बिहार
में पिछले कुछ समय से जिन साहित्यकारों का नाम हो रहा है, जो साहित्यकार चर्चा में रहे हैं,
उनमें मुन्ना शुक्ला, पप्पू यादव, आनन्द मोहन का नाम प्रमुख रूप से लिया
जा सकता है। अब जब इस तरह के महान साहित्यकारों की नई पौध
बिहार से निकल रही है तो बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन को अब आम साहित्यकारों के
भरोसे नहीं चलाया जा सकता। इसके लिए अजय कुमार सिंह जैसा कोई बाहुबली ही
ठीक रहेगा। नीतिश कुमार के इस फैसले की साहित्य जगत चाहे तो आलोचना
करे लेकिन इसमें उनकी दूर दृष्टि ही नजर आती है। इस दर्द को मुख्यमंत्री ने
ठीक-ठीक समझा, उसके
बाद ही अजय को यह जिम्मेवारी सौंपा।
वैसे भी अब राजनीति
से कुछ भी अछूता नहीं है। वर्ना ऑस्कर के लिए ‘लंचबॉक्स’ जैसी उम्दा फिल्म के मौजूद रहते,
नेशनल फिल्म डेवलपमेन्ट कॉरपोरेशन की गुजरात
पर केन्द्रित फिल्म गुड रोड्स क्यों भेजी जाती? जिसमें गुजरात का रोतू चेहरा है। यहां मंत्री
पद से लेकर बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन तक में जागरूक लोगों की जगह
मुस्तैद लठैतों को प्राथमिकता मिलने लगी है। यह लोग अधिक सुविधाजनक हैं
क्योंकि यह किसी तरह का सवाल नहीं उठाएंगे और उठाना भी होगा तो साहब के
लिए लाठी उठाएंगे, जो
साहेब के खिलाफ बोलेगा- उनेक सिर पर बजाएंगे।
नीतीश कुमार के लिए
साहित्य जगत में अजय कुमार सिंह से बेहतर आदमी कौन हो सकता है? पत्नी कविता नीतीश की पार्टी से विधायक
हैं और अब विधायक पति कदकुआं के साहित्य सम्मेलन में प्रवेश
कर चुके हैं। प्रवेश करते ही उन्होंने अपनी काबिलियत भी दिखा दी।
उन्नीस सितंबर को जब वे साहित्य सम्मेलन में 'पदभार' ग्रहण करने पहुंचे तो लठैतों, बंदूकधारियों को साथ लेते गये थे। हालांकि
चुनाव अभी भी नियत समय के अनुसार 5 और
6 अक्टूबर को होने हैं लेकिन अरुण
कुमार सिंह का दावा है कि प्रबंध समिति ने उनके नाम पर मोहर लगा दिया है लिहाजा अब निवर्तमान
अध्यक्ष अनिल सुलभ को वहां रहने का कोई हक नहीं है। अनिल सुलभ कहते हैं तो
कहते रहें कि यह बाहुबली की गुण्डागर्दी है लेकिन अरुण कुमार सिंह
ने बिहार के हिन्दी साहित्य की संस्था पर अपना दावा पूरा कर लिया है।
भले ही हिन्दी साहित्य में उनका स्वागत न हो लेकिन अब वे एक एकड़
क्षेत्र में फैले बिहार साहित्य भवन के नये मालिक हैं।
बाहुबली
अरुण कुमार सिंह जिस तरह से बिहार साहित्य सम्मेलन पर
कब्जा करने की कोशिश कर रहे हैं उसके बाद 1919 से कार्यरत यह साहित्य सम्मेलन ध्वस्त हो जाएगा, इसमें कोई दो राय
नहीं। बाहुबली ने खुद साहित्य सम्मेलन पहुंचकर
निवर्तमान अध्यक्ष का नेमप्लेट उखाड़कर फेंक दिया
है। अब माननीय बाहुबली साहित्यकार और माननीय मुख्यमंत्री को एक काम और करना
चाहिए। बिहार साहित्य सम्मेलन का नाम बदलकर बिहार बाहुबल सम्मेलन कर
देना चाहिए। साहित्य भी बच जाएगा और बाहुबली के शान में कोई गुस्ताखी भी नहीं
होगी।
हो सकता है बिहार का
अतीत हिन्दी साहित्य का गढ़ रहा हो लेकिन बिहार के हर हिस्से में अगर बाहुबल काल है तो
अकेले साहित्य इससे अछूता क्यों रहे? नेताजी भी यह बात जानने लगे हैं कि कलम तो घिस कर कोई भी कलम
घिस्सू हो सकता
है लेकिन लाठी चलाने का जिगरा किसी-किसी के पास होता है।भीड़ हांकने का काम वैसे भी कलम
घिसने वाले कहां कर सकते हैं और लोकतंत्र की रैलियों में पर्चे से अधिक भीड़ का महत्व होता है।
भीड़ इकट्ठा करने के लिए लाठीवाला ही चाहिए। फिर अरबों की संपत्ति पर कब्जे का सवाल
तो हमेशा प्रासंगिक रहता ही है जो किसी कलमघिस्सू के जरिए कब्जा नहीं किया
जा सकता। उसके लिए तो अरुण कुमार सिंह जैसे किसी काबिल बाहुबली की ही
जरूरत होती है।
मुख्यमंत्रीजी के लिए
वैसे भी सत्ता अब भैंस सरीखी हो गयी है, इसलिए वे लाठी को अधिक महत्व देने लगे हैं। सरकार
को तो पूरा देश लाठी से चला रहा है लेकिन साहित्य को लाठी से डुगराने का
काम बिहार के मुख्यमंत्री ने ही किया है। बिहार के मुख्यमंत्री के खुद की
ट्रेनिंग चाहे लाठी की ना हो लेकिन वे लाठी के महत्व को जानते खूब हैं।
पिछले दिनों बिहार के
मुजफ्फरपुर की बात है, छुटकन
मिश्रा और फायरिंग पासवान में इस बात पर बहस छीड़ गई कि दोनों में अच्छी कविता कौन
लिखता है? फैसला के लिए यादव
गैंग के पुराने सिपहसालार सफेदी पहलवान बुलाए गए। उनके 16 हत्या और ना जाने कितने दूसरे
इरादतन-गैर इरादतन अपराधों की कहानियां पुलिस फाइलों में दर्ज है। सबको एक साथ
इकट्ठा कर दिया जाए तो एक मोटा-छोटा उपन्यास ही बन जाए लेकिन इस महान
प्रतिभा सफेदी पहलवान की तरफ किसी साहित्यकार की नजर नहीं गई है अब तक। ना
ही मुख्यमंत्री ही इन्हें तलाश पाए। पहलवान की प्रतिभा को पहचाना,
दो कस्बाई झपटमारों ने।
पहलवान ने पहले मिश्रा की कविता 'कट्टा' सुनी। फिर फायरिंग की कविता 'तोप'। पहलवान का फैसला निष्पक्ष था, चूंकि कट्टे से तोप बड़ी होती है। उसकी मारक क्षमता भी अधिक है, इसलिए तोप, कट्टे के मुकाबले श्रेष्ठ कविता हुई। इस निर्णय के बाद छुटकन मिश्रा का हिन्दी साहित्य में जो कट्टा विमर्श चलाने का सपना था, वह धरासायी हुआ।
पहलवान ने पहले मिश्रा की कविता 'कट्टा' सुनी। फिर फायरिंग की कविता 'तोप'। पहलवान का फैसला निष्पक्ष था, चूंकि कट्टे से तोप बड़ी होती है। उसकी मारक क्षमता भी अधिक है, इसलिए तोप, कट्टे के मुकाबले श्रेष्ठ कविता हुई। इस निर्णय के बाद छुटकन मिश्रा का हिन्दी साहित्य में जो कट्टा विमर्श चलाने का सपना था, वह धरासायी हुआ।
वैसे बिहार सरकार के
नए फैसले के बाद, छुटकन
मिश्रा का सपना फिर से जी उठा है। एक बार हिन्दी साहित्य में
कट्टा विमर्श बिहार से ही शुरू हो, फिर कौन जाने कल को
दिल्ली के अकादमियों और संस्थानों पर भी सिंह, शुक्ला, यादव का कब्जा हो? फिर कट्टा विमर्श को हिन्दी साहित्य में
स्थापित होने में वक्त ही कितना लगना है?
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