25 September 2013

क्या दूरदर्शन सिर्फ सरकारी भोपू बन गया है ?

दूरदर्शन जैसे सार्वजनिक प्रसारण इसके बावजूद इन दिनों दुविधा में दिखता है। उस पर भी प्रोफेशनल और कमर्शियल होने का दबाव है तो वह अपनी सार्वजनिक प्रसारक की भूमिका को बचाए और बनाए भी रखना चाहता है। वह तय करता नहीं दिख रहा है कि उसकी कमर्शियल भूमिका किस सीमा तक होनी चाहिए कि उसकी सार्वजनिक प्रसारक की छवि पर सवाल ना उठे। इसलिए वह कई बार एक कदम आगे तो दो कदम पीछे चलता दिखता है। उसे इस दुविधा से निकलना होगा। देश में जितनी तेजी से टेलीविजन चैनलों और एफएम रेडियो का विस्तार हुआ है, उतनी ही तेजी से इन पर प्रसारित किये जा रही सामग्री को लेकर सवाल भी उठ खड़े हुए हैं। बेशक बाजार में चमक-दमक भरी दुनिया वाले निजी चैनलों का दबदबा कायम है। क्षेत्रीय भाषाओं के साथ मिलकर कुल मिलाकर पांच सौ से ज्यादा टेलीविजन चैनलों की भारतीय दुनिया से सकारात्कम कंटेंट की विदाई या तो हो चुकी है या फिर प्रक्रिया में है। 

हालांकि एक धारा ऐसी भी है जो एक फिल्म की तर्ज पर अंग्रेजी में कंटेंट इज किंग यानी कंटेंट ही असल ताकत है का नारा बुलंद कर रही है। लेकिन जब बेतुके कंटेंट, बेतुकी समाचार कथाएं और बेतुके सोप ऑपेरा की दुनिया से खासतौर पर बौद्धिक वर्ग का पाला पड़ता है तो एक बार फिर सवाल उठने लगता है कि क्या भारत जैसे बहुवर्णी और संस्कृतिबहुल देश में ऐसे प्रसारक नहीं होने चाहिए, जो देसी संस्कृति का खयाल तो रखे ही, संपूर्ण भारतीयता की अवधारणा के साथ फिक्शन और समाचार दोनों तरह के कंटेंट पेश करें।

ऐसे में एक बार फिर सार्वजनिक प्रसारण पर ही जाकर हमारी निगाह टिकती है। सार्वजनिक प्रसारण यानी दूरदर्शन और आकाशवाणी। चूंकि यही वह दौर है, जिसमें जिंदगी की सारी इकाइयां उदारीकरण और पश्चिमी मानकों वाली आधुनिकता में रंगने के लिए सौंपी जा रही है। लिहाजा एक बहस यह भी है कि आखिर सरकार या सार्वजनिक पैसे का दुरूपयोग(?)  किया ही क्यों जाए। ये कुछ संदर्भ हैं, जिनकी वजह से यह सवाल उठ खड़ा होता है कि भारत में सार्वजनिक प्रसारण संगठनों की क्या भूमिका होनी चाहिए। क्या उसे भी बाजारी ताकतों की तरह अपने कंटेंट का स्तर गिराकर चटपटा बना लेना चाहिए या फिर उसे अपनी खासियत बनाए रखनी चाहिए। इन संदर्भों में हमें प्रसिद्ध समाजशास्त्री पूरन चंद्र जोशी की अध्यक्षता में 1982 में गठित समिति की रिपोर्ट पर गौर करना चाहिए।  पीसी जोशी कमेटी ने कहा था- टेलीविजन किसी भी देश का चेहरा होता है। अगर किसी देश का परिचय पाना है तो उसका टेलीविजन देखना चाहिए। वह राष्ट्र का व्यक्तित्व होता है। स्पष्ट है कि दूरदर्शन पर भारतीय संस्कृति का प्रतिनिधत्व करने वाले कार्यक्रम ही प्रसारित होना चाहिए, इस आशय की रिपोर्ट पीसी जोशी के नेतृत्व वाली कमेटी ने सरकार को सौंपी थी। 

पीसी जोशी कमेटी की रिपोर्ट ही थी कि दूरदर्शन पर बुनियाद, हमलोग जैसे सोप ऑपेरा की बुनियाद रखी गई और यह सिलसिला गणदेवता, मैला आंचल होते हुए रामायण, महाभारत, कृष्णा और चाणक्य तक पहुंचा। भारतीयता का चेहरा दिखाने वाला दूरदर्शन तब तक आगे रहा। लेकिन जैसे ही नरसिंह राव की सरकार के वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने उदारीकरण के दरवाजे खोले, दूरदर्शन पिछड़ने लगा। आर्थिक उदारवाद और सॉफ्टवेयर क्रांति के दौर में दूरदर्शन के पिछड़ने की प्रक्रिया सतत प्रवाहशील बनी रही। इसके बाद एक दौर ऐसा भी आया कि सेटेलाइट चैनलों के दौर में दूरदर्शन का नाम उपहास का पात्र भी बन गया। इस दौर में दूरदर्शन को उबारने की कोशिश हुई। जनता पार्टी की सरकार के दौरान बने बीजी बर्गीज कमिटी ने सार्वजनिक प्रसारण ट्रस्ट बनाने की सिफारिश की थी। जो न्यायपालिका जैसी स्वायत्त हो। लेकिन तत्कालीन सूचना और प्रसारण मंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने इसे नकार दिया था। उन्होंने कहा था – “ कमेटी ने न्यायपालिका की तरह एक समानांतर स्वायत्त संस्था बनाने की सिफारिश की है, जिस पर विधायिका का भी कोई नियंत्रण ना हो। लेकिन हम इसे स्वीकार नहीं कर सकते। बेशक बाद में संयुक्त मोर्चा की सरकार ने 1996 में प्रसार भारती का गठन तो कर दिया। लेकिन उसके बाद आई एनडीए की सरकार ने प्रसार भारती के बावजूद अपना सीमित नियंत्रण जारी रखा। 

इसे लेकर हो हल्ला भी मचा था। तब तत्कालीन सूचना और प्रसारण मंत्री प्रमोद महाजन ने कहा था कि सार्वजनिक पैसे से चलने वाले सार्वजनिक प्रसारण माध्यमों पर अगर सरकारी पक्ष नहीं रखे जाएंगे तो क्या रखे जाएंगे। 1978 में लालकृष्ण आडवाणी सार्वजनिक प्रसारण ट्रस्ट की अवधारणा को जिस अंदाज में खारिज कर रहे थे, वह शालीन था। लेकिन उसके अंदर भी निहित वही था, जिसे करीब बीस-इक्कीस साल बाद प्रमोद महाजन ने कहा।

सार्वजनिक प्रसारण तंत्र को लेकर हमारे सामने ब्रिटिश ब्रॉडकास्टिंग कारपोरेशन का मॉडल रखा जाता है। जिस पर सरकार का सीधा नियंत्रण नहीं है। उसे ब्रिटिश संसद नियंत्रित करती है। लेकिन यह नियंत्रण सिर्फ प्रशासनिक और आर्थिक ही होता है। कंटेंट के स्तर पर उस पर किसी का सिद्धांतत: किसी संस्था या सरकार का नियंत्रण नहीं है। 1989 में जब राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार बनी थी, तब के सूचना और प्रसारण मंत्री पी उपेंद्र के सामने बीबीसी की तर्ज पर ही भारतीय दूरदर्शन और आकाशवाणी को पेश करने और संगठित करने का सुझाव दिया गया था। राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार इसके लिए तैयार भी थी। लेकिन जब तक वह इसे लागू कर पाती, सरकार गिर गई और उसके बाद आई नरसिंह राव सरकार ने उदारीकरण की तरफ कदम बढ़ा दिए। 

बदले माहौल में सार्वजनिक प्रसारण की भूमिका क्या होनी चाहिए, इस पर बहस की गुंजाइश ही नहीं रही। तर्क तो यहां तक दिए जाने लगे कि जब राज्य अपने उद्योगों और फैक्ट्रियों का विनिवेशीकरण करके बाजार के हवाले कर रहा है तो निजी चैनलों के दौर में दूरदर्शन ही क्यों सरकारी नियंत्रण में रहे। लेकिन विरोधाभास देखिए कि जिस एनडीए सरकार ने विनिवेशीकरण की प्रक्रिया को तेज किया, उसी एनडीए सरकार के सूचना और प्रसारण मंत्री प्रमोद महाजन सार्वजनिक प्रसारण संस्थान को सरकारी कब्जे में ही बनाए रखने के हिमायती रहे। इसी से अंदाज लगाया जा सकता है कि प्रसारण और खासतौर पर सार्वजनिक प्रसारण की ताकत और बदलते दौर में क्या भूमिका हो सकती है।

निश्चित तौर पर जब उदारीकरण की बयार तेज हुई तो उस वक्त दूरदर्शन ने खुद को बाजार से मुकाबले के लिए तैयार नहीं किया। रही-सही कसर टैम के टीआरपी पैमाने ने पूरी कर दी। जिसके आगे दूरदर्शन निस्तेज दिखने लगा। हालांकि अपनी पहुंच और प्रसार की वजह से वह देश के करीब 96 फीसदी हिस्से तक अपनी पहुंच रखता है। गांवों के खेतों-खलिहानों से लेकर सुदूर उत्तरपूर्व की पहाडियों तक अपनी पहुंच और अपना नेटवर्क होने की वजह से वह निजी चैनलों की बाढ़ के बीच अनचीन्हा और अनजाना ही नहीं, निस्तेज दिखता रहा। निश्चित तौर पर इसके लिए बाजार की शक्तियां जिम्मेदार थीं। जिन्हें अपने सपनीले प्रोडक्ट बेचने में दूरदर्शन के जरिए मदद नहीं मिलनी थी। सार्वजनिक प्रसारण होने के नाते उसकी जिम्मेदारी भी ज्यादा बनती है। वह मिथ्या प्रचार और मिथ्या तथ्य पेश नहीं कर सकता। लेकिन इस पूरी कवायद में निजी चैनलों से भारत लगातार पिछड़ता चला गया और नव इंडिया अपने नए तेवर के साथ सपनीली दुनिया के साथ आगे बढ़ता रहा। निजी चैनलों को देखकर कोई कह सकता है कि भारत की आज भी करीब सत्रह करोड़ आबादी सत्रह रूपए से कम पर जीने के मजबूर है। 

निश्चित तौर पर कुल आबादी के हिसाब से देखें तो यह छोटा प्रतिशत है। लेकिन संख्या के लिहाज से देखें तो यह भयावह संख्या है। योजना आयोग के ही एक अर्थशास्त्री अर्जुन सेन गुप्ता की अध्यक्षता वाली समिति ने 2005 में एक रिपोर्ट दी थी। जिसके मुताबिक देश में 83 करोड़ 70 लाख लोग रोजाना बीस रूपए या उससे भी कम में जीने के लिए मजबूर थे। लेकिन निजी चैनलों की चमकीली दुनिया से भारत का यह स्याह पक्ष गायब था। निजी खबरिया चैनलों का नेटवर्क और प्रसार के साथ ही उदारीकरण की दुनिया की बादशाह उपभोक्ता कंपनियों को अपना बाजार सिर्फ उच्च मध्यवर्ग, दिल्ली, मुंबई और राज्यों की राजधानी तक के शहरों में ही दिखता है। लिहाजा निजी चैनलों और एफएम स्टेशनों के कार्यक्रम भी इसी वर्ग के दर्शकों को ध्यान में रखकर बनाए और पेश किए जा रहे हैं।

खबरिया चैनलों की हालत भी इसी तरह की है। बाजार पर कब्जे की ही दौड़ है कि कुएं में गिरा प्रिंस देश के निजी खबरिया चैनलों की बड़ी खबर बनता है। सांड गाजियाबाद के किसी घर की छत पर चढ़ जाता है तो वह राष्ट्रीय खबर बन जाता है। बिना ड्राइवर की कार, एलियन का गाय उठा ले जाना, राखी सावंत का चुंबन के साथ ही फिल्मों की रिलीज राष्ट्रीय खबरों में प्रमुख स्थान बनाती हैं। लेकिन चेरापूंजी में बारिश लगातार घट रही है, मानसून के बेहतर अनुमान के दौर में भी बिहार का एक हिस्सा, झारखंड और पूर्वी उत्तर प्रदेश में सूखे का अंदेशा राष्ट्रीय कौन कहे, कोने की खबर भी नहीं बन पाती। सुदूर केरल में क्या घटित हो रहा है या फिर उड़ीसा में लोग कैसे जी रहे हैं, जैसे तथ्यों पर राष्ट्रीय मीडिया होने का दावा करने वाले निजी चैनलों तक से ऐसी खबरें गायब हैं। ऐसे माहौल में सार्वजनिक प्रसारण संगठन से ही उम्मीदें बंधती हैं। बेशक उसे भी चलाने में भारी रकम लगती है। उसे संचालित करने के लिए बेहतर राजस्व चाहिए। लेकिन सार्वजनिक प्रसारण होने के चलते उसकी सीमाएं भी हैं। 

चूंकि बाजार के दबाव में दूरदर्शन इतना नहीं झुका कि उसकी राष्ट्रीयता की अवधारणा पर सवाल उठाया जा सके, लिहाजा उससे उम्मीदें बरकरार हैं और पीसी जोशी के शब्दों में कहें तो देश को समझने और देखने के लिए एक बार फिर दूरदर्शन पर निर्भरता बढ़ी है जिस सार्वजनिक प्रसारण माध्यम को हम मॉडल के तौर पर मानते-देखते आए हैं, उस बीबीसी पर बेशक सरकार और उसके किसी संस्थान या अंग का नियंत्रण नहीं है। लेकिन राष्ट्रीय हितों पर उठने वाली खबरों को लेकर उसे भी दबाव झेलना पड़ता है। याद कीजिए इराक हमले को लेकर हुए खुलासे का। इराक पर हमले का आधार तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश और ब्रिटिश प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर ने व्यापक जनसंहार वाले रासायनिक हथियारों को बनाया था। बाद में पता चला कि इराक के पास ऐसे कोई हथियार थे ही नहीं। इसका खुलासा का आरोप ब्रिटेन के एक वैज्ञानिक विलियम केली पर लगा।

 जिसे बीबीसी ने प्रसारित किया। बीबीसी पर इतना दबाव बढ़ा कि ये खबर प्रसारित करने वाले संवाददाता समेत बीबीसी के महानिदेशक तक को इस्तीफा देना पड़ा। इन अर्थों में देखें तो कोई सार्वजनिक प्रसारण पूरी तरह से स्वायत्त या पूरी तरह से नियंत्रण मुक्त नहीं हो सकता। दूरदर्शन शायद यह तथ्य समझता है। लेकिन राष्ट्रीय संपत्ति से संचालित होने के चलते राष्ट्रीय प्रतिबिंब बनना उसका पहला दायित्व होना चाहिए। राष्ट्र के स्पंदन पर भी उसकी नजर होनी चाहिए और राष्ट्र क्या बोल रहा है, उसके जरिए पता लगना चाहिए। पीसी जोशी कमेटी ने भी स्वायत्तता को बरकरार रखने की वकालत इन्हीं संदर्भों में की थी। क्योंकि अक्सर सत्ताधारी दल सार्वजनिक प्रसारण माध्यमों को अपना भोंपू बना लेते हैं। सार्वजनिक प्रसारक के संचालक अफसर भी चूंकि उसी नौकरशाही व्यवस्था से आए हुए होते हैं, लिहाजा वे सत्ताधारी दलों के सामने सरेंडर करने से नहीं हिचकते। 

निश्चित तौर पर तब राष्ट्र का प्रतिबिंब नहीं झलकता, तब राष्ट्र की बजाय एक अंग और एक छोटा सा हिस्सा ही बोलता नजर आता है। सूचना क्रांति के दौर में जब सूचनाएं कई स्रोतों से आ रही हैं, आम जनता के लिए यह पता लगाना आसान है कि क्या सच है और कितना एकांगी या सर्वांगी है। सार्वजनिक प्रसारक को यह चुनौती समझनी होगी। तभी जाकर वह सही मायने में राष्ट्र का प्रतिबिंब बन पाएगा।

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