अपनी उपलब्धियों का बखान करने और योजनाओं का श्रेय लूटने के मकसद से अपने नेताओं की तस्वीरों वाले विज्ञापन देना सरकारों की पुरानी आदत हो चुकी है। अब गरीबों के लिए सस्ती दर पर अनाज या फिर स्वरोजगार के लिए कर्ज या स्कूली बच्चों को बस्ते, पुस्तकें, कपड़े आदि उपलब्ध कराने जैसी योजनाओं में भी प्रधान मंत्री, मुख्यमंत्री और मंत्रियों की तस्वीरें छापने के मौके तलाश जाने लगे है। दिल्ली सरकार की अन्नश्री और स्वरोजगार के लिए पांच लाख रुपए तक कर्ज मुहैया कराने वाली योजना के आवेदन पत्रों पर मुख्यमंत्री शीला दीक्षित और लोक निर्माण मंत्री राजकुमार चैहान की तस्वीरें इसका ताजा उदाहरण हैं। तो सवाल भी उठने लगा है कि इस तरह से सरकारी योजनाओं में नेताओं के फोटो छापना क्या उचीत है ?
भाजपा और दूसरी पार्टियों की सरकारों ने भी पहले प्रचार के ऐसे हथकंडे अपनाए हैं। अनाज की थैलियों, बच्चों के बस्तों, कर्ज के लिए आवेदन पत्रों और लैपटाॅप तकपे आज नेताओं की फोटो छपने लगी है। वोट बैंक की खांचे में अपने आप को फिट बैठाने के लिए इस दिखावे की होड़ में एक सवाल ये भी उठ रहा है कि क्या आज सत्ता में बैठे नेता योजनाओं को जरूरतमंदों का हक कि जगह खैरात समझने लगे हैं? क्या इस सामंती सोच पे रोक नहीं लगनी चाहिए? सरकारी योजनाओं के माध्यम से नेताओं और मंत्रियों को महिमामंडित करना क्या ये आम आदमी के पैसे का दुरुपयोग नहीं है?
ऐसे ही एक यूपीए सरकार की उपलब्धियों से जुड़े योजना का मामला गुजरात हाईकोर्ट पहुंच गया है। दाखिल कि गई जनहित याचिका में कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी के फोटो पर आपत्ति जताई गई है। बात सिर्फ सोनिया गांधी तक ही सीमित नहीं है। आज देश में हर वर्ष नेहरू-गांधी परिवार के चार सदस्यों के फोटों छापने पर जनता की गाढ़ी कमाई के 600 करोड़ रुपये खर्च किए जाते हैं।
देष भर में चलने वाले 6500 सरकारी योजनाओं में से पिछले 18 वर्ष में गांधी नेहरू परिवार के नाम पर 450 केंद्रीय और प्रांतीय परियोजनाए चल रही है। इन योजनाओं के बहाने नेताओं की फोटों छापने में सरकार अरबों रूपये पानी कि तरह बहा रही है। क्या ये लोकतंत्र है या फिर प्रचार तंत्र ये सवाल आज देश के हर वो आम आदमी पूछ रहा है जो दिन रात की अपनी मेहनत के बाद सरकारी खजाने को भरने में अपना सहयोग देता है। जिसे हमारे नेता आज गुलछर्रे उड़ा रहे है।
2012 से 2017 के बीच सरकारी योजनाओं पर केन्द्र सरकार 6 सौ करोड़ रूपये खर्च करने कि योजना रखी है, जिसमे से अब तक तीन सौ करोड़ रुपए पहले ही दो साल में खर्च हो चुका है। उधर सुप्रीम कोर्ट ने भी जनता के धन से सरकार की उपलब्धियों का प्रचार करने से केंद्र और राज्य सरकारों को रोकने के लिए दायर जनहित याचिका पर सुनवाई कर रहा है। साथ ही राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने भी लोकायुक्त कार्रवाई के सिफारिश पर दिल्ली सरकार के समाज कल्याण विभाग तथा सूचना एवं प्रसार निदेशालय को हिदायत दी है कि भविष्य में इस तरह की गलती नहीं दुहराई जाए। तो ऐसे में सवाल खड़ा होता है कि सरकारी योजनाओं में नेताओं की फोटों कितना सही है?
No comments:
Post a Comment