कर्नाटक विधानसभा चुनाव के परिणामों ने शायद ही किसी को अचंभित किया हो!
परिणाम मतदान के काफी पूर्व बन चुके जनसामान्य के अनुमान और मतदान बाद के
एक्ज़िट पोल्स के लगभग अनुरूप ही हैं। अप्रत्याशित न होने के बाद भी
कर्नाटक चुनाव परिणाम समय और स्थान के संयोग के कारण राजनीतिक दृष्टिकोण से
अत्यधिक महत्वपूर्ण माने जा रहे थे। स्वाभाविक है भाजपा के लिए दक्षिण का
एकमात्र किला होने के कारण कर्नाटक दक्षिण में भविष्य की उम्मीदों का आधार
था जहां से पिछले लोकसभा चुनावों में उसके खाते में महत्वपूर्ण 19 सीटें
आयीं थीं। वहीं केंद्र में बुरे समय से जूझती कॉंग्रेस के लिए एक बड़े
प्रदेश के रूप में कर्नाटक एकमात्र ऐसा मौका था जिसने कि उसके लिए न केवल
मरहम का काम किया वरन उसे यह संदेश देने का सशक्त अवसर भी दिया कि उसकी
जड़े अभी तक हिली नहीं हैं। निश्चित रूप से कर्नाटक चुनाव परिणामों पर भाजपा को मंथन की आवश्यकता है
और यही अब वो कर भी सकती है। किन्तु राजनीतिक दलों के अतिरिक्त कर्नाटक के
चुनाव परिणाम राजनीतिक पंडितों के लिए भी गंभीर सबक हैं कि भारत की
राजनीति को इसकी ऊबड़-खाबड़ जमीनी वास्तविकता के आधार पर ही समझा व परखा
जाना चाहिए।
कर्नाटक में येदुरप्पा फैक्टर को हाँलाकि नजरंदाज नहीं किया गया और न ही यह संभव था किन्तु मीडिया में अधिकांश विशेषज्ञों ने भाजपा की हार के लिए उसकी सरकार में कथित भ्रष्टाचार को ही प्रमुखता से जिम्मेदार ठहराया है, किन्तु जमीनी यथार्थ यह है कि भाजपा की हार के लिए येदुरप्पा व भ्रष्टाचार दोनों को एक साथ जिम्मेदार ठहराया जाना संभव ही नहीं है; न सैद्धान्तिक रूप से और न वास्तविकता की कसौटी पर ही.! किसी ग्रामसभा, निकाय चुनाव को निकट से देखने वाला व्यक्ति अथवा विधानसभा चुनाव में सक्रिय रहा कोई भी आम आदमी भारतीय राजनीति के कड़वे सच को बखूबी समझता है लेकिन अब हमें इसे आंकड़ों के स्तर पर बड़े विश्लेषकों की भाषा में भी समझने की आवश्यकता है। कर्नाटक राजनीति के निष्कर्षों से हम भारतीय राजनीति के वास्तविक चित्र व दूरगामी भविष्य को काफी हद तक समझ सकते हैं। सैद्धान्तिक रूप से, कर्नाटक के संदर्भ में, यह संभव नहीं है कि जो जनता भाजपा से भ्रष्टाचार के कारण कुर्सी खाली करा ले वही जनता येदुरप्पा को अपना समर्थन दे, बावजूद इसके कि येदुरप्पा के अपने बल बूते सरकार बनाने की संभावना शून्य थी।
जनता के समर्थन को स्पष्ट करने के लिए हम प्राप्त मतों के प्रतिशत को आधार बनाते हैं। इस चुनाव में कॉंग्रेस को 36.6% मत मिले और 42 सीटों की बढ़त के साथ उसके विधायकों की संख्या 121 पर पहुँच गई। किन्तु 2008 की अपेक्षा कॉंग्रेस को मिले मतों में मात्र 1.8 प्रतिशत की ही वृद्धि हुई है। भाजपा को अपने 2008 की अपेक्षा 13.9 प्रतिशत मतों का तगड़ा नुकसान हुआ और परिणाम स्वरूप उसे 70 सीटों से हाथ धोना पड़ा और उसके विधायकों की संख्या 40 तक लुढ़क गई। भाजपा से खिसके मतदाताओं का बड़ा हिस्सा, 9.8 प्रतिशत, कॉंग्रेस नहीं बल्कि बी एस येदुरप्पा के साथ गया, भले ही उनके खाते में 6 सीटें ही आई हों। हाँलाकि भ्रष्टाचार के मुख्य आरोपी तो येदुरप्पा ही थे और भाजपा ने उन्हें निकालने की बड़ा जोखिम लेकर भी अपना दामन साफ कर लिया था। येदुरप्पा की पार्टी को मिले मतों का प्रतिशत अपने पहले ही चुनाव में सत्तारूढ़ भाजपा व जेडीएस के 20-20 प्रतिशत का लगभग आधा व विजेता कॉंग्रेस का एक तिहाई पहुँच गया जबकि येदुरप्पा को अपनी पार्टी बनाए छह महीने भी नहीं हुए थे।
इस तरह ये तर्क स्वीकार पाना कि जनादेश भ्रष्टाचार के विरोध में है हकीकत के आईने में संभव नहीं होता.! यदि भाजपा व येदुरप्पा को मिले मतों को जोड़ लिया जाए तो यह प्रतिशत अभी भी 29.8 होता है। अतः भाजपा को जो 13.9 प्रतिशत मतों का जो नुकसान हुआ उसने पूरे सियासी समीकरण निश्चित रूप से बदल दिए किन्तु उसे भ्रष्टाचार के विरुद्ध जनादेश कहकर परिभाषित नहीं किया जा सकता अन्यथा येदुरप्पा उसके सीधे लाभदार नहीं होते। कॉंग्रेस और जेएसडी को जो क्रमशः 1.8 व 1.1 प्रतिशत का लाभ हुआ क्योंकि येदुरप्पा के भाजपा छोड़ने से स्पष्ट हो गया था कि भाजपा सत्ता वापसी नहीं कर सकती अतः यही दोनों दल के सत्ता के संभावी दावेदार के रूप में बच रहे थे। यह राजनीति का यथार्थ है कि सत्ता के लिए विकल्प के रूप में जिस पार्टी की संभावना बन जाती है उसे एक जनभावना का लाभ मिलता है। यही कारण है कि राजनीतिक दलों को मतदान पूर्व एक्ज़िट पोल्स से ख़ासी आपत्ति रही है और अंत में चुनाव आयोग ने एक्ज़िट पोल्स को प्रतिबंधित ही करने का निर्णय लिया।
अतः कम तैयारियों व तमाम आरोपों के बाद भी येदुरप्पा की पार्टी को मिले बड़ी संख्या में मतों से हम दो ही तरह के निष्कर्ष निकाल सकते हैं; या तो कर्नाटक की जनता ने येदुरप्पा को भ्रष्टाचार का दोषी नहीं माना अथवा भ्रष्टाचार चुनाव का प्रभावी मुद्दा ही नहीं रहा। दुर्भाग्य से क्षेत्रीय राजनीति का कटु सत्य दूसरा बिन्दु ही है, क्षेत्रीय राजनीति में मतदाताओं के बींच भ्रष्टाचार अभी तक प्रभावी मुद्दा नहीं बन सका है। क्षेत्रीय राजनीति में विचारधारागत वोट बैंक के अतिरिक्त क्षेत्रीय मुद्दे ही प्रभावी व निर्णायक होते हैं। भ्रष्टाचार का मुद्दा वहाँ तक प्रभावी है जहां तक इसे क्षेत्रीय मुद्दे के रूप में स्थापित किया जा सके! किन्तु दुर्भाग्य से भारत के अधिकांश राज्यों के चुनाव परिणाम कम से कम अब तक यही सिद्ध करते आए हैं कि ऐसा जमीनी आधार पर नहीं हो सका है.! संभव है कि भारतीय मतदाता अभी तक यह स्वीकार ही न कर पाया हो कि भ्रष्टाचार का शासन व्यवस्था का स्वाभाविक हिस्सा नहीं है.! अन्यथा कर्नाटक में जनता भ्रष्टाचार के आरोप झेल रहे येदुरप्पा को मुख्यमंत्री की कुर्सी से उतारकर बाहर का रास्ता दिखाने वाली भाजपा की अपेक्षा अधिक तीव्रता से नकारा जाना चाहिए था।
सबसे मुख्य बात कि भ्रष्टाचार के चुनावी मुद्दा रहते हुए केंद्र में भ्रष्टाचार के दलदल में फंसी, जूझती कॉंग्रेस जनता द्वारा प्रदेश के भ्रष्टाचार का विकल्प कैसे मानी जा सकती थी.? क्या केंद्र कॉंग्रेस के ही नेता कर्नाटक में स्टार प्रचारक नहीं थे? अंत में हमें क्षेत्रीय कारकों को ही स्वीकारना पड़ता है और यह स्थिति पूरे देश की है। हिमाचल प्रदेश में भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे होने के बाद भी वीरभद्र सिंह मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुँच जाते हैं, उत्तराखण्ड में ईमानदार खंडूरी का कोई जादू नहीं चलता और अपनी ही सीट हार जाते हैं, उत्तर प्रदेश में सत्ता भ्रष्टाचार के दिग्गज आरोपियों माया मुलायम के बींच ही झूलती है, महाराष्ट्र में शरद पवार आज भी मराठा स्ट्रॉंगमैन के नाम जाने जाते हैं। भ्रष्टाचार के प्रति उदासीन भारतीय राजनीति भारत का दुर्भाग्य है किन्तु शुभ संकेत यह है कि अब ग्रामसभा से लेकर विधानसभा व लोकसभा चुनावों तक विकास एक मुद्दा बनता जा रहा है, जनता किए गए काम पर सवाल पूंछने लगी है।
हो सकता है विकास के प्रति जबाबदेही से भ्रष्टाचार पर लगाम लगे किन्तु यदि भ्रष्टाचार पर भी जनता जबाब मांगने लगे तो विकास पर लगी लगाम जल्दी ही हट जाएगी। दुर्भाग्य से यह तात्कालिक सच नहीं लगता अतः कर्नाटक में मुंह की खा चुकी भाजपा को 2014 में ध्यान रखना होगा कि भ्रष्टाचार को तीखा तीर तो बनाया जा सकता है लेकिन ‘जनता में आधार’ का धनुष भी मजबूत करना होगा, साथ ही इकलौते तीर से भी काम नहीं चलने वाला! कॉंग्रेस को ध्यान रखना होगा कि दिल्ली की दौड़ में क्षेत्रीय मुद्दों और समीकरणों की कर्नाटक जैसी सहूलियत उपलब्ध नहीं होगी, जनता तब दिल्ली का हिसाब मांगेगी, निःसन्देह काफी कुछ केंद्र के भ्रष्टाचार का भी.!
कर्नाटक में येदुरप्पा फैक्टर को हाँलाकि नजरंदाज नहीं किया गया और न ही यह संभव था किन्तु मीडिया में अधिकांश विशेषज्ञों ने भाजपा की हार के लिए उसकी सरकार में कथित भ्रष्टाचार को ही प्रमुखता से जिम्मेदार ठहराया है, किन्तु जमीनी यथार्थ यह है कि भाजपा की हार के लिए येदुरप्पा व भ्रष्टाचार दोनों को एक साथ जिम्मेदार ठहराया जाना संभव ही नहीं है; न सैद्धान्तिक रूप से और न वास्तविकता की कसौटी पर ही.! किसी ग्रामसभा, निकाय चुनाव को निकट से देखने वाला व्यक्ति अथवा विधानसभा चुनाव में सक्रिय रहा कोई भी आम आदमी भारतीय राजनीति के कड़वे सच को बखूबी समझता है लेकिन अब हमें इसे आंकड़ों के स्तर पर बड़े विश्लेषकों की भाषा में भी समझने की आवश्यकता है। कर्नाटक राजनीति के निष्कर्षों से हम भारतीय राजनीति के वास्तविक चित्र व दूरगामी भविष्य को काफी हद तक समझ सकते हैं। सैद्धान्तिक रूप से, कर्नाटक के संदर्भ में, यह संभव नहीं है कि जो जनता भाजपा से भ्रष्टाचार के कारण कुर्सी खाली करा ले वही जनता येदुरप्पा को अपना समर्थन दे, बावजूद इसके कि येदुरप्पा के अपने बल बूते सरकार बनाने की संभावना शून्य थी।
जनता के समर्थन को स्पष्ट करने के लिए हम प्राप्त मतों के प्रतिशत को आधार बनाते हैं। इस चुनाव में कॉंग्रेस को 36.6% मत मिले और 42 सीटों की बढ़त के साथ उसके विधायकों की संख्या 121 पर पहुँच गई। किन्तु 2008 की अपेक्षा कॉंग्रेस को मिले मतों में मात्र 1.8 प्रतिशत की ही वृद्धि हुई है। भाजपा को अपने 2008 की अपेक्षा 13.9 प्रतिशत मतों का तगड़ा नुकसान हुआ और परिणाम स्वरूप उसे 70 सीटों से हाथ धोना पड़ा और उसके विधायकों की संख्या 40 तक लुढ़क गई। भाजपा से खिसके मतदाताओं का बड़ा हिस्सा, 9.8 प्रतिशत, कॉंग्रेस नहीं बल्कि बी एस येदुरप्पा के साथ गया, भले ही उनके खाते में 6 सीटें ही आई हों। हाँलाकि भ्रष्टाचार के मुख्य आरोपी तो येदुरप्पा ही थे और भाजपा ने उन्हें निकालने की बड़ा जोखिम लेकर भी अपना दामन साफ कर लिया था। येदुरप्पा की पार्टी को मिले मतों का प्रतिशत अपने पहले ही चुनाव में सत्तारूढ़ भाजपा व जेडीएस के 20-20 प्रतिशत का लगभग आधा व विजेता कॉंग्रेस का एक तिहाई पहुँच गया जबकि येदुरप्पा को अपनी पार्टी बनाए छह महीने भी नहीं हुए थे।
इस तरह ये तर्क स्वीकार पाना कि जनादेश भ्रष्टाचार के विरोध में है हकीकत के आईने में संभव नहीं होता.! यदि भाजपा व येदुरप्पा को मिले मतों को जोड़ लिया जाए तो यह प्रतिशत अभी भी 29.8 होता है। अतः भाजपा को जो 13.9 प्रतिशत मतों का जो नुकसान हुआ उसने पूरे सियासी समीकरण निश्चित रूप से बदल दिए किन्तु उसे भ्रष्टाचार के विरुद्ध जनादेश कहकर परिभाषित नहीं किया जा सकता अन्यथा येदुरप्पा उसके सीधे लाभदार नहीं होते। कॉंग्रेस और जेएसडी को जो क्रमशः 1.8 व 1.1 प्रतिशत का लाभ हुआ क्योंकि येदुरप्पा के भाजपा छोड़ने से स्पष्ट हो गया था कि भाजपा सत्ता वापसी नहीं कर सकती अतः यही दोनों दल के सत्ता के संभावी दावेदार के रूप में बच रहे थे। यह राजनीति का यथार्थ है कि सत्ता के लिए विकल्प के रूप में जिस पार्टी की संभावना बन जाती है उसे एक जनभावना का लाभ मिलता है। यही कारण है कि राजनीतिक दलों को मतदान पूर्व एक्ज़िट पोल्स से ख़ासी आपत्ति रही है और अंत में चुनाव आयोग ने एक्ज़िट पोल्स को प्रतिबंधित ही करने का निर्णय लिया।
अतः कम तैयारियों व तमाम आरोपों के बाद भी येदुरप्पा की पार्टी को मिले बड़ी संख्या में मतों से हम दो ही तरह के निष्कर्ष निकाल सकते हैं; या तो कर्नाटक की जनता ने येदुरप्पा को भ्रष्टाचार का दोषी नहीं माना अथवा भ्रष्टाचार चुनाव का प्रभावी मुद्दा ही नहीं रहा। दुर्भाग्य से क्षेत्रीय राजनीति का कटु सत्य दूसरा बिन्दु ही है, क्षेत्रीय राजनीति में मतदाताओं के बींच भ्रष्टाचार अभी तक प्रभावी मुद्दा नहीं बन सका है। क्षेत्रीय राजनीति में विचारधारागत वोट बैंक के अतिरिक्त क्षेत्रीय मुद्दे ही प्रभावी व निर्णायक होते हैं। भ्रष्टाचार का मुद्दा वहाँ तक प्रभावी है जहां तक इसे क्षेत्रीय मुद्दे के रूप में स्थापित किया जा सके! किन्तु दुर्भाग्य से भारत के अधिकांश राज्यों के चुनाव परिणाम कम से कम अब तक यही सिद्ध करते आए हैं कि ऐसा जमीनी आधार पर नहीं हो सका है.! संभव है कि भारतीय मतदाता अभी तक यह स्वीकार ही न कर पाया हो कि भ्रष्टाचार का शासन व्यवस्था का स्वाभाविक हिस्सा नहीं है.! अन्यथा कर्नाटक में जनता भ्रष्टाचार के आरोप झेल रहे येदुरप्पा को मुख्यमंत्री की कुर्सी से उतारकर बाहर का रास्ता दिखाने वाली भाजपा की अपेक्षा अधिक तीव्रता से नकारा जाना चाहिए था।
सबसे मुख्य बात कि भ्रष्टाचार के चुनावी मुद्दा रहते हुए केंद्र में भ्रष्टाचार के दलदल में फंसी, जूझती कॉंग्रेस जनता द्वारा प्रदेश के भ्रष्टाचार का विकल्प कैसे मानी जा सकती थी.? क्या केंद्र कॉंग्रेस के ही नेता कर्नाटक में स्टार प्रचारक नहीं थे? अंत में हमें क्षेत्रीय कारकों को ही स्वीकारना पड़ता है और यह स्थिति पूरे देश की है। हिमाचल प्रदेश में भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे होने के बाद भी वीरभद्र सिंह मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुँच जाते हैं, उत्तराखण्ड में ईमानदार खंडूरी का कोई जादू नहीं चलता और अपनी ही सीट हार जाते हैं, उत्तर प्रदेश में सत्ता भ्रष्टाचार के दिग्गज आरोपियों माया मुलायम के बींच ही झूलती है, महाराष्ट्र में शरद पवार आज भी मराठा स्ट्रॉंगमैन के नाम जाने जाते हैं। भ्रष्टाचार के प्रति उदासीन भारतीय राजनीति भारत का दुर्भाग्य है किन्तु शुभ संकेत यह है कि अब ग्रामसभा से लेकर विधानसभा व लोकसभा चुनावों तक विकास एक मुद्दा बनता जा रहा है, जनता किए गए काम पर सवाल पूंछने लगी है।
हो सकता है विकास के प्रति जबाबदेही से भ्रष्टाचार पर लगाम लगे किन्तु यदि भ्रष्टाचार पर भी जनता जबाब मांगने लगे तो विकास पर लगी लगाम जल्दी ही हट जाएगी। दुर्भाग्य से यह तात्कालिक सच नहीं लगता अतः कर्नाटक में मुंह की खा चुकी भाजपा को 2014 में ध्यान रखना होगा कि भ्रष्टाचार को तीखा तीर तो बनाया जा सकता है लेकिन ‘जनता में आधार’ का धनुष भी मजबूत करना होगा, साथ ही इकलौते तीर से भी काम नहीं चलने वाला! कॉंग्रेस को ध्यान रखना होगा कि दिल्ली की दौड़ में क्षेत्रीय मुद्दों और समीकरणों की कर्नाटक जैसी सहूलियत उपलब्ध नहीं होगी, जनता तब दिल्ली का हिसाब मांगेगी, निःसन्देह काफी कुछ केंद्र के भ्रष्टाचार का भी.!
लिंगयत धर्म कार्ड से संबंधित अच्छा लेख लिखा है आपने। पढ़कर मजा आ गया, मैं भी लेख लिखने का कार्य करता हूं। मेरी लेख को पढ़ने के लिए यहा पर आप जा सकते हैं। Latest News by Yuva Press India
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