आज विजयादशमी है। विजयादशमी पर देशभर में अलग-अलग जगहों पर रामलीला का आयोजन और रावण का पुतला दहन होता है। मगर पुतले जलाने का इतिहास पौराणिक काल से शुरू न होकर, बल्कि आजादी के बाद ही इसकी परंपरा शुरू हुई। रावण के पुतले को सबसे पहले रांची शहर में जलाया गया था। रांची झारखंड राज्य का हिस्सा है। यहां पर वर्ष 1948 में रावण दहन पहली बार किया गया था। बंटवारे के बाद वर्ष 1948 में पाकिस्तान से भारत आए कुछ शरणार्थी परिवारों ने रावण दहन का कार्यक्रम किया था। यहां पर शुरुआत में यह कार्यक्रम बहुत छोटे स्तर पर किया गया लेकिन बाद में इसे और ज्यादा भव्य रूप में किया जाने लगा।
राजधानी
दिल्ली के रामलीला मैदान में सबसे पहले रावण दहन का कार्यक्रम 17 अक्टूबर 1953 को
किया गया था। इस रावण के पुतले को कागज और लकड़ी के बजाय कपड़ों की मदद से तैयार
किया गया था। वहीं जब पहली बार नागपुर में रावण का पुतला बना तो यह 35 फीट का था और इस दौरान क्रेन जैसी सुविधाएं इसे खड़ा करने
के लिए नहीं थीं। ऐसे में एक बड़ी सी सीढ़ी पर 50 लोग
चढ़े और 100 अन्य लोगों ने रस्सी की मदद से जमीन पर खड़े होकर पुतले
को खड़ा कर उसका दहन किया।
विजयदशमी का पर्व आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को मनाए जाने वाले मुख्य त्योहारों में से एक है। श्री वाल्मीकि रामायण, श्री रामचरितमानस, कालिका उप पुराण और अन्य अनेक धार्मिक ग्रन्थों के अनुसार भारतवर्ष के जनता के प्राण, मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम के साथ इस पर्व का गहरा संबंध है। विद्वानों के अनुसार श्री रामजी ने अपनी विजय यात्रा इसी तिथि को आरंभ की थी। इसलिए विजय यात्रा के लिए यह पर्व शास्त्र सम्मत माना जाता है।
भारतीय
काल गणना के अनुसार इसका आरंभ आज से लगभग नौ लाख वर्ष पूर्व सिद्ध होता है।
ज्योतिष के सिद्धांतानुसार इस समय में ऐसे ग्रह नक्षत्रों का संयोग होता है, जिससे विजय यात्रा का श्रीगणेश करने पर विजय यात्री को जय
की प्राप्ति होती है। इसलिए इस तिथि में राजातंत्र के समय राजा अपने राज्यों की
सीमा का अतिक्रमण करते थे। और भगवान श्री राम की विजय यात्रा को स्मरण कर विजयदशमी
का पर्व मनाते थे। विजयदशमी का त्योहार आज भी अपने अनेकों शाश्वत मूल्यों के कारण देशभर
में प्रासंगिक है।
विजयदशमी
को लेकर भगवान श्रीराम द्वारा रावण पर विजय दैवीय और मानवीय गुणों-सत्य, नैतिकता और सदाचार की राक्षसी और अमानवीय दुर्गुणों-
अनैतिकता, असत्य, दंभ, अहंकार और दुराचार पर विजय है। यह पर्व न्याय की जीत एवं
नारी जाति के अपमान करने वालों का संहार करने वाला भी है। इसे लेकर अनेकों पौराणिक
कथाएं हैं जो बतातीं हैं कि महिषासुर नाम का राक्षस ने ब्रह्मा जी की उपासना करके
वरदान प्राप्त किया था। उसके पास वरदान कि पृथ्वी पर कोई भी उसे पराजित नहीं कर
पाएगा अर्थात उसका वध नहीं कर पाएगा। महिषासुर ने अपने पाप से हाहाकार मचा दिया
था। तब ब्रह्मा विष्णु महेश ने अपनी शक्ति से दुर्गा मां का सर्जन किया था। मां
दुर्गा और महिषासुर के बीच में 9 दिनों
तक भीष्ण मुकाबला चला और 10वें
दिन मां दुर्गा ने असुर का वध कर दिया।
विजयादशमी
की विजय यात्रा मात्र, लंका या रावण पर की जाने वाली राजनीतिक जयमात्र नहीं है, बल्कि सनातन धर्म और मानवीय मूल्यों की विजय है। यह दुख
में धैर्य करने और सुख के समय कभी न इतराने के उपदेश से आरंभ हुई थी। यह अवसर
भगवान श्रीराम के पदचिह्नों पर चलने के लिए संकल्प लेने का शुभ मुहूर्त है। दशहरे
का पर्व निरपराध लोगों को सतत रुलाने वाले रावण के अहंकार रूपी दस सिरों, और पौरूष
की दुरुपयोग बीस भुजाओं के विनाश का प्रतीक भी है। विजयदशमी का आरंभ आश्विन शुल्क
पक्ष के पहले नवरात्र से ही हो जाता है।
वहीं लोकहित
के लिए विष पीकर अपने कंठ को नीला कर लेने वाले भगवान शिव के रूप नीलकंठ के दशहरे
के पर्व पर दर्शन बहुत भी बहुत ही सौभाग्यपूर्ण माने जाते हैं। मान्यताओं के
अनुसार भगवान नीलकंठ दर्शनार्थियों को स्वस्थ, सुखी
और यथावत रहने का आशीर्वाद देते हैं। यही कारण है कि लोग सजधजकर स्वस्थ प्रसन्न मन
से उनका दर्शन करते हैं। साथ ही इस पर्व से पहले बरसात के कारण राजाओं की यात्राएं
और चातुर्मास के कारण सन्यासियों के आवागमन स्थगित होते हैं, लेकिन आश्विन मास के शुक्ल पक्ष के आते-आते मार्ग सुगम हो
जाते हैं। स्वच्छ अम्बर में पवन-संयोग के कारण मेघ बलाहक पक्षी की तरह उड़ने लगते
हैं। ऋतु सुहावनी हो जाती है। फसलें लहलहाने लगती हैं।
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