एक ओर जहां तालिबानी पूरे अफगानिस्तान
में अपना कहर बरपा रहे हैं तो वही दूसरी ओर भारत सहित विश्वभर के लिबरल्स अपनी चुप्पी
साधे बैठे हैं. भारत के लिबरल तालिबान पर कुछ भी बोलने से परहेज कर रहे हैं. कुछ
ऐसे तालिबान प्रेमी भी है जो भारत सरकार को तालिबान से बात करने के लिए दबाव बना
रहे हैं. उलटे सरकार को हीं इसके लिए जिम्मेदार बता रहे हैं और मानवाधिकार के नाम
पर भारत को एक बार फिर से शरणार्थियों का अड्डा बनाना चाहते हैं.
वही चीन ने तो यहां तक घोषणा तक कर दी है
कि वह अफगानिस्तान की प्रभुसत्ता का पक्षधर है और कभी उसके आंतरिक मामलों में किसी
तरह के हस्तक्षेप के पक्ष में नहीं है. तालिबान जिस वैश्विक शिखर पर पहुँचना चाहता
है उसका बेस कैंप चीन बनाकर दे रहा है. यही कारण है खुद को लिबरल दिखाने वाले आज
इस मुद्दे पर चुप हैं.
अफगानिस्तान की वर्तमान हालात ने सुपर
पावर से लेकर विश्व समुदाय तक को सोचने पर विवस कर
दिया है. ISIS ने जब यजीदियों पर अत्याचार की सुनामी शुरू
की थी तब भी लिबरल गैंग ने चुप्पी साध ली थी. दुनियाँ भर में लोकतंत्र के
झंडाबरदार अबतक अफगानियों को हीं लानतें भेजने में लगे हुए हैं. खुद अमेरिकी
प्रेसिडेंट अफगानिस्तान के राष्ट्रपति के माथे ठीकरा फोड़ रहे हैं.
अफगानिस्तान में जो हो रहा है क्या वह दुनियां
के लिए लोकतंत्र की लड़ाई नहीं है...? क्या वहां का मानवाधिकार विश्व समुदाय के लिए
कोई मायने नहीं रखता है..? अफगान अब क्लैश ऑफ़ सिविलाइजेशन भी नहीं है. अब ये यह
शुद्ध रूप से मज़हबी और तालिबानी सारिया हुकूमत और सियासती सत्ता का अड्डा बन चुका
है. मगर आज लिबरल के नाम पर दुनियांभर में अपनी हाय तौबा मचाने वाले शांत
हैं..उनकी जुबां पर बर्फ की परतें जमी हुई है.
पूरी दुनियाँ को लोकतंत्र का पाठ पढ़ाने वाले पश्चिमी देश अफगानिस्तान से आँखें मूँदकर भाग रहे हैं. तालिबान के खिलाफ हमेशा मुखर होकर अपनी आवाज उठाने वाली शांति की नोबेल पुरस्कार विजेता मलाला युसुफजई भी एकदम चुप्पी साधे हुई है. अफगानिस्तान में पूरी तरह से अराजकता का साम्राज्य फैल गया है. ऐसे में आज पूरा विश्व के लिबरल गैंग की चुप्पी पर कई सारे सवाल खड़े होरहे हैं.
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