25 September 2013

अखबारों की सुर्खियों में दंगे का डमरू !

अखबारों में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ जिलों के हालात को बयां कर रही सुर्खियों का रंग वाकई लाल है। इंसानी खून में लिथड़ा—लिपटा, सड़ांध मारता। लाशें गिनी जा रही हैं, मुआवजे तय हो रहे हैं। नाकारा साबित हुए हाकिम—हुक्कामों को हटाया जा रहा है। केंद्र से और बंदोबस्ती मदद मांगी जा रही है। मुजफ्फरनगर, शामली, मेरठ और बागपत में बढ़ रही बारूदी घुटन से आसपास के जिलों के लोग दहशत में हैं। इन तमाम आपाधापियों के बीच इंसानियत एक कोने में हाथ बांधे खड़ी है, कई सवालों के साथ। 

सवाल, जिनका आज जवाब नहीं तलाशा गया तो वक्त का मुहर्रिर अपनी किताब में लिखेगा—पश्चिमी उत्तर प्रदेश में वो कौमें आपस में उलझ गईं, जो कभी घी—बूरे की तरह एक-दूसरे में घुली रहती थीं। जो सिर्फ काश्त करना जानती थीं। साथ ही प्यार और भाईचारे की फसल भी बोती—काटती थीं। इन दोनों कौमों को सियासत नहीं आती। इनकी राजनीति तो बस गन्ने और खाप—पंचायतों तक सीमित थी। खान—पान में भले ही परहेज हो, लेकिन शादी—ब्याह, सगाई और त्योहारों में एक-दूसरे को नोतना नहीं भूलते थे। मरनी—करनी साझा गम और मातम होता था। हक-हुकूक की लड़ाइयां मिलकर साथ लड़ीं। वक्त का मुहर्रिर सवालिया निशान के साथ यह भी लिखेगा कि शहर से भेजे गए नफरत के अंगारों को गांव वालों ने कैसे अपने इलाके में घुसने दिया।

पूरे देश में अब तक हुए हजारों दंगों का विश्लेषण किया जाए तो पता चलता है 90 फीसद दंगे शहरों में हुए और कई मामलों में उनके पीछे राजनीतक और आर्थिक कारण थे। 1992 में अयोध्या में विवादित ढांचा गिराए जाने के बाद पैदा हुए मजहबी जुनून की आंच जरूर गांव तक पहुंची थी, लेकिन ज्यादा मारकाट शहरों में ही हुई थी। लेकिन मुजफ्फरनगर,शामली, मेरठ और बागपत में गांव तक पहुंची नफरत की आंच ने साबित कर दिया है कि शहरों में वोटों के ध्रुवीकरण से काम नहीं चल रहा। गांवों में भी जुगाड़ फिट करने के तहत ही दंगे कराए गए।

इन दंगों ने सरकार और प्रभावित जिलों के प्रशासन को भी कठघरे में ला खड़ा किया है। क्या वजह है कि जब—जब उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार बनती है, दंगाई हथियार लेकर सडक़ों पर आ जाते हैं। वर्ष 2012 में प्रदेश में साम्प्रदायिक हिंसा के 104 मामले दर्ज किए गए थे। 100 से ज्यादा दंगों में 34 लोगों ने जान गंवाई और 456 बेकुसूर जख्मी हुए। खुद मुख्यमंत्री अखिलेश यादव मानते हैं कि पिछले साल प्रदेश में 27 दंगे हुए। मुख्यमंत्री पिछले और मौजूदा दंगों का दोष उन साम्प्रदायिक ताकतों के सिर मढ़ दिया, जो उनकी सरकार को कमजोर करना चाहती हैं।   

देखने में भले ही लगता हो कि दंगे एका—एक भडक़े हैं, लेकिन उनकी काफी सोच—विचार और साजिशों के बाद उनके लिए मैदान बनता है। कई सवाल हैं, जिनका जवाब राज्य की सरकार को देना होगा। 27 अगस्त को मुजफ्फरनगर के कवाल में छोटी सी वारदात के बाद एक युवक की हत्या और प्रतिक्रिया में दो लोगों के कत्ल की खबर क्या प्रशासन ने लखनऊ में बैठी सरकार तक नहीं पहुंचाई थी। क्या सरकार को तुरंत नहीं लगा था कि क्रिया—प्रतिक्रिया की ये जंजीर इतनी लंबी हो जाएगी कि गांवों को जकड़ लेगी। पुलिस और उसका खुफिया महकमा उस वक्त क्या कर रहा था, जब कुछ नेता जाटों और मुसलमानों को बहका रहे थे। पंचायतें और महापंचायतें होती रहीं।

 मारे और काटे जाने की अफवाहें बेधडक़ गश्त करती रहीं और प्रशासन किसी नादान बच्चे की तरह सब होता देखता रहा। सरकार ने क्यों नहीं फौरन बड़ी संख्या में फोर्स की तैनाती की। साम्प्रदायिक दंगों को लेकर केंद्र की तरफ से राज्यों के लिए जारी गाइड लाइंस में साफ लिखा है कि उपद्रव की स्थिति में राज्य तुरंत अधिकतम बल का इस्तेमाल करें। अभी हाल में उत्तर प्रदेश सरकार ने एक मामले में सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दायर कर सूचित किया है कि उसकी तीस फीसद पुलिस फोर्स नेता और अधिकारियों की सुरक्षा में तैनात है। उत्तर प्रदेश में चार पुलिस गार्ड लेकर चलना वैसे भी स्टेटस सिम्बल बन गया है। 

अब केंद्रीय गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे भी कह रहे हैं कि उन्होंने दंगों को लेकर अखिलेश सरकार को सचेत कर दिया था। उत्तर प्रदेश के राज्यपाल ने केंद्र को जो रिपोर्ट भेजी है, उसमें भी दंगों के लिए साफ तौर से शासन और प्रशासन की लापरवाही को रेखांकित किया गया है। प्रधानमंत्री ने फोन पर अखिलेश यादव से बात की तो उन्होंने स्थिति नियंत्रण में होने का भरोसा दिया। क्या केंद्र सरकार को इस मामले में प्रदेश सरकार को कड़ा नोट नहीं भेजना चाहिए था। यहां केंद्र सरकार की राजनीतिक मजबूरियां आ खड़ी हुई हैं। समर्थन की बैसाखी टूट जाने का डर है। 

मुजफ्फरनगर प्रशासन ने अमन कमेटियों को सक्रिय क्यों नहीं किया। मुजफ्फरनगर में मीनाक्षी चौक की पंचायत हो या फिर नंगला मंदोड़ में 36 बिरादरियों की महापंचायत, प्रशासन ने क्यों नहीं उन्हें रोका। अब भले ही रालोद, भाजपा और सपा के नेताओं को दंगाग्रस्त जिलों में जाने से रोका जा रहा हो और उनपर मुकदमे दर्ज हो रहे हों, लेकिन उस वक्त सम्प्रदाय के नाम पर इकट्ठा भीड़ में सियासी पार्टियों के नेताओं को क्यों जाने दिया गया। हिंदू और मुसलमानों के बीच सौहार्द की जो विरासत चौधरी चरण सिंह और महेंद्र सिंह टिकैत छोड़ गए थे, उनको क्यों मटियामेट होने दिया गया। इन दंगों को लेकर सियासत शुरू हो चुकी है। आरोपों के तीर छोड़े जा रहे हैं। अखिलेश सरकार को बर्खास्त करने की मांग की जा रही है, लेकिन चुनावी विज्ञापन पर करोड़ों खर्च करने वाले नेता और पार्टियों की तरफ से एक भी एेसा इश्तेहार देखने को नहीं मिला, जो दोनों समुदाय से संयम बरतने की अपील करता दिख रहा हो। 

दंगे सिर्फ जिस्मों पर जख्म नहीं देते। आत्मा को भी छलनी कर देते हैं। पिछले कई दिनों से पश्चिमी उत्तर प्रदेश में आर्थिक गतिविधियां ठप हैं। डरे-सहमे लोग कफ्र्यू हटने की प्रार्थना कर रहे हैं। बच्चों की दूध नहीं मिल रहा है। बीमार दवा के लिए तड़प रहे हैं। रोज कुआं खोदकर पानी पीने वाले परिवारों में भुखमरी की स्थिति है। ये हालात कब तक बने रहेंगे, कुछ नहीं पता। अपना ही लिखा एक पीस याद आ रहा है—काश हर मस्जिद की खिडक़ी मंदिर में खुलती। यह लेख पुणे में स्थित मंदिर और मस्जिद के अगल-बगल होने पर था, जिसमें मैंने मुजफ्फरनगर के कांधला में जामा मस्जिद और लक्ष्मी नारायण मंदिर जमीन के एक ही टुकड़े पर खड़े होने का जिक्र किया था। आज भी दोनों धर्मस्थल ‘मजहब के कारोबारियों’ को आईना दिखा रहे हैं। इस वक्त नफरत नहीं, बल्कि कांधला में मौजूद उस नजीर को याद करने का है, जो हमारी शानदार एकता और भाईचारे की प्रतीक है। आमतौर से मुसलमानों द्वारा पहनी जाने वाली गोल टोपी को लेकर खासा बवाल मचता रहा है।

 गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक समारोह में एक मोलवी द्वारा पेश की गई गोल टोपी को स्वीकार करने से इनकार करने पर मीडिया में काफी हंगामा मचा था। हाल में ही ईद के मौके पर फिल्म अभिनेता रजा मुराद की मौजूदगी में मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने ईद मिलन समारोह में गोल टोपी पहन ली तो उसे लेकर टीवी न्यूज चैनलों और सोशल नेटवर्किंग साइट् पर काफी हंगामा मचा था। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार साल भर में इफ्तार पार्टियों और अन्य कार्यक्रमों में गोल टोपी पहनकर दिखते रहते हैं। इस बीच, सोमवार को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव द्वारा हाजियों को मक्का रवाना करते समय गोल टोपी पहनने को लेकर भी सुगबुगाहट है। सवाल पूछा जा रहा है कि जब प्रदेश का एक हिस्सा दंगों में जल रहा है तो क्या जरूरी था इस तरह व्यवहार। क्या गोल टोपी पहनकर उन्होंने एक वर्ग को संदेश देने की कोशिश नहीं की है।

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