27 September 2013

वह कश्मीर जो कांग्रेस का नहीं है !

राजनीतिक उठापटक और जीत हार की जद्दोजहद जब राष्ट्रीय हितों को प्रभावित करने लगे तो क्या कहना चाहिए? राष्ट्र संकट में है। कश्मीर के हवाले से अगर इसी दिशा में सोच विचार करें तो सचमुच राष्ट्र संकट में है। केन्द्र की कांग्रेस सरकार द्वारा बीते एक साल में दो ऐसी गंभीर और मूर्खतापूर्ण काम किये गये कि कश्मीर एक बार फिर संकट का कारण बनता जा रहा है। अफजल गुरू की फांसी और जनरल वीके सिंह के सीक्रेट फण्ड के खर्च का खुलासा। कांग्रेस की केन्द्र सरकार द्वारा उठाये गये ये दो ऐसे मूर्खतापूर्ण निर्णय हैं जो भाजपा को कमजोर करने के लिए लिये गये लेकिन इसका असर यह हुआ कि कश्मीर में भारत कमजोर हो गया।
 
दिल्ली में अफजल गुरू को फांसी भले ही राष्ट्रद्रोह के खिलाफ किसी आक्रमण को शिकस्त साबित की गई हो लेकिन हकीकत यह है कि अफजल गुरू की फांसी ने कश्मीर में फसादियों को नये सिरे से पैर पसारने का मौका दिया वह भी गुरू को गॉड का दर्जा देते हुए। अफजल गुरू के दफन होने के बाद भी उसके दोषी पर कई सवाल बरकरार हैं और हम भारत के लोग भले ही उन सवालों को भूल जाएं वे कश्मीर के लोग उन सवालों को अपने जेहन में कभी दफन नहीं होनें देंगे जिनकी राष्ट्रीयता की परिभाषा भारत के राष्ट्रवाद से बिल्कुल मेल नहीं खाती है। भारत की समूची संसद, सुप्रीम कोर्ट सारा का सारा प्रशासन किसी घटना को अंजाम देने के लिए जो चाहे वह कर सकती है क्योंकि सवाल उसके राष्ट्र की सुरक्षा का होता है लेकिन अगर उस राष्ट्र में कोई जम्मू कश्मीर जैसा राज्य भी शामिल होता है तो लमहों की खता सदियों की सजा बन जाती है।

अफजल गुरू की फांसी के साथ ही कश्मीर में आतंकवाद का जो उफान शुरू हुआ है वह धीरे धीरे तूफान में तब्दील होता जा रहा है। 9 फरवरी को अफजल गुरू को दिल्ली के तिहाड़ जेल में फांसी दी गई थी। उससे दो दिन पहले 7 फरवरी को अलगाववादी नेता सैयद अली शाह गिलानी ने मोहम्मद मकबूल भट की शहादत दिवस पर कश्मीरियों को एक साथ आने की अपील की थी। वही मकबूल भट जिसे 1984 में कुछ उसी तरह तिहाड़ जेल में फांसी दी गई थी जिस तरह से 2013 में अफजल गुरू को दी गई। मकबूल भट की मौत के बाद से ही कश्मीर में आतंकवाद का वह दौर शुरू हुआ जो कमोबेश 2000 तक जारी रहा। मकबूल भट ने भी राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह से दया मांगी थी और अफजल गुरू ने भी प्रणव मुखर्जी से दया मांगी थी। दोनों का एक ही तर्क था कि उनके मामले की निष्पक्ष जांच नहीं हुई है। अदालत में फेयर ट्रायल नहीं हुआ है लिहाजा उनके साथ रहम किया जाए।

दिल्ली में भले ही कांग्रेस और भाजपा कश्मीर के लिए राष्ट्रवादी आंसू बहाते हों लेकिन हकीकत यह है कि दोनों दल कश्मीर में एक दूसरे से उतनी ही अदावत रखते हैं जितना दिल्ली में। अच्छा होता कि कांग्रेस और भाजपा पहल करके कश्मीर में एक दूसरे से हाथ मिला लेते। अगर कश्मीर की खातिर जम्मू कश्मीर में कांग्रेस और भाजपा मिल जाएं तो कश्मीर समस्या के राजनीतिक समाधान की दिशा में यह मील पत्थर साबित होगा।
 
अभी 11 फरवरी को मकबूल भट के शहादत दिवस पर लोगों के इकट्ठा आने का मौका आता इससे पहले ही 9 फरवरी को दिल्ली की उसी तिहाड़ जेल में अफजल गुरू को फांसी दे दी गई जहां कभी मकबूल भट को दफन किया गया था। एक संप्रभु राष्ट्र के नागरिक होने के नाते अगर हम देंखे तो हमें गर्व होना चाहिए कि हमारी व्यवस्था ने एक आतंकवादी को उसके अंजाम तक पहुंचा दिया। लेकिन यह तो तब जब फैसला कोई आम नागरिक के हाथ हो। जो फैसला करनेवाले लोग थे कम से कम वे इतिहास भी जानते थे और वर्तमान भी। इसलिए उन्हें भविष्य का अंदाजा न रहा होगा इसका अंदाज लगाना मुश्किल है।

फांसी देने से अगर समस्या खत्म हो जाती है तो जरूर दे देनी चाहिए लेकिन फांसी देने से समस्या नये सिरे से शुरू हो जाती हो तो क्या करना चाहिए? भारतीय निति निर्धारकों के गलतियों की प्रयोगशाला बन चुके कश्मीर के लिहाज से देखें तो आतंकवाद को 'सख्ती से कुचल देने' की नीति पर अमल करते हुए अफजल गुरू को फांसी दी गई, क्योंकि उसने भारतीय लोकतंत्र के सबसे बड़े प्रतीक भारतीय संसद पर हमला किया था। लेकिन यह नहीं सोचा गया कि कश्मीर की जन संसद में इस फांसी की जो तीखी प्रतिक्रिया होगी उससे हमें ''क्या क्या और कैसे कैसे कुचलना पड़ेगा?''
 
भारत सरकार इस बात को जानती थी इसलिए अफजल गुरू को फांसी और कश्मीर में लंबे वक्त का सख्त कर्फ्यू एक साथ सामने आया। तात्कालिक तौर पर सरकार ने विरोध की आवाज को सख्ती से कुचल दिया और घाटी का गुस्सा घाटी में ही घुटकर रह गया। सर्दियों के बीतने के साथ ही परिस्थितियां सामान्य होती दिखाईं जरूर दी लेकिन अचानक से घाटी के भीतर आतंकी वारदातों का एक नया दौर शुरू हो गया। घुटा हुआ गुस्सा घुट घुट कर बाहर निकलने लगा। जाहिर है इसी मौके की ताड़ में वे अलगाववादी भी बैठे थे जिनकी राजनीति घाटी में हाशिये पर जा चुकी थी और वह पाकिस्तान भी जिसके लिए कश्मीर में अशांति का मतलब पाकिस्तान में शांति है। 

ऐसे में यह कहना तो थोड़ा मुश्किल है कि अफजल गुरू को फांसी न दी जाती तो क्या किया जाता लेकिन यह समझ पाना भी कम मुश्किल नहीं है कि अफजल गुरू की फांसी को हमने रणनीतिक या कूटनीतिक फैसला बनाने की बजाय भावनात्मक फैसला क्योंकर बना दिया? अफजल गुरू की फांसी घाटी में उस फांस की तरह दोबारा अटक गई जैसे मकबूल भट्ट की फांसी से कश्मीर भारत के गले में फांस की तरह फंस गया था। इसलिए अफजल गुरू की फांसी ने भाजपा के खिलाफ सिर्फ कांग्रेस को ही राजनीतिक संजीवनी नहीं मिली, कश्मीर घाटी में कमोबेश खत्म हो चुके आतंकवाद को पनपने का नया बहाना मिल चुका था। मार्च से लेकर सितंबर तक आतंकी घटनाओं में बेतहाशा वृद्धि हुई है और अर्धसैनिक बलों पर आतंकियों के ही नहीं स्थानीय लोगों के हमले भी तेजी से बढ़े हैं।

लेकिन दिल्ली की गद्दी पर दावा मजबूत करने और भाजपा के तथाकथित राष्ट्रवाद को शिकस्त देने के लिए कांग्रेस ने अकेले अफजल गुरू को फांसी देने की ही गलती नहीं की। कांग्रेस के कुशासन के लिए खतरा बनते जा रहे नरेन्द्र मोदी नामक उभार को कमजोर करने की हर संभव कोशिशों में एक कोशिश जनरल वीके सिंह को भी घुटने के बल बैठाने की हो रही है। सेनाध्यक्ष रहते हुए जनरल वी के सिंह की सरकार से अदावत जग जाहिर हो चुकी थी लेकिन सेना से रिटायर होने के बाद जनरल की जन सक्रियता कांग्रेस के लिए उससे भी बड़ा कांटा साबित हो रही है। इसलिए यह महज संयोग नहीं हो सकता है कि जनरल वी के सिंह अन्ना हजारे और नरेन्द्र मोदी के साथ मंचों पर नजर आते हैं और अचानक ही कांग्रेस को जनरल में भ्रष्टाचार के तत्व दिखाई देने लगते हैं।

रक्षा मंत्रालय की जिस जांच में जनरल वीके सिंह पर आठ करोड़ के हेराफेरी का दोषी बताया जा रहा है, कथित तौर पर वह पैसा उसी जम्मू कश्मीर में खर्च किया गया जो कमोबेश आज भी सेना की निगहबानी में भारत के पास है। जनरल का कथित भ्रष्टाचार और आठ करोड़ रूपया कोई इतनी बड़ी रकम नहीं थी कि उसका भंडाफोड़ करके ऐसा राजनीतिक खामियाजा भुगता जाता जैसा कि अब सामने आ रहा है।

अभी तक घाटी के अलगाववादी या फिर अलगावादी राजनीतिक दल ही घाटी के राजनीतिक समाधान की बात करते रहे हैं। अब वक्त आ गया है कि केन्द्र के दो बड़े दल भाजपा और कांग्रेस कश्मीर के राजनीतिक समाधान के लिए आपस में हाथ मिला लें और समूचे देश की राजनीति से अलग जम्मू कश्मीर में स्वतंत्र राजनीतिक विकल्प प्रस्तुत करें। शायद जम्मू कश्मीर के लिहाज से यह पहल कश्मीर में स्थाई राजनीतिक समाधान की दिशा में बहुत महत्वपूर्ण कदम साबित होगा।कांग्रेस के जिन रणनीतिकारों को जनरल को जमींदोज करने के लिए यह तुरूप का पत्ता चला है वे शायद दूर तक नहीं देख पाये कि इसका कश्मीर की जमीनी राजनीति पर क्या असर होगा। नेशनल कांफ्रेस हो या फिर पीडीपी दोनों ही अर्ध अलगाववादी राजनीतिक दलों की भारत में उतनी ही रुचि है जितनी भारत सरकार की पीओके की पोलिटिक्स में। 

नेशनल कांफ्रेस और पीडीपी की राजनीतिक मजबूरियां हैं कि उन्हें अलगाववादियों के बीच अपनी जगह भी बचाकर रखनी है और सरकार में रहने पर भारत सरकार का हिस्सा भी बनकर रहना है। इसलिए कांग्रेस सरकार के इस खुलासे का सबसे बड़ा फायदा वह नेशनल कांफ्रेस उठा रही है जो राज्य में कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार चला रही है। कांग्रेस को भी अंदाज नहीं था कि जनरल के पलटवार में जिस मंत्री गुलाम हसन मीर का नाम सामने आ जाएगा वह कांग्रेस के कोटे का मंत्री निकलेगा और जो कश्मीरी आवाम के बीच 'प्रो इंडिया पॉलिटिशियन' की छवि रखता है। नेशनल कांफ्रेस के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला के लिए कांग्रेस को दबोचने के लिए इससे सुनहरा मौका और क्या हो सकता था? और इस मौके का उपयोग करके उन्होंने कश्मीरी आवाम के बीच यह साबित करने की कोशिश शुरू कर दी है कि वे तो कश्मीर के साथ हैं लेकिन कांग्रेसी नेता सेना के हाथ कठपुतली बने हुए हैं।

साल 2013 में ये दो ऐसी बड़ी घटनाएं हैं जिसने कश्मीर में भारत की स्थिति को कमजोर किया है। सुरक्षा के लिहाज से भी राजनीतिक दृष्टिकोण से भी। अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने विषम परिस्थितियों में भी कश्मीर में अलगाववादियों और आतंकवादियों के बीच जो फर्क विकसित किया था, कांग्रेस की दिशाहीन राजनीति ने उस फर्क को खत्म कर दिया है। निश्चित तौर पर यह सब उनसे उसी भाजपा को जवाब देने के लिए किया है जो कश्मीर में अपने तरह के राष्ट्रवाद को थोपना चाहती है। इसलिए कांग्रेस कश्मीर में यह सब शायद इसलिए कर रही है क्योंकि उसकी प्राथमिकता दिल्ली है, कश्मीर नहीं। अगर कश्मीर को कुर्बान करके दिल्ली पर दावा बरकरार रखा जा सकता है, तो इसमें हर्ज क्या है? आखिर अब तक कांग्रेस ने ऐसी ही 'अनगिनत कुर्बानियों' की बदौलत दिल्ली पर अपना दावा बनाकर रखा है। 

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