जबसे
भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय नेतृत्व के क्षितिज पर नरेंद्र मोदी का उदय हुआ
है तबसे छद्म सेकुलरवादी धारा ने एक प्रचार शुरू किया है कि उनके
प्रधानमंत्री बनने पर देश की एकता और अक्षुण्णता को बरकरार रखना मुश्किल हो
जाएगा। छद्म सेकुलरवादियों का यह दुष्प्रचार इतना व्यापक है कि मीडिया
में प्रकट होने की क्षमता वाले बैठकबाज बुद्धिजीवी भी बड़े और जटिल
शब्दों का प्रयोगकर इस आशंका को बल देने का काम कर रहे हैं।
राहु-केतु से मुक्ति
की गारंटी नहीं
जुलाई से सितंबर के बीच संघ परिवार और भारतीय जनता पार्टी के भीतर भी जिस तरह का विचारमंथन चला उससे नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्रित्व की उम्मीदवारी का अमृत निश्चित तौर पर प्रकट हुआ। जब अमृत प्रकट होता है तो उसे चखने के लिए सुर-असुर युद्ध भी छिड़ता है। असुरों की पराजय सुनिश्चित भी मान लें तो राहु-केतु से मुक्ति की गारंटी कोई नहीं दे सकता। सुर-असुर द्वंद्व में सुरों के मन में लक्ष्मी, ऐरावत से लेकर भयंकर गरल तक के पान के पात्र को लेकर कोई संभ्रम नहीं था। समुद्र मंथन से अमृत का प्राकट्य तो हर किसी ने देखा, ऐरावत पर इंद्र ही सवार हों इस पर मुहूर्त से लेकर स्थान तक तमाम मतभेद रहे हैं। मतभेदों को मात देकर सर्वमत स्वपक्ष में कर सत्ता हासिल करना राजनीति का मान्य ध्येय है। इस ध्येय की सिद्धि जितनी आवश्यक है उतनी ही जटिल। इसलिए मई २०१४ में नवगठित संसद की लोकसभा में सत्तारूढ़ संसदीय दल का नेतृत्व किसे करना चाहिए का भाव साफ होकर भी कौन करेगा की आश्वस्ति न नरेंद्र मोदी- राजनाथ सिंह-लालकृष्ण आडवाणी दे सकते हैं, न राहुल गांधी- सोनिया गांधी- डॉ.मनमोहन सिंह की तिकड़ी। सवाल सिर्फ इतना है कि क्या नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने से देश विभाजन का शिकार हो सकता है?
विभाजन का दोषी कौन?
आज तक देश का एकमेव विभाजन १९४७ में जब हुआ तब उसका दोष किसी भी सांप्रदायिक संगठन पर नहीं फोड़ा जा सकता। जिस मुस्लिम लीग ने विभाजन की बांग दी उसका सारा का सारा नेतृत्व सलमान खुर्शीद, गुलाम नबी आजाद, फारुख अब्दुल्ला, मोहम्मद आजम खां, असदुद्दीन- अकबरुद्दीन ओवैसी, अबू हाशिम आजमी, अली अनवर, शाहनवाज हुसैन आदि वर्तमान मुस्लिम नेताओं से ज्यादा सेकुलर थे। अल्लामा इकबाल जो मोहम्मद अली जिन्ना की ‘पाकिस्तान की परिकल्पना’ के मान्य उस्ताद थे का शेर- ‘मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना!’ आज भी हिंदुस्तानी सेकुलरवाद का बोध वाक्य है। इकबाल ने मजहबी आधार पर ही मुसलमानों की अलग राष्ट्रीयता की प्रथम पैरवी की।
‘सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा!’
हम इकबाल की यह नज्म गाते रहे और
इकबालवादी पाकिस्तान बनाने की सफल बांग लगाते रहे। इस देश के
छद्म सेकुलरों का
संकट है कि वे सच को समझकर भी समझने को तैयार नहीं। फिर भगवा खेमे में भी सुधींद्र कुलकर्णी
जैसे उधार के सेकुलर मौजूद ही हैं। जो लालकृष्ण आडवाणी को अटल बिहारी वाजपेयी
से ज्यादा सेकुलर साबित करने के लिए मोहम्मद अली जिन्ना को भी सेकुलर होने
का प्रमाणपत्र दे आते हैं। सुधींद्र कुलकर्णी के ज्ञानचक्षु का लोहा तो
मानना ही पड़ेगा कि उन्होंने उन आडवाणीजी का राजनीतिक खयाल बदल दिया जो
जिन्नाकृत विभाजन की विभीषिका को झेल अपने वतन सिंध से निर्वासित होकर
दिल्ली आए थे।
वाजपेयीकाल में कोई
विभाजन नहीं हुआ
यदि किसी सेकुलर की सांप्रदायिकता इतनी विभाजनकारी हो तो उसके सांप्रदायिक होने की जरूरत भी क्या बचती है? दूसरी ओर विभाजन के जो जिम्मेदार थे पाकिस्तानियों की नजर में वे महात्मा गांधी, पं. जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभ भाई पटेल, राजेंद्र प्रसाद, मौलाना अबुल कलाम आजाद और रफी अहमद किदवई ये सब भी आज की सोनिया गांधी, डॉ. मनमोहन सिंह, मुलायम सिंह यादव, करुणानिधि, मायावती, नीतिश कुमार से ज्यादा सेकुलर थे। इसलिए यह कहना कि संघ की दक्षिणपंथी विचारधारा विभाजनकारी है ऐतिहासिक असत्य के अलावा कुछ नहीं। मई १९९६ में जब अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार बनी और सबको लगा कि गैर भाजपा की अस्थायी ही सही वैकल्पिक सरकार बन सकती है तो येर्रन नायडू, शरद यादव, राम विलास पासवान हर कोई कह रहा था कि वाजपेयी और उनका संघ परिवार सांप्रदायिक है।
तीसरे मोर्चे की डेढ़-दो साल सीताराम
केसरी की मेहरबानी से जो सरकार चली तो सबको लग गया कि कांग्रेस आती नहीं,
आती भी हो तो उसके समर्थन से स्थायी सत्ता सुख नहीं। १९९८
आते-आते मधु लिमये के उन सारे चेलों का रुख बदल गया जिन्होंने १९७९ में दोहरी सदस्यता के
मुद्दे पर अटल-आडवाणी को अपमानित किया था। संघ का नागपुर मुख्यालय ताउम्र
सेकुलर होने का डफ पीटने वालों को आदरणीय लगने लगा। वाजपेयी की ६ वर्षीय
सरकार में देश का कोई विभाजन नहीं हुआ।
इंदिरा-राजीव कालीन
दंगों को याद करो
जो २००२ के दंगों की याद करते हैं वे कृपया इंदिराकालीन बिहार के दंगे, मोरारजी कालीन गुजरात के दंगे, राजीव गांधी कालीन सिख दंगे और १९९२-९३ के राष्ट्रव्यापी दंगों को याद कर लें। असुविधा न हो तो १९८९-९० में कश्मीर से लाखों पंडितों का जैसा कत्लेआम हुआ और २ दशकों के हिंदू पीड़ितों की निर्वासन की जो व्यथा-कथा है उसे भी याद कर लें। उसका दोष किसे दें विश्वनाथ प्रताप सिंह को या फारुख अब्दुल्ला को? गुजरात के दंगे निश्चित तौर पर दुर्भाग्यपूर्ण थे। यह दुर्भाग्य शुरू होता है उस बाबरी आंदोलन से जिसका सिर-पैर ही बेतुका है। इस्लाम बुतपरस्त नहीं। इसलिए मक्का में सऊदी शासक उस मस्जिद को भी ढहाने में आगा-पीछा नहीं सोचते जिसमें खुद इस्लाम के प्रवर्तक पैगंबर मोहम्मद साहब ने नमाज अदा की थी। इसलिए बाबरी मस्जिद नामक बुत पर अड़ना इस्लाम के लिहाज से भी शरारत और कुफ्र के अलावा कुछ नहीं। अल्लामा इकबाल चाहे जितने पाकिस्तान परस्त रहे हों, पर उन्हें भी हिंदुओं के प्रभु रामचंद्र को इमामे हिंद मानने में कोई संकोच नहीं था। हिंदू घोषित बुत पूजक हैं इसलिए बुत शिकन औरंगजेब ने भी कुछ मंदिरों का ध्वंस कराने के अलावा हिंदू मंदिरों के संरक्षण के बदले में जजिया कर वसूला।
क्या बाबर कभी
अयोध्या गया था?
अयोध्या की पहचान राम के नाम पर है, बाबर कभी अयोध्या आया हो ऐसा कोई ऐतिहासिक साक्ष्य भी नहीं। सो बाबरी मस्जिद के नाम पर अड़ना और हिंदुओं के मन में अनर्गल आक्रामकता से अविश्वास पैदा करने का औचित्य क्या था? कुछ मुल्लों की शरारत थी यदि मौलाना आजाद और रफी अहमद किदवई जैसा नेतृत्व होता तो दो दिन में बाबरी को पैâजाबाद में लाकर राम-रहीम के अमर प्रेम की इबारत लिख ली जाती। पर जैसे आडवाणीजी के पास सुधींद्र कुलकर्णी जैसे जिन्नावादी जिन्न प्रकट कर गए वैसे ही राजीव गांधी, विश्वनाथ प्रताप सिंह, नरसिंहराव के पास तमाम इतिहास के वैमनस्य के बोध को कुरेदने वाले मनीषी थे। सो, सेकुलरवाद का जो बाबरवाद हुआ उसकी दूसरी कड़ी में रामशिलापूजन कर साबरमती लौटते कारसेवकों की ट्रेन का एक डिब्बा गोधरा के बाबरीवादियों ने फूंक दिया।
गुजराती का हिंसक
बनना विज्ञानसम्मत है
मुजफ्फरनगर में मोहम्मद आजम खां के पालक मंत्री होते और टोपी को अपना परमधर्म मानने वाले अखिलेश सिंह यादव के शासनकाल में भी २-४ मौतों ने दर्जनों का खून बहाने भर की वहशियत भर दी। उत्तर प्रदेश का समाज यदि मुलायम-अखिलेश-आजम और सैन्यबल से बेखौफ होकर प्रतिशोध पर आमादा हो जाता है तो दशकों से उबल रहा गुजराती का हिंसक बनना उचित भले न हो पर विज्ञानसम्मत तो है। जब गुजरात के २००२ के दंगे और सोमनाथ से अयोध्या के महारथी लालकृष्ण आडवाणी का गृहमंत्रालय का कार्यकाल देश के विभाजन का कोई कारण नहीं बन सका तो मोदी का राज्याभिषक विभाजन का बीज बो देगा यह एक राजनीतिक आरोप तो हो सकता है, राजनीतिक सच्चाई नहीं। जहां तक रही सांप्रदायिक संघर्ष की आशंका तो इसे भी काल्पनिक ही मानना चाहिए। हिंदुस्तान एक सांस्कृतिक-भौगोलिक-राजनीतिक-आर्थिक इकाई बन चुका है। इसमें क्षेत्रीय शक्तियों का उभार गुणात्मक वृद्धि करेगा विभाजन नहीं।
विभाजन के लिए उकसाता
है संयुक्त राष्ट्र
संयुक्त राष्ट्र की संरचना विभाजनकारी है। यह राष्ट्रों के विभाजन को उकसाती है। इसलिए संयुक्त राष्ट्र, विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष आदि से जुड़ी संस्थाओं-कॉरपोरेट और क्षेत्रीय संगठनों से जुड़े एनजीओ और विद्वान जिसे विभाजनकारी करार दें, समझना चाहिए कि वह व्यक्ति या संस्था न्यूनतम विभाजक है। जब १९४५ में संयुक्त राष्ट्र बना था तब उसमें ५० राष्ट्रों का समावेश था। ६८ साल बाद उसके सदस्य देशों की संख्या १९३ है। १४३ देश संयुक्त राष्ट्र की पैदाइश हैं। अगले दशक-दो दशक में इनकी संख्या कुछ और सैकड़ा बढ़ सकती है। यदि बहुराष्ट्रीय कंपनियों और वैश्विक अलंबरदारों ने अगले २० वर्षों में हिंदुस्तान के विभाजन को अपने लिए लाभदायक पाया तो बेशक इस देश को बांटने की एक और कोशिश होगी।
यदि इस
देश में लोकतंत्र को प्रबल करना है तो आधुनिक लोकतंत्र की मांग यही रहेगी
कि उसमें बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक दोनों ही पुराने बैरों को भुलाकर अपने
को राष्ट्रवादिता से जोड़ें और राष्ट्रवादियों की एक नई बिरादरी खड़ी कर
लें। इस बिरादरी में आवश्यक होगा कि वे एक-दूसरे की अलग पहचान, सिद्धांत, मान्यता का आदर करें। यह तभी संभव होगा जब अल्पसंख्यक
के मनोमस्तिष्क से असुरक्षा का भाव मिटाया जाए और बहुसंख्यक यह विश्वास कर सके कि
अल्पसंख्यक उसकी थाली का हक नहीं मार रहा।
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