आमतौर पर मीडिया की सुर्खियों से गायब रहने
वाला छत्तीसगढ़ एक बार फिर से सुर्खियों में है। छत्तीसगढ़ के सुर्खियों
में रहने की वजह एक बार फिर से नक्सली ही हैं जिन्होंने घात लगाकर किए हमले
में छ्त्तीसगढ़ कांग्रेस के अधिकतर दिग्गज नेताओं की हत्या कर छत्तीसगढ़
पीसीसी को वीरान कर कर दिया है। किसी भी राजनीतिक दल के नेताओं पर शायद ये
नक्सलियों का सबसे बड़ा हमला है लेकिन राजनीतिक दलों से इतर नक्सली इससे भी
बड़े हमले कर सरकार का अपनी ताकत का एहसास पहले भी करा चुके हैं। तीन साल पहले अप्रेल 2010 में छत्तीसगढ़ के
दंतेवाड़ा में सीआरपीएफ के 76 जवानों की हत्या कर नक्सलियों ने राज्य व
केन्द्र सरकार की नींद उड़ा दी थी। सवाल मुंह बाएं खड़ा था कि जब नक्सली 76
हथियारबंद जवानों को घेर कर मौत के घाट उतार सकते हैं तो नक्सली क्या नहीं
कर सकते..?
इसी तरह बीते साल अप्रेल 2012 में सुकमा
कलेक्टर एलैक्स पॉल मेनन का अपहरण कर भी नक्सलियों ने सरकार को खुली चुनौती
दी थी। कलेक्टर मेनन तो आखिर रिहा हो गए लेकिन एक कलेक्टर का अपहरण अपने
पीछे कई सवाल छोड़ गया। जब एक कलेक्टर ही सुरक्षित नहीं है तो आम आदमी की
सुरक्षा की क्या गारंटी है..? छत्तीसगढ़ में अमूमन रोज नक्सली कभी
गोलीबारी कर तो कभी बारुदी सुरंग से विस्फोट कर जवानों को निशाना बनाते रहे
हैं। ये ख़बरें सिर्फ स्थानीय अख़बारों के पन्नों तक सिमट कर रह जाती हैं
क्योंकि इन हमलों में एक या दो जवान ही शहीद होते हैं लेकिन जब तीन साल
पहले दंतेवाड़ा में 76 सीआरपीएफ जवान शहीद होते हैं या फिर कांग्रेस के
काफिले पर हमला होता है जिसमें दिग्गज कांग्रेसी नेताओं समेत करीब दो दर्जन
से ज्यादा लोगों की मौत हो जाती है तो ये ख़बरें छत्तीसगढ़ से दिल्ली तक
भी पहुंचती हैं।
नक्सलियों के बड़े हमलों के बाद छत्तीसगढ़
से दिल्ली तक हंगामा मचता है। नकस्लियों के हमलों पर बहस का दौर शुरु हो
जाता है लेकिन कुछ दिनों बाद शांति पसर जाती है और ऐसे ही एक बड़े हमले पर
छत्तीसगढ़ से लेकर दिल्ली तक इसकी गूंज सुनाई देती है..! हालांकि ऐसा नहीं है कि कार्रवाई एक तरफ से
ही होती है। सर्चिंग के दौरान या मुठभेड़ के दौरान आए दिए एक आद नक्सली के
मारे जाने की खबर भी आती है और इस दौरान निर्दोष आदिवासियों की हत्या का
आरोप भी जवानों पर लगता है जैसे हाल ही में बीजापुर के एड़समेटा गांव में
तीन बच्चों समेत आठ लोगों की हत्या का आरोप जवानों पर लगा था लेकिन सवाल
यहां भी खड़ा होता है कि आखिर क्यों नक्सल प्रभावित इलाकों में हमेशा
अघोषित जंग के हालात बने रहते हैं..?
जिस तरह से नक्सलियों ने जवानों और
आदिवासियों के बाद अब नेताओं को अपने निशाने में लिया है उससे ये साफ जाहिर
होता है कि नक्सली खुद को लोकतांत्रिक प्रक्रिया का हिस्सा नहीं मानते और
लोकतांत्रिक सरकार से इतर अपनी एक समानांतर सरकार चलाना चाहते हैं या कहें
कि चला रहे हैं। अपने बाहुल्य वाले इलाकों में वे विकास कार्य नहीं चाहते
क्योंकि उन्हें डर है कि अगर सड़क का निर्माण हो गया या उस इलाके में पक्के
स्कूल या सरकारी इमारतें बन गयी तो सुरक्षाबल उसका इस्तेमाल उनके खिलाफ कर
सकते हैं। सरकार नक्सलियों से हथियार डालकर बातचीत का
रास्ता अपनाने की बात करती है लेकिन इसके बाद भी आए दिन छोटी मोटी नक्सली
हमलों के बीच दंतेवाड़ा या सुकमा जैसे बड़े नक्सली हमले सामने आते रहते हैं
!
जो साफ ईशारा करते हैं कि नक्सली कभी हथियार नहीं डालने वाले लेकिन इसके
बाद भी स्वामी अग्निवेश टाइप लोग कहते हैं कि नक्सलियों ने दंतेवाड़ा में
76 जवानों की हत्या की तो क्या हुआ…जवानों ने भी तो निर्दोष आदिवासियों को
नक्सली बताकर उनकी हत्या की थी..! मतलब तो ये हुआ कि अग्निवेश नक्सलियों
द्वारा जवानों की हत्या को जस्टिफाई करने की कोशिश कर रहे हैं और अघोषित
तौर पर नक्सलियों का समर्थन कर रहे हैं..! एक तरफ भारत पहले ही अपने पड़ोसी पाकिस्तान
प्रायोजित आतंकवाद और ड्रैगन के दोहरे खतरे से जूझ रहा है ऊपर से देश के
अंदर विभिन्न राज्यों में नक्सली इससे भी बड़ा खतरा बनकर ऊभर रहे हैं लेकिन
हमारी सरकार हर चीज का हल शांति प्रक्रिया से निकालना चाहती है। गांधी जी
के अहिंसा के सिद्धांतों पर चल रही हमारी सरकारों को कौन समझाए कि नक्सली
शांति वार्ता से नहीं मानने वाले..!
नक्सली भी इस देश की ही नागरिक हैं लेकिन
अगर वे हथियार की भाषा ही बोलना और समझना चाहते हैं तो क्यों न उनकी भाषा
में उनसे बात की जाए..? क्या हमारी सरकार इतनी सक्षम नहीं है कि नक्सल
बाहुल्य इलाकों में अभियान चलाकर नक्सलियों को हथियार डालने पर मजबूर कर
दिया जाए। जाहिर है हमारी सरकार भी सक्षम है और सुरक्षाबल भी लेकिन फिर
सवाल खड़ा हो जाता है कि ये फैसला ले कौन..? केन्द्र और राज्य सरकारों के साथ ही सभी
राजनीतिक दलों को मिलकर ये फैसला लेना होगा कि वे अब और नक्सली हमले नहीं
सहेंगे और समर्पण या बातचीत के रास्ते से न मानने पर नक्सलवाद को जड़ से
उखाड़ फेंकने के लिए एक दृढ़ निर्णय लेना ही होगा वर्ना एक अंतराल के बाद
फिर से दंतेवाड़ा या फिर सुकमा जैसी घटनाएं हमारे सामने आती रहेंगी।
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