12 May 2013

भूख से मरते लोग और खुले में सड़ता अनाज !

भूख से हो रही मौतों के सन्दर्भ में वर्ष 1996 में रोम में एक अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन हुआ था। इसमें 180 देशों के राष्ट्राध्यक्षों ने एक स्वर से कहा था कि भूख से हो रही मौतें बहुत ही शर्मनाक बात है। सम्मेलन में यह भी संकल्प लिया गया था कि सन् 2015 तक वि·श्वभर से आधी भुखमरी मिटा दी जाएगी। किन्तु इस सम्बंध में कोई ठोस प्रयास अभी तक नहीं हुआ है। फलस्वरूप दिनोंदिन भूख से मरने वालों की संख्या बढ़ती ही जा रही है। उल्लेखनीय है कि इस समय दुनियाभर में 80 करोड़ ऐसे लोग हैं, जिन्हें दो जून की रोटी नहीं मिल पाती है। और अनुमान है कि 2015 तक यह संख्या डेढ़ अरब तक पहुंच जाएगी। इन 80 करोड़ में से लगभग 40 करोड़ लोग भारत, पाकिस्तान और बंगलादेश में हैं। यानी दुनिया में जितने भूखे हैं, उसका आधा भारत, पाकिस्तान और बंगलादेश में हैं। यह उस समय की बात है, जब इन देशों में खाद्यान्नों के अतिरिक्त भण्डार भी भरे पड़े हैं। तो फिर आम लोग भूख से क्यों मरते हैं? अन्न वितरण व्यवस्था में कहां कमी है और इसके लिए कौन जिम्मेदार है?

विश्वभर में में प्रतिदिन 24 हजार लोग किसी जानलेवा बीमारी से नहीं, बल्कि भूख से मरते हैं। इस संख्या का एक तिहाई हिस्सा भारत के हिस्से में आता है। भूख से मरने वाले इन 24 हजार में से 18 हजार बच्चे हैं। और इन 18 हजार का एक तिहाई यानी 6 हजार बच्चे भारतीय हैं। लेकिन क्या पिछले 66 वर्षों में देशभर में इस बारे में कोई चिन्ता की गई? क्या संसद में इस सम्बंध में कोई बहस हुई? लेकिन अफसोस तो यह कि दुनिया भर में निर्यात करने वाले देश में ही 30 करोड़ गरीब जनता भूखी सोती है। फिर हम इस खुशफहमी में कैसे जी सकते हैं कि भारत कृषि प्रधान देश है, जो सबका पेट भरता है। अगर वाकई ऐसा है तो हमारा देश भूखा क्यों हैं? आज भी छत्तीसगढ़, बुंदेलखंड, उड़ीसा, झारखंड व बिहार में भुखमरी का प्रतिशत ज्यादा क्यों बना हुआ है?
एक तरफ देश में भुखमरी का खतरा मंडरा रहा है वहीं सरकारी लापरवाही के चलते लाखों टन अनाज बारिश की भेंट चढ़ रहा है। हर साल गेहूं सड़ने से करीब 450 करोड़ रूपए का नुकसान होता है। यह तो बीते सालों के आंकड़ें कहते हैं, जबकि इस साल तो अनाज सड़ने के इतने बड़े आंकड़े सामने आए हैं कि दांतों तले उंगली दबाने पर मजबूर हैं। 

हाल ही में इतना अनाज सड़ चुका है कि उससे साल भर करोड़ों भूखों का पेट भर सकता था, जो भ्रष्टाचार के गलियारों में पनपती लापरवाही की सीलन में सड़ गया। विगत वर्ष अनाज सड़ने का अनुमान, जयपुर से लगया गया जहां गोदाम में शराब रखने के लिए करीब 70 लाख टन अनाज बाहर फेंक दिया गया जिससे वह सड़ गया। इसके बाद राजस्थान, पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश में अनाज सड़ने के कई मामले सामने आए। लेकिन ठोस कारवाई अभी तक किसी पर नहीं हुई। इस मामले पर संसद और राजनीतिक सभाओं में तो बयानबाजी होती रही और ले-देकर कुछ अधिकारियों को निलंबित कर कार्रवाई का फर्ज पूरा कर दिया गया। किंतु इससे हापुड़ में सड़े 5 लाख टन गेहूं की पूर्ति नहीं की जा सकती है, करीब ढ़ाई करोड़ का यह गेहूं, 40 लाख बोरियों में भरे-भरे पूरे एक सप्ताह तक खुद के सहेजने का इंतजार करता है और अतंत: बारिश में भीगने के बाद सड़ ही गया!

पिछले 10 सालों के दौरान गोदामों में कितना अनाज ख़राब हुआ,ख़राब होने की क्या वजह रही और ख़राब अनाज को हटाने के लिए सरकार की क्या कोशिशें और ख़र्च आया? इस संदर्भ में जनवरी 2008 में उड़ीसा के कोरापुट ज़िले के आरटीआई कार्यकर्ता देवाशीष भट्टाचार्य ने गृह मंत्रालय को एक आवेदन भेजा था। इस आरटीआई आवेदन का जो जवाब मिला, वह चौंकाने वाला था। मालूम हुआ कि बीते 10 सालों में 10 लाख टन अनाज बेकार हो गया। जबकि इस अनाज से छह लाख लोगों को 10 साल तक भोजन मिल सकता था। सरकार ने अनाज को संरक्षित रखने के लिए 243 करोड़ रुपये ख़र्च कर दिए, लेकिन अनाज है कि गोदामों में सड़ता रहा। ख़राब अनाज नष्ट करने के लिए भी सरकार ने 2 करोड़ रुपये ख़र्च किए। एक दीगर सवाल के जवाब में सरकार ने अनाज के ख़राब होने की वजह उसे एक जगह से दूसरी जगह ले जाना, भंडारण और ख़राब वितरण प्रक्रिया बताया।

दरअसल, यदि हम दुनिया में विकसित विधियों का इस्तेमाल अपने गोदामों के लिए करें तो अनाज 4 से 5 साल तक अच्छी हालत में रह सकता है। वरना वह समय बीतने के साथ ख़राब होने लगता है। सरकारें हर साल खाद्य सब्सिडी पर हज़ारों करोड़ रुपये ख़र्च करती हैं, मगर उन्हें इस बात का कतई ख्याल नहीं रहता कि जो अनाज ख़रीदा गया है, उसे कैसे ह़िफाज़त से रखा जाएगा। इस समस्या का एक नीतिगत पहलू और है, जिस पर चर्चा बेहद ज़रूरी है। अक्सर बफर स्टॉक की ज़रूरत से बहुत ज़्यादा सरकारी ख़रीद कर ली जाती है। फिलव़क्त सरकारी गोदामों में 60,428 लाख टन अनाज है, जबकि अतिरिक्त स्टॉक रखने की अनिवार्यता 319 करोड़ टन अनाज की है। ज़ाहिर है, जब हम गोदामों की क्षमता से दोगुना भार उन पर डाल देते हैं तो अनाज को सड़ने से किस तरह से बचाया जा सकता है। सरकार एक तऱफ कम उत्पादन और निजी जमाखोरी को बढ़ती महंगाई की अहम वजह बताती है, वहीं दूसरी तऱफ वह ख़ुद जमाखोरी में लगी हुई है, जिसके चलते बाज़ार के मंझे हुए खिलाड़ी अनाज की एक बनावटी किल्लत पैदा कर बेजा फायदा उठाते हैं। बहरहाल महंगाई से आम आदमी परेशान है, खाद्य पदार्थों के दाम आसमान छू रहे हैं, लेकिन सरकार को यह गवारा नहीं कि जब उसके पास इफरात में अनाज का भंडार है तो वह उसे खुले बाज़ार में क्यों नहीं जारी कर देती। 

भले ही गोदामों में अनाज चूहे खाते रहें, अनाज पानी में पड़ा सड़ता रहे, लेकिन मजाल है कि वह अनाज भूख से तिल-तिल मरती जनता तक पहुंच जाए। सुप्रीमकोर्ट ने ठीक ही यह सवाल उठाया है कि यदि सरकार के पास इतना अनाज रखने का इंतज़ाम नहीं है तो वह उसे ज़रूरतमंदों को क्यों नहीं बांट देती। सुप्रीमकोर्ट के कड़े रुख़ के बाद सरकार ने आगामी छह महीनों में एपीएल परिवारों के लिए राशन की दुकानों से 30 लाख टन चावल और गेहूं बेचने का फैसला किया है। अनाज पर आत्मनिर्भरता का दावा करने वाला भारत अनाज भंडारण के कुप्रबंधन की मार झेल रहा है,जिसके चलते टनों-टन अनाज प्रतिवर्ष सड़ जाता है| जिसका परिणाम देश में भुखमरी व महंगाई के रूप में हमारे सामने है।देश के ये हालात कोई नए नहीं है, आजादी के छह दशक बाद भी गरीबों के पेट की भूख लगातार बढ़ी, कुपोषण में भी बढ़ोत्त्तरी हुई, भुखमरी से मरने वालों की संख्या में भी इजाफा हुआ। इसी के साथ देश के लिए चुनौती पूर्ण सवाल ये है कि आखिर खाद्य सामग्री की सुरक्षा किस स्तर से हो रही है ? खुले में पड़े लाखों टन अनाज को मात्र तिरपाल और चादरों के सहारे सुरक्षित रखने की समझ किसी नासमझी से कम नहीं है। 

मगर साल दर साल इसी तरीके से सब कुछ हो रहा है। देश में कुपोषण का प्रतिशत साल-दर-साल बढ़ रहा है। यूनिसेफ की एक रिर्पाट के अनुसार, विश्वभर में करीब पांच साल से कम उम्र के 25 प्रतिशत बच्चों को पर्याप्त भोजन नहीं मिलता। शर्म की बात है कि इन बच्चों का सबसे बड़ा प्रतिशत भारत के हिस्से में आता है। दुनिया में कुल भुखमरी के शिकार लोगों में 40 फीसदी लोग भारत के हैं। जिसमें से 46 फीसदी बच्चे कुपोषण की गिरफ्त में हैं और यह दर सहारा-अफ्रीका से दो गुना ज्यादा है। अब देश के कुपोषण वाले आंकड़े को देखकर बस यही कहा जा सकता है कि जहां देश में करोड़ों जनता के लिए दो जून की रोटी नहीं है, उनके पोषक भोजन की पूर्ति करना और करवाना दोनों ही मजाक लगता है। मनरेगा के बाद यूपीए की दूसरी सर्वाधिक महत्वाकांक्षी परियोजना खाद्य सुरक्षा कानून को भले ही कैबिनेट की मंजूरी मिल गई हो, लेकिन अभी भी इसमें कई पेंच हैं, जो इस कानून की सफलता पर सवाल खडे क़रते हैं।खाद्य सुरक्षा विधेयक को पारित करवाने के बारे में अब खुद सरकार के भीतर ही मतभेद उभरकर सामने आए हैं, तो इसे समझा जा सकता है। सरकार के नीति-नियंता इस परियोजना को चाहे जितना बढ़ा-चढ़ाकर आंकें और संसद के इसी सत्र में इसे पारित करवाने की प्रतिबध्दता जताएं, हकीकत में यह विरोधाभासों से भरा है।

 मंत्रिमंडल ने खाद्य सुरक्षा विधेयक को संसद में पेश करने की मंजूरी तो दे दी है लेकिन इसमें तमाम विसंगतियां हैं और यह कहीं-कहीं अव्यावहारिक प्रतीत होता है। बावजूद इसके सरकार इसे पांच राज्यों में होने वाले चुनाव से पहले पारित कराना चाहती है। यही कारण है कि अमूमन कल्याणकारी योजनाओं को खारिज करने वाले वित्ता मंत्रालय ने इसे मंजूरी देने में देर नहीं लगाई। जबकि इस योजना की विसंगतियों की सूची लंबी है। देश के दस लोगों के पास जितनी संपत्ति बताई जाती है, उतनी निचले तबके के दस करोड़ लोगों के पास कुल मिलाकर नहीं है।करोड़ों लोगों को दिन शुरू करने के साथ ही यह सोचना पड़ता है कि आज पूरे दिन पेट भरने की व्यवस्था कैसे होगी, वहीं लाखों लोग ऐसे हैं जो तय नहीं कर पाते कि आज उनका पिज्जा खाने का मन है या बर्गर खाने का, उन्हें मटन की डिश चाहिए थी या चिकिन की। करोड़ों जिन कैलोरियों के लिए तरसते हैं उतनी कैलोरियां कुछ लाख लोग मुंह में भर-भर कर सड़कों पर थूक देते हैं या कूड़ेदान में फेंक देते हैं। जिन्हें सबसे ज्यादा इलाज और दवा की जरूरत है, उनके पास न इलाज है न दवा, लेकिन जो पहले से ही स्वस्थ्य हैं उनके स्वास्थ्य का ध्यान रखने के लिए हर गुरु और हर विशेषज्ञ मौजूद हैं।

 जिनके पास मानसिक और बौद्धिक क्षमताएं हैं, जो उचित शिक्षा और वातावरण पाकर चमत्कारिक ढंग से विकास कर सकते हैं और समाज की बेहतरी में बेहतरीन योगदान दे सकते हैं उनके पास कोई अवसर नहीं है।सर्वाधिक बर्बादी सामूहिक भोज के मौकों पर होती है। भोज समारोह में पश्चिमी संस्कृति की तर्ज पर बूफे का चलन बढा है। बूफे यानी स्वरुचि भोजन को खुद से प्लेट में निकालकर खाने का विधान। एक भाव में इस तरीके से भोजन की कम बर्बादी होनी चाहिए थी। खासकर पंगत में बैठकर पत्तों पर किसी और के हाथ से परोसे जाने पर पकवान के बर्बादी की गुंजाईश ज्यादा होती है। संभव है कि अंग्रेजों ने बूफे की पद्धति का ईजाद स्वरुचि भोजन का खुद चयन करने के लिए किया। भोज्य पात्र में सीमित मात्रा में खुद लेने की तरकीब अन्न बर्बादी से बचने का सुनहरा उपाय हो सकता। लेकिन आज पंगत में बैठाकर भोज करने कराने की विधा की तुलना में पश्चिमी नकल के तौर पर हमारे बीच आया बूफे संस्कार ज्यादा अन्न बर्बादी का कारण बना है। बूफे के नाम पर छप्पन भोग लगाने का शौक विलासियों के सिर चढकर बोल रहा है। समारोहों में एकसाथ राजस्थानी, गुजराती, पंजाबी, बंगाली डिश का रेला सजा दिया जाता है। फिर आंगतुकों के हाथ इस आग्रह के साथ बूफे की तश्तरी पकड़ा दी जाती है कि सभी पकवानों का रसास्वादन ले।

 इंसान के भोजन की सीमा होती है। अगर वह हर पकवान में से एक एक कौर ले तो भी उसकी सीमा जवाब दे दे। ऐसे में, तश्तरी में ज्यादा लेकर छोडना या बना भोजन इस्तेमाल के बगैर बर्बाद करने की असंवेदनशीलता बढती जा रही है। चलन के चक्कर में विलासिता की अंधी प्रतियोगिता में शामिल समाज बर्बादी को नजरअंदाज कर रहा है। महंगाई के कारण आम आदमी का जीना बेहद मुश्किल हो गया है। नौकरी करने वाले और मोटी तनख्वाह पाने वाले लोग महंगाई के कारण त्राहि-त्राहि कर रहे हैं, तो उन 80 फीसदी लोगों का क्या हाल होगा, जिनकी औसतन आमदनी मात्र 20 रूपये प्रतिदिन है? क्या सरकार को तनिक भी इस पहलू का अहसास है? देश में 75 फीसदी करोड़पति मंत्रियों की फौज, गरीबों के खून-पसीने की कमाई पर मौज कर रही है, क्या सरकार को यह जानते हुए भी कोई शर्म अथवा संकोच नहीं होता है? क्या सरकार ने अपना दीन-ईमान इस कद्र बेच खाया है कि उसे उन 121 करोड़ लोगों की उम्मीदों और भावनाओं की जरा भी परवाह नहीं रह गई है, जिन्होंने उन पर ‘कांग्रेस का हाथ, आम आदमी के साथ’ के नारे पर विश्वास करके उन्हें सत्ता की बागडोर सौंपी थी? भारी भ्रष्टाचार के कारण सौ दिन के रोजगार की गारंटी वाली ‘मनरेगा’ योजना भी आम आदमी के साथ छलावा साबित हो रही है और सरकार फिर भी बड़ी बेशर्मी के साथ इसे अपनी ढ़ाल बनाने से बाज नहीं आ रही है?

भारतीय खाद्य निगम तो क्या, अनाज की बर्बादी में मुल्क की सूबाई सरकारें भी पीछे नहीं रहतीं, जो गोदामों से अपने कोटे का अनाज कभी समय से नहीं उठातीं, जिसके चलते अनाज आहिस्ता-आहिस्ता ख़राब होने लगता है। फिर दोषपूर्ण सार्वजनिक वितरण प्रणाली इस कोढ़ में खाज का काम करती है। पीडीएफ में भ्रष्टाचार और कुप्रबंधन की शिक़ायतें आम हैं। पूर्व जस्टिस डीपी वाधवा की अध्यक्षता में बनी कमेटी की रिपोर्ट सार्वजनिक वितरण प्रणाली की पूरी पोल हमारे सामने खोलकर रख देती है। वाधवा कमेटी के मुताबिक़, जन वितरण प्रणाली का 53 फीसदी चावल और 39 फीसदी गेहूं ज़रूरतमंद लोगों तक पहुंच ही नहीं पाता। ज़रूरतमंदों को आवंटित अनाज कालाबाज़ारी के ज़रिए बाज़ार में बेच दिया जाता है। एक अनुमान के मुताबिक़, साल 2004-05 में 9,918 करोड़ रुपये का अनाज कालाबाज़ारी के ज़रिए बाज़ार में पहुंचा तो 2005-06 में यह लूट 10,330 करोड़ रुपये और 2006-07 में यह बढ़कर 11,336 करोड़ रुपये आंकी गई। यानी इन 3 सालों में ज़रूरतमंद ग़रीबों को आवंटित 31,500 करोड़ रुपये का गेहूं-चावल राशन डीलर, नौकरशाह एवं सियासी लीडरों ने आपस में मिल-बांटकर डकार लिया और ग़रीब मुंह ताकता रह गया। 

कुल मिलाकर सार्वजनिक वितरण प्रणाली में फैले भ्रष्टाचार से निजात और अनाज के भंडारण की उचित व्यवस्था जब तक सरकार की प्राथमिकता में शामिल नहीं होगी, तब तक सरकारी सब्सिडी और अनाज की बर्बादी नहीं रुक पाएगी। देश में हर साल करीब साठ लाख टन अनाज या तो चूहे खा जाते हैं या फिर वो सड़ जाते हैं। अगर अनाज को सही ढंग से रखा जाए तो इससे 10 करोड़ बच्चों को एक साल तक खाना खिलाया जा सकता है। करोड़ों का अनाज उचित भंडारण के अभाव में वर्षा, सीलन, कीड़ों और चूहों के कारण नष्ट हो जाता है। यह सिलसिला कब रुकेगा किसी को पता नहीं।भारतीय खाद्य निगम के आकड़ों के मुताबिक वर्ष 2008 से 2010 तक 35 मीट्रिक टन अनाज भंडारण सुविधाओं की कमी की वजह से नष्ट हो गये। उत्तर प्रदेश के हापुड़, उरई और हरदुआगंज स्थित एफसीआई गोदामों में भी हजारों टन अनाज बर्बाद हो रहे हैं। 1997 और 2007 के बीच 1 .83 लाख टन गेहूं, 6.33 लाख टन चावल, 2।200 लाख टन धान और 111 लाख टन मक्का एफसीआई के विभिन्न गोदामों में सड़ गए।

ऐसा नहीं है कि भारत में खाद्य भंडारण के लिए कोई कानून नहीं है। 1979 में खाद्यान्न बचाओ कार्यक्रम शुरू किया गया था। इसके तहत किसानों में जागरूकता पैदा करने और उन्हें सस्ते दामों पर भंडारण के लिए टंकियां उपलब्ध कराने का लक्ष्य रखा गया था। लेकिन इसके बावजूद आज भी लाखों टन अनाज बर्बाद होता है। तमाम लोग दो वक्त की रोटी जुटाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। इसी जद्दोजहद में गरीब दम तक तोड़ देते हैं, जबकि सरकार के पास अनाज रखने को जगह नहीं है। राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2009 में 17 हजार से अधिक किसानों ने आत्महत्या की। ब्यूरो के अनुसार 2009 में महाराष्ट्र में 2872 जबकि आंध्रप्रदेश में 2474 किसानों ने आत्महत्या की। 2010 से फरवरी 2011 तक सिर्फ मध्यप्रदेश में 348 किसानों ने आत्महत्या की है। विदर्भ से लेकर बुंदेलखंड में यह दुखद आंकड़ा लगातार बढ़ता जा रहा है। हाल ही में सामने आई कुछ रिपोर्टों में भारत में भुखमरी से संबंधित चौकाने वाले आंकड़ें सामने आए हैं। विश्व खाद्य कार्यक्रम (डब्लूएफपी) और स्वास्थ्य मंत्रालय, 2010 में भारत द्वारा जारी की गई रिपोर्ट के अनुसार कुछ आंकड़ें सहारा के आस पास के अफ़्रीकी देशों में पाए जाने वाले भुखमरी के संकेतकों से भी कहीं अधिक खराब हैं। इस रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया में भुखमरी से पीड़ित लगभग 50 प्रतिशत लोग भारत में निवास करते हैं।

सरकारी गोदामों में अनाज के बर्बाद होने का यह पहला मामला नहीं। पिछले कई वर्षो से यह शर्मनाक सिलसिला कायम है। संप्रग सरकार 2004 से सत्ता में है और खास बात यह है कि तब से कृषि एवं खाद्य मंत्रालय पर शरद पवार ही काबिज हैं। पिछले साल केंद्रीय कृषि एवं खाद्य मंत्री शरद पवार ने लोकसभा में 11 हजार टन खाद्यान्न के खराब हो जाने की बात स्वीकारी थी। देश में एफसीआई के गोदामों में कुल 11 लाख 708 टन अनाज खराब हुआ है। एक जुलाई 2010 की स्थिति के अनुसार भारतीय खाद्य निगम के विभिन्न गोदामों में 11,708 टन गेंहू और चावल खराब हो गया है।
 
वर्ष स्थिति
2009 – 2010 2 हजार टन गेहूं और 3680 टन चावल खराब हुआ
2008 – 2009 947 टन गेंहू और 19,163 टन चावल खराब हुआ
2007 – 2008 924 टन गेंहू और 32 हजार 615 टन चावल खराब हुआ
कुल : तीन साल साल में लगभग 58 हजार टन अनाज खराब हुआ।

इस तरह इस साल तक खराब हुए अनाज को अगर मिला लिया जाए तो चार साल में देश में सरकारी स्तर पर कुल 71 हजार 47 टन अनाज यूं ही बरबाद हो गया है। ऐसा भी नहीं है कि सरकार ने भूख से लड़ने के लिए कारगर उपाय नहीं किए हैं। देश में आज खाद्य सुरक्षा व मानक अधिनियम 2006 के तहत खाद्य पदार्थो और शीतल पेय को सुरक्षित रखने के लिए विधेयक संसद से पारित हो चुका है, जिसके अंतर्गत राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन, राष्ट्रीय कृषि विकास योजना, राष्ट्रीय बागवानी मिशन, नरेगा, मिड डे भोजन, काम के बदले अनाज, सार्वजानिक वितरण प्रणाली, सामाजिक सुरक्षा नेट, अंत्योदय अन्न योजना आदि कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं, ताकि सभी देशवासियों की भूख मिटाने के लिए ही नहीं, बल्कि स्वतंत्र रूप से जीवनयापन के लिए रोजगार परक आय व पोषणयुक्त भोजन मिल सके। लेकिन कागजों पर बनने वाली यह योजनाएं जमीन पर कितनी अमल की जाती हैं इसका अंदाज आप भारत में भूख से मरने वाले लोगों की संख्या से लगा सकते हैं।
अन्न की बर्बादी एक अपराध है’ वर्ष 2010 में अनाज की बर्बादी पर सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी गरीबों की पीड़ा को व्यक्त करने वाली है। 

अनाज को सड़ाने के बजाय जरुरतमंदों में बांटने के सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बावजूद राज्य सरकारों के कान पर जूं तक नहीं रेंगी और हर साल की तरह फिर मध्यप्रदेश और पंजाब में हजारों बोरी गेंहू बिना किसी रखरखाव से सड़ गया। इंद्र देव की ‘कृपा’ पर आश्रित राज्य सरकारें अन्न भंडारण की चुनौती के आगे बेबस नजर आ रही हैं। कुपोषण से होने वाली मौतों को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने राज्यों के मुख्य सचिवों से कहा था कि केंद्र से आवंटित अनाज ले जाकर गरीबों में बांटे। गांवों में आज भी 23 करोड़ लोग अल्प पोषित हैं, जबकि पचास फीसदी बच्चों की मौत की वजह कुपोषण है। देश की किसी भी सरकार के लिए यह शर्म की बात है कि दुनिया की 27 फीसदी कुपोषित जनसंख्या भारत में रहती है। इन विरोधाभासों के बीच यदि सरकार खाद्य सुरक्षा की बात करती है तो उसकी मंशा पर सवाल उठना स्वाभाविक है। आज आवश्यकता इस बात की है कि केंद्र और राज्य सरकारें इस बारे में गंभीरता से विचार करें और देश की जन-कल्याणकारी योजनाओं को चुनावी फायदे के हिसाब से लागू करने के बजाय सभी राजनीतिक पार्टियां दलगत राजनीति से ऊपर उठकर विचार करें।

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