14 May 2013

क्या ड्रैगन के आगे घुटने टेक रही है भारत सरकार ?

15 अप्रैल को चीनी सेना ने भारतीय नियंत्रण सीमा में लद्दाख के दौलत बेग ओल्डी क्षेत्र में 19 किमी भीतर घुसपैठ करते हुए अपने पाँच तम्बू गाड़ दिये थे, परिणामस्वरूप सीमा के दोनों ओर लगभग बीस दिनों तक एक गहरे तनाव का वातावरण बना रहा। कई दौर की बातचीत एवं सुलह-समझौतों के बाद भले ही चीनी सेना वापस अपनी सीमा में चली गई हो लेकिन इसे भारत की किसी बड़ी जीत अथवा कूटनीतिक सफलता के रूप में जल्दबाज़ी में परिभाषित नहीं किया जाना चाहिए। एक ऐसी कल्पित सफलता, जिसमें हमें कुछ भी प्राप्त नहीं हुआ, पर उल्लास के स्थान के पर समय मंथन व चिंतन का है कि आखिर ऐसी स्थिति उत्पन्न ही क्यों हुई.? इसके लिए तात्कालिक ही नहीं पुरानी कूटनीतिक व रणनीतिक असफलताओं व चूकों पर भी ईमानदारी से विचार होना चाहिए।

भारतीय सीमा में 19 किमी चीनी घुसपैठ न चीन की उद्देश्यहीन चूक थी और न ही 20-25 किमी के भारतीय परिक्षेत्र को हड़पने का प्रयास.! भारतीय नीतिकार भले ही चीनी सेना की वापसी पर अपनी पीठ ठोंक लें किन्तु सच्चाई यह है कि चीन वह अपने साथ ले जा चुका है जो वो लेने आया था। 15 अप्रैल को चीन भारत के दौलत बेग ओल्डी क्षेत्र में घुसा था और सूचना होते ही 16 अप्रैल को भारत ने अपना विरोध दर्ज कराते हुए चीन से सेना वापसी की मांग कर डाली थी। 18 अप्रैल को दोनों देशों की सेनाओं के बींच हुई पहली फ्लैग मीटिंग निष्कर्षहीन रही। इसके बाद की सभी फ्लैग मीटिंग से भी कोई रास्ता नहीं निकल सका। मान्य सीमा के 19 किमी एक ऐसे देश की सेना की घुसपैठ जिसके साथ सीमा को लेकर हमारा कड़वा अनुभव रहा है निश्चित रूप से एक सामान्य घटना नहीं थी जिसकी उपेक्षा की जा सकती हो, देश के भीतर फैला व्यापक जनाक्रोश इस घटनाक्रम की संवेदनशीलता को व्यक्त करने के पर्याप्त था। राष्ट्र की संप्रभुता, जिसे कि भारतीय संविधान ने अपनी भावना के भीतर स्थान दिया है, राष्ट्र की आत्मा का सर्वोच्च व सर्व-प्राथमिक प्रश्न है। किन्तु दुर्भाग्य से भारत सरकार ने आश्चर्य व विडम्बनापूर्ण तरीके से चीन के सुर में सुर मिलाते हुए 20 अप्रैल को इस गंभीर मसले को स्थानीय समस्या कहकर पल्ला झाड़ने का प्रयास किया। जनता, विपक्ष व मीडिया के घोर दबाब के बावजूद सरकार घुसपैठ को महत्व न देते हुए 2 मई तक विदेश मंत्री की चीन यात्रा को सुनिर्धारित बताती रही। सीमा सुरक्षा जैसे एक गंभीरतम विषय पर सरकार के ऐसे लचर, लाचार, जनभावना विरोधी व कूटनीति से मीलों दूर कदम इतिहास में चूक के रूप में नहीं वरन घोर मूर्खता के रूप में अंकित किए जाते हैं! यही कारण है कि हमें आज फिर पलटकर इतिहास की ओर देखने की देखने व सीखने की आवश्यकता है।
 
1962 के युद्ध में मिली शर्मनाक हार नेहरू व उनके सहयोगियों की ऐसी ही मूर्खता का परिणाम थी जिसमें भारत को अपना लगभग 38,000 वर्ग किमी क्षेत्र चीन के हाथों गंवाना पड़ा था। किन्तु चीन का भारत के प्रति कुटिलतापूर्ण रवैया 1962 के बाद भी जारी रहा, और निःसन्देह अधिकांश मौकों पर भारत की लचर नीतियाँ भी! 1962 की पराजय के बाद भारत लंबे समय तक कोई प्रतिक्रिया देने अथवा दबाब बनाने की स्थिति में ही नहीं था अतः इन परिस्थितियों में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी द्वारा 1988 में किया गया चीन का दौरा एक सकारात्मक शुरुआत थी जोकि नेहरू द्वारा किए गए अनर्थ की भरपाई के लिए एकमात्र कदम हो सकता था। परिणामस्वरूप दोनों देशों ने सीमा संबंधी समस्या को नए सिरे से स्वीकारा और समाधान के लिए प्रतिबद्धता जताई। 1991 में चीनी प्रधानमंत्री ने भी भारत यात्रा की और सीमा समस्या को सुलझाने की बात दोहराई गई।

 किन्तु भारत-चीन सम्बन्धों में वास्तविक प्रगति नरसिम्हा राव के कार्यकाल में हुई और 1993 में दोनों देशों ने सीमा पर शांति बनाए रखने के समझौते पर हस्ताक्षर किए और विशेषज्ञों के एक समूह को संभावित समाधान तलाशने के लिए नियुक्त किया गया। परिणामस्वरूप आगे पूर्वोत्तर सीमा पर कई पोस्टों से दोनों देशों की सेना हटाये जाने जैसे महत्वपूर्ण निर्णय हुए। यह प्रगति एक प्रारम्भ मात्र थी जिसे किसी सफलता के रूप में नहीं वरन सफलता प्राप्ति के अवसर के रूप में देखा जाना चाहिए था जिसके द्वारा एक एक करके भारत के हित साधे जा सकते थे, दुर्भाग्य से भारतीय नीतिनिर्धारक ऐसा नहीं कर सके। किन्तु चीन बखूबी जानता था कि उसे भारत से क्या चाहिए और तीन दशकों से ठंडे पड़े रिश्तों की नयी शुरुआत को अपने फायदे के लिए बखूबी प्रयोग किया।

चीन ने भारत के साथ रिश्तों को सामान्य करने की आड़ में दो बड़े व महत्वपूर्ण हित साधे; पहला व्यापारिक व दूसरा सीमा संबंधी। व्यापार के क्षेत्र में जहां चीन ने भारत को अपने बाज़ार के रूप में छोटे बड़े सामानों से पाट दिया और अरबों डॉलर का शुद्ध लाभ अपने विकास के लिए निकाला वहीं भारत निर्यात के मामले में पूर्णतः असंतुलित व्यापार की चपेट में है। सीमा विवाद के मुद्दे पर भी भारत सभी सौदों में घाटे में ही रहा है। उदाहरण के लिए कश्मीर के अक्साई चिन मसले पर भारत वहीं खड़ा है किन्तु चीन अरुणाचल प्रदेश पर लगातार दबाब बढ़ाता जा रहा है। 1993 की शुरुआत के एक दशक बाद भी सीमा विवाद पर भारत अपने किसी भी दावे को मजबूत नहीं कर सका, यद्यपि चीन द्वारा कब्जे में लिए गए कैलाश मानसरोवर को तीर्थयात्रा के लिए अवश्य खोला गया। 2003 में एक बार फिर भारत-चीन संबंधों में एक नई शुरुआत देखने को मिली और विशेष प्रतिनिधियों के स्तर पर वार्ताएं आयोजित हुईं और परिणामस्वरूप चीन ने पहली बार सिक्किम को भारतीय प्रदेश स्वीकारते हुए भारत के मानचित्र में दिखाया। 

किन्तु भारत ने इसके लिए एक बड़ी कूटनीतिक कीमत चुकाई और तिब्बत को चीन का अभिन्न भाग स्वीकार कर लिया। निश्चित रूप से यह बड़े घाटे का सौदा नहीं होता यदि भारत सरकार सिक्किम के साथ साथ कम से कम अरुणाचल प्रदेश और केंद्रीय सैक्टर के क्षेत्रों, जोकि भारतीय नियंत्रण में ही हैं, को भारतीय क्षेत्र स्वीकार करवा लेती। फिर हम वेस्टर्न सैक्टर मे चीनी अधिकृत भारतीय क्षेत्र को विवाद और समझौते का केंद्र बना सकते थे। किन्तु यही पूरे इतिहास में भारतीय पक्ष की सबसे बड़ी कूटनीतिक असफलता रही है कि भारत ने समझौता उस पर किया जो उसका अपना है और उसके नियंत्रण में भी है, और वह भी अधूरा समझौता! इस तरह चीन को भारतीय पक्ष ने अपने आप बढ़त व दबाब बनाने की स्थिति में पहुंचा दिया। इसी गलती को भारत ने 2013 में फिर दौलत बेग ओल्डी में दोहराया है।

भारत सरकार भले ही मुंह चुराने के लिए स्थिति साफ नहीं कर रही हो किन्तु जितना अब तक स्पष्ट हो सका है उसके आधार पर चीनी सेना के भारतीय क्षेत्र से हटने के लिए भारत को चीन की मांगों के सामने घुटने टेकने पड़े। भारतीय सीमा में सेना की चुमार पोस्ट को खाली करने व वहाँ बनाए गए बंकर हटाने के लिए भारत को तैयार होना पड़ा। चुमार भारतीय सैन्य दृष्टिकोण अत्यधिक महत्वपूर्ण पोस्ट है जहां से काराकोरम के उस पार चीन द्वारा बनाए गए हाइवेज़ पर चीनी सेना की गतिविधि पर नजर रखी जा सकती है किन्तु चीन अपने क्षेत्र से इस ओर नहीं देख पाता। यह पोस्ट पीपल्स लिबरेशन आर्मी को अत्यधिक खटक रही थी। इसी तरह सम्पूर्ण भारतीय सीमा पर सैन्य दृष्टि से विशाल इनफ्रास्ट्रक्चर बना चुके चीन को पिछले तीन चार सालों से भारतीय सेना द्वारा बनाई जा रही सड़कों व हवाईपट्टियों पर गहरी आपत्ति है।

भारत ने यदि चीन की शर्तों को मानते हुए ऐसे कुछ भी समझौते किए हैं तो निश्चित रूप से उसने भविष्य के लिए चीन को ऐसी घुसपैठों व अन्य समानान्तर तरीकों से भारत को मजबूर करने का निमंत्रण दे दिया है। मैंने लिखा कि चीन जिस उद्देश्य के लिए दौलत बेग ओल्डी में घुसा उसे वह पाकर निकला है। पहला; भारत के प्रतिरोधहीन लचर नेतृत्व की कलई खोलकर चीन ने न सिर्फ भारतीय पक्ष पर अपना दबाब स्पष्ट कर दिया वरन भारत को मजबूर कर मनमुताबिक सौदेबाजी का एक और रास्ता खोज निकाला है, दूसरा; चुमार जैसी रणनीतिक पोस्ट को खाली कराने में सफलता प्राप्त करने के साथ साथ भारत को ऐसे किसी निर्माण के विरुद्ध चेतावनी दे दी है, तीसरा; बिना किसी सैन्य कार्यवाही के भारतीय सेना को अपने ही क्षेत्र से पीछे हटने को मजबूर कर भारतीय नियंत्रण वाले क्षेत्र को विवादित चित्रित करने में सफलता पा ली है। 

अब भविष्य में जब कभी भारत अक्साइ चिन की बात उठाएगा चीन भारत के इस क्षेत्र पर ही सवाल उठाकर उसे रक्षात्मक भूमिका में आने को मजबूर करेगा। यही चीन की रणनीति रही है और इसी के तहत भारत को दबाब में लाने के लिए उसकी ओर से भारतीय सीमा में घुसपैठ होती है, अरुणाचल प्रदेश के सरकारी अधिकारी को वीजा देने से इन्कार किया जाता है, कश्मीर को विवादित क्षेत्र बताकर स्टेपल वीजा जारी किया जाता है, भारतीय सेना के अधिकारी जनरल जसवाल को वीजा देने से इन्कार किया जाता है और यहाँ तक कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अरुणाचल प्रदेश यात्रा का चीन यह कहकर विरोध करता है कि भारतीय प्रधानमंत्री चीनी क्षेत्र में अनाधिकृत प्रवेश कर रहे हैं। इन सब के बाद भी भारत सरकार सख्त संदेश तक देने की हिम्मत नहीं जुटा पाती, उल्टे ब्रह्मपुत्र पर चीन द्वारा बांध बनाने जैसे गंभीर मुद्दे पर लंबे समय तक देश की जानता को ही गुमराह करके रखती है!

1962 से लेकर 2013 तक एक के बाद एक की गई गलतियों के बाद भारत के पास सीमित विकल्प बचे हैं और उन सभी विकल्पों के लिए प्रबुद्ध कूटनीति व निर्णायक इच्छाशक्ति वाले नेतृत्व की आवश्यकता है। सबसे पहले भारत को स्पष्ट कर देना चाहिए कि यदि चीन अरुणाचल प्रदेश समेत भारत के किसी भी हिस्से पर सवाल उठाता है तो भारत तिब्बत पर अपने रुख पर पुनर्विचार करने के लिए विवश होगा। दूसरा, चीन के किसी अतिक्रमण या घुड़की के जबाब में सरकार को चीनी दोस्ती का नेहरू राग अलापना बंद करके दृढ़ता से देश की जानता को आश्वासन देना चाहिए कि भारत परमाणु शक्ति सम्पन्न देश है और किसी भी स्थिति में देश की सीमाओं की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध है ताकि चीन तक भारत के सख्त रुख का संदेश जाए। इसके अतिरिक्त जापान सहित पूर्वोत्तर के वियतनाम जैसे उन सभी देशों के साथ सम्बन्धों को वरीयता से सुदृढ़ करना चाहिए व उनकी चीन विरोधी स्थिति को उसी प्रकार भुनाना चाहिए जैसे चीन पाकिस्तान में करता है।

 वर्तमान में ईरान व उत्तर कोरिया जैसे मुद्दों पर अमेरिका इस्राइल आदि के साथ कूटनीतिक तरीकों से चीन को विपरीत ध्रुव पर पहुंचाना चाहिए व उसकी वर्तमान स्थिति को भुनाना चाहिए। साथ ही रूस के सम्बन्धों को समानान्तर तरीके से मजबूत करना होगा। इसके अतिरिक्त सबसे अधिक महत्वपूर्ण है, सैन्य आत्मनिर्भरता व व्यापार। व्यापार में 2011-12 में भारत का चीन को मात्र निर्यात 17.90 अरब अमेरिकी डॉलर रहा जबकि चीन ने भारत को 57.55 अरब अमेरिकी डॉलर का निर्यात किया। इस वर्ष भारत के निर्यात में 19.6% की तीव्र कमी हुई। हम चीन को खनिज, दुर्लभ मृदा तत्व व कॉटन आदि कच्चा माल बेंचते हैं और बदले में सजावट से लेकर मशीन तक बना बनाया माल खरीदते हैं। इस असंतुलन को न सिर्फ हमें पाटना होगा वरन यह समझते हुए कि भारतीय बाज़ार चीन की बड़ी आर्थिक ताकत है और चीन इसे खोना कभी नहीं चाहेगा। 

अतः चीन के किसी भी अवांछनीय कदम उठाते ही हमें इस बात का दृढ़ संदेश देना चाहिए कि यदि सीमा संबंधी भारतीय हितों पर आंच आती है तो ऐसे में चीन के साथ व्यापारिक संबंध बिलकुल कायम नहीं रखे जा सकते! चीन को होने वाला भारतीय अधिकांश निर्यात दुर्लभ मृदा तत्व जैसे कच्चे माल का है जिसके लिए भारत के पास और भी बाज़ार हैं जिन्हें भारत को जापान आदि में तलाशना चाहिए। आवश्यकता तो यह है कि व्यापार के दांव को भारत चीन अधिकृत कश्मीर के लिए भी सफलतापूर्वक प्रयोग करे लेकिन इसके लिए आवश्यक है कि भारत सैन्य व व्यापारिक दोनों रूप से आत्मनिर्भर बने। निश्चित रूप से ये कूटनीतिक तीर भारत के तरकश में अभी भी बचे हुए हैं लेकिन प्रश्न यह है कि वो धनुर्धर अभी हमारे पास कहाँ है जो इनका सधा प्रयोग कर सके। वैश्विक राजनीति में हर कूटनीतिक तीर का या तो आपको लाभ उठाना आना चाहिए अन्यथा उसी से आप क्षति भुगतने के लिए तैयार रहें।

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