्क के
अत्याचारों व प्रताड़ना की गिरफ्त में फंसा देश का नागरिक अपने देश की
सरकार के अतिरिक्त किससे सहायता की आशा करे.?
दुर्भाग्य और विडम्बना भारत की, जो विश्व की महाशक्ति बनने का स्वप्न
देखता है, कि जहां एक ओर अमेरिका जैसे देश रेमंड डेविस जैसे अपने एक
नागरिक, जोकि लाहौर के अंदर दो पाकिस्तानियों को गोली से उड़ा देता है, की
सुरक्षा के लिए पाकिस्तान जैसे देश की नाक में दम कर देता है वहीं दूसरी ओर
भारत अमानवीय अत्याचारों के शिकार अपने सैकड़ों नागरिकों की बात भी पड़ोसी
मुल्क के साथ दमदार तरीके से उठाने का साहस नहीं कर पाता.! पाकिस्तान एक
के बाद एक हमारा गिरेबान पकड़कर हमें झिंझोड़ता रहा है और हम हर बार और
अधिक विनम्रता और संबंध बहाली की एकतरफा उत्सुकता से दोस्ती का गुलाब लेकर
नतमस्तक होते रहे हैं!
हमारी नीतियों व राष्ट्रीय इच्छाशक्ति में यह घुन नेहरू के समय से ही लग
गया था जिसे बाद की सरकारें लगातार पोषित करती रही हैं। स्वतन्त्रता
प्राप्ति के तुरंत बाद पाकिस्तान ने कश्मीर पर हमला किया और जबाब में
भारतीय सेना ने पाकिस्तान को बुरी तरह पछाड़ लगाते हुए एकतरफा तरीके से
कश्मीर को कब्जे में ले लिया लेकिन नेहरू कश्मीर मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र
में ले गए और यही पाकिस्तान के लिए उस समय सबसे बेहतरीन विकल्प हो सकता
था। 1965 के युद्ध में भी भारत अपनी जीत को कूटनीतिक लाभ में नहीं बदल पाया
और वही चूक 1971 के बाद शिमला समझौते व 90,000 से अधिक पाकिस्तानी सैनिकों
को बिना कोई कीमत बसूले रिहाई देकर फिर दोहराई गई। इसी तरह नब्बे के पूरे
दशक में भारत ने पाकिस्तान पोषित आतंकवाद की आग में पूरे कश्मीर को झुलसते
हुए देखा लेकिन तत्कालीन सरकारें पाकिस्तान को कड़ा जबाब देने में पूरी तरह
से विफल रहीं.! कॉंग्रेस की पाकिस्तान परस्त नीति के लाल बहादुर शास्त्री
जैसे कुछ ही अपवाद हैं और गैर-काँग्रेसी सरकारों में अटल सरकार को ही सबसे
तगड़े प्रतिरोध की स्थिति का सामना करना पड़ा जब देश को 1999 में
पाकिस्तानी सेना की कारगिल में घुसपैठ और 2003 में संसद पर हमले का सामना
करना पड़ा था। कारगिल मामले में अटल सरकार को पाकिस्तान के विरुद्ध उतना ही
श्रेय दिया जा सकता है जितना 1971 का इन्दिरा गांधी को.!
दोनों ने
पाकिस्तान को सैन्य कार्यवाही से कड़ा जबाब दिया लेकिन बाद में शांति की
एकतरफा आतुरता में भारत को लचर हालत में खड़ा कर दिया। कारगिल के तुरंत बाद
ही षड्यंत्र में शामिल सेना के जनरल मुशर्रफ के साथ आगरा शिखर वार्ता एकदम
गैरजरूरी थी, भले ही इसमें अटल ने कश्मीर में पाक प्रायोजित आतंकवाद को
प्रमुखता व दृढ़ता से उठाया हो! किन्तु 2004 से जिस रीढ़हीन रणनीति का प्रदर्शन यूपीए सरकार कर रही है
वह अतीत से अलग और कहीं अधिक अचंभित करने वाली है। संसद पर हमले के तुरंत
बाद अटल सरकार ने ऑपरेशन पराक्रम लॉंच करते हुए सीमा पर सेना का मूवमेंट
शुरू कर दिया था और पाकिस्तान के हाथ-पैर ढीले पड़ गए थे किन्तु वहीं 26/11
के हमले के जबाब में मनमोहन सरकार की प्रतिक्रिया क्रिकेट और बातचीत बंद
करने तक सीमित थी वह भी शान्ति की व्यग्रता में अधिक नहीं टिकी। आश्चर्य
होता है जब दशकों से आतंकवाद के भुक्तभोगी देश का प्रधानमन्त्री आतंकवाद को
शह देने और जांच के नाम पर ठेंगा दिखाने वाले देश के प्रधानमन्त्री
(गिलानी) को ‘शान्ति का मसीहा’ बताता है, शर्म-अल-शेख में राष्ट्रीय
स्वाभिमान को बेशर्मी से लाद देता है अथवा अपनी ही सीमा में अपने सैनिक का
सर काट लिए जाने के बाद भी देश का विदेशमंत्री कहता है कि इससे भारत-पाक
सम्बन्धों व शान्तिवार्ताओं पर फर्क नहीं पड़ने दिया जाएगा.!
सिर्फ और
सिर्फ आश्चर्य ही होता है जब युद्धविराम को लगभग 200 बार धता बताते हुए
पाकिस्तान द्वारा सीमा पर लगातार गोलीबारी की जाती है लेकिन इससे दिल्ली
में सरकार को व उसकी अमन की आशाओं को कोई फर्क नहीं पड़ता, सरकारी मंत्री
शहीदों की शहादत को धता बताते हुए पाकिस्तानी प्रधानमन्त्री परवेज़ अशरफ के
लिए पलकें बिछाने अजमेर पहुँच जाते हैं .! आश्चर्य और शर्म की सीमाएं भी
उस समय टूटने लगती हैं जब देखने में आता है कि एक टीवी चैनल की बहस में
वरिष्ठ कॉंग्रेस नेता और सरकार के मंत्री मणिशंकर अय्यर सरबजीत की मौत के
बाद भी पाकिस्तान का पक्ष लेते हुए कहते हैं कि हमें भरोसा रखना चाहिए कि
पाकिस्तान न्याय करेगा!
सरबजीत के मामले को मीडिया ने इतना उठाया तो आज सरकार इसे पाकिस्तान का
बर्दास्त के बाहर का आचरण बता रही है, लेकिन सवाल ये उठता है कि क्या सरकार
की इस बयानबाजी से सरबजीत की 22 साल की यातनाओं का जबाब मिल सकता है? क्या
मात्र इतने से ही कैदी चमेल सिंह, कैप्टन सौरभ कालिया, शहीद हेमराज और
पाकिस्तानी जेलों में यातना भोग रहे अन्य सैकड़ों भारतीय नागरिकों के प्रति
जबाबदेही सुनिश्चित हो जाती है.? इसका जबाब मनमोहन सिंह के घिसे-पिटे बयान
अथवा राहुल गांधी के राजनैतिक आंसुओं से नहीं मिलेगा, जबाब इस बात से
मिलेगा कि मनमोहन बयान के बाद नागरिकों की सुरक्षा के लिए कदम उठाते हैं
अथवा वार्ता की एक और मेज सजाते हैं तथा भिखभिंड से दिल्ली पहुँचते पहुँचते
राहुल के कितने आँसू बचते हैं और वो अपनी सरकार को क्या कुछ निर्णयात्मक
कदम उठाने के लिए कहते हैं.! अतीत के अनुभव कड़वे हैं, भारतीय सैनिकों की
सरकशी के बाद देशव्यापी आक्रोश के चलते पाकिस्तानियों के लिए तुरंत वीजा
(Visa on arrival) की सुविधा को स्थगित करना पड़ा था उसे पिछले महीने सरकार
ने गुपचुप तरीके से लागू कर दिया, क्या हेमराज को न्याय मिल गया?
राष्ट्रीय जीवटता व दृढ़ता के आभाव में न कभी किसी हेमराज या सरबजीत को ही न्याय मिलेगा और न ही दशकों से आतंकवाद का दंश झेल रहे इस राष्ट्र की आत्मा को ही.! देखना होगा कि सरकार अब आगे सैकड़ों अन्य सरबजीतों के जीवन को प्राथमिकता देती है अथवा मामले के ठंडे पड़ते ही फिर अमन की आशा की अपनी राह पकड़ लेती है! यदि सरकार फिर से दूसरा विकल्प चुनती है तो स्पष्ट अवधारणा प्रमाणित हो जाएगी कि देश की सरकार व नीति-निर्माता संस्थानों के अंदर ऐसे एजेंट बैठ चुके हैं जिनका उद्देश्य पाकिस्तान व अमेरिका जैसे देशों के हितों की सुरक्षा में भारत की नीतियों को लकवा मारना है। वैसे भी इस देश में अफजल की फांसी पर मातम मनाने और सरबजीत की फांसी पर फूटे राष्ट्रवादी आक्रोश को आतंकवाद कहकर विदेशी हित साधने वाले तथाकथित बौद्धिकों की कमी नहीं है।
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