हिंन्दी पत्रकारिता के 187 वर्श पूरे हो चुके है, इन बिते वर्षो में ये क्षेत्र अनेक गिरावट और तरक्की को देखा है। इन सब के अलावे अग्रेजी शासकों की प्रहार और अपातकाल की दंश को भी झेला है। मगर आज ये क्रांतिकारी हथियार कारपोरेट घरानों की जागिर बनते जा रहा है। क्योंकि आज संपादक मैनेजर की भूमिका अदा कर रहा है, तो मालिक दलाल के रूप में खबरों की आत्मा निकाल कर व्यापार कर रहा है। आज न्यूज चैनलों को लेकर यह सवाल बार बार उठता है कि जो कुछ खबरों के नाम पर परोसा जा रहा है, उससे इतर पत्रकारिता की कोई सोचता क्यों नहीं है। क्या ये सोच गिरावट की ओर इषारा नहीं करता है ? आज की पत्रकारिता कमरे में सिमटी कर रह गई है, जिसमें पत्रकारिता शब्द बेमानी हो चला है, और धंधा समूची पत्रकारिता के कंधे पर सवार होकर बाजार और मुनाफे के घालमेल में उलझ कर रह गया है। तो वही दुसरी ओर राजनीतिक दलों ने पत्रकारिता को अपने कोख में ही बड़ा करना शुरु कर दिया है। कोई संपादक कितनी क्रियेटिव है, आज ये मायने नहीं रखती है, उससे ज्यादा उस संपादक का महत्व बाजार से मुनाफा बटोरने का है। साथ ही इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि तकनीकी विस्तार ने मीडिया को जो विस्तार दिया है उतना विस्तार पत्रकारों का नहीं हुआ है। और मीडिया का यही तकनीकी विस्तार ने इस चकाचैध की रोशनी में युवाओं को अपने ओर खिंचने लगा है। और आज असल में इसी को पत्रकारिता मानने लगा है, और राजनीति को प्रभावित करने वाला चैथा खम्भा भी।
आज अखबार के एक ही पन्ने पर एक ही व्यक्ति से जुड़ी दो खबरें छपती हैं, जो एक दूसरे को काटती हैं। जो पीत पत्रकारिता के रूप में इस पेषे में जहर घोल रही है। जिस पत्रकारिता को लोकत्रंत्र के पहरुआ होना है, वह आज पहरुआ होने का कमीशन मांगने लगा है। साथ ही टीआरपी के नाम पर खबरों की जगह मनोरंजन और सनसनाहट पैदा करने वाले तंत्र-मंत्र को दिखा कर, आज के बाजारवादी चैनल और अखबार पत्रकारिता की परिभाशा को बदल दिया है। हाल के दौर में न्यूज चैनलों का लाइसेंस जिस तरह चिट-फंड करने वाली कंपनियो से लेकर रियल-इस्टेट के धुरंधरों को मिला है उसको भी लेकर सवाल उठ रहा है।
मिशन से शुरू हुई पत्रकारिता के कौशल में तब्दील होने का सच है। अब बेमानी लगने लगी है। यानी जिस जमाने में देश आजादी की लड़ाई लड़ रहा था और पत्रकारिता उसकी तलवार थी तब वह मिशन हो सकती थी। उसमें धन और रोजी नहीं थी। मगर बदलाव के इस दौर में ‘जाके पैर न फटे बिवाई, सो क्या जाने पीर पराई’ का जुमला उछालकर पत्रकार और पत्रकारिता के स्वरूप और दायित्वों को समेटना अब बेमानी लगने लगी है। मगर इसी पत्रकारिता ने बोर्फोस से लेकर आदर्श सोसाइटी घोटाले को उजागर करके पूरे देश को झकझोर कर रख दिया। तो वही दुसरी ओर अन्ना हजारे की आंदोनल का मीडिया कवरेज ने सरकार को जनसरोकार के आगे झुकने पर मजबुर किया।
आज अखबार के एक ही पन्ने पर एक ही व्यक्ति से जुड़ी दो खबरें छपती हैं, जो एक दूसरे को काटती हैं। जो पीत पत्रकारिता के रूप में इस पेषे में जहर घोल रही है। जिस पत्रकारिता को लोकत्रंत्र के पहरुआ होना है, वह आज पहरुआ होने का कमीशन मांगने लगा है। साथ ही टीआरपी के नाम पर खबरों की जगह मनोरंजन और सनसनाहट पैदा करने वाले तंत्र-मंत्र को दिखा कर, आज के बाजारवादी चैनल और अखबार पत्रकारिता की परिभाशा को बदल दिया है। हाल के दौर में न्यूज चैनलों का लाइसेंस जिस तरह चिट-फंड करने वाली कंपनियो से लेकर रियल-इस्टेट के धुरंधरों को मिला है उसको भी लेकर सवाल उठ रहा है।
मिशन से शुरू हुई पत्रकारिता के कौशल में तब्दील होने का सच है। अब बेमानी लगने लगी है। यानी जिस जमाने में देश आजादी की लड़ाई लड़ रहा था और पत्रकारिता उसकी तलवार थी तब वह मिशन हो सकती थी। उसमें धन और रोजी नहीं थी। मगर बदलाव के इस दौर में ‘जाके पैर न फटे बिवाई, सो क्या जाने पीर पराई’ का जुमला उछालकर पत्रकार और पत्रकारिता के स्वरूप और दायित्वों को समेटना अब बेमानी लगने लगी है। मगर इसी पत्रकारिता ने बोर्फोस से लेकर आदर्श सोसाइटी घोटाले को उजागर करके पूरे देश को झकझोर कर रख दिया। तो वही दुसरी ओर अन्ना हजारे की आंदोनल का मीडिया कवरेज ने सरकार को जनसरोकार के आगे झुकने पर मजबुर किया।
साथ ही आज के दौर में सोशल मीडिया ने मिस्र में सत्ता परिर्वतन में जो भूमिका अदा की उसको लेकर विष्व के कई सारे तानाषाहों की पैर तले जमीन खिसक गई। आज के बाजारीकरण के दौर में पत्रकारिता का काम भले ही बदला है। मगर फिर भी भारतीय पत्रकारिता की मूलधारा इस बाजारीकरण की आंच से नहीं पिघली हैं। उसमें जोखिम झेलने का जज्बा आज भी बरकरार है। तो एैसे में सवाल खड़ा होता है की क्या पत्रकारिता में वाकई तरक्की आई है या फिर गिरावट ?
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