लोकपाल बनाम अन्ना हजारे का मुद्दा एक बार फिर से गर्म है। एक ओर अन्ना सरकारी बिल पर सहमती जता रहे हैं तो वहीं दुसरी ओर उनके पूर्व सहयोगी अरबिंद केजरीवाल इसे कमजोर बिल बता रहे हैं। इधर सरकार भी बीते साल की तरह सराज्यसभा में लोकपाल बिल पेश कर दिया है। साथ ही विपक्ष भी सरकार के सुर में सुर में मिलाते हुए नजर आ रहा है। ऐसे में सवाल उठना लाजमी है कि क्या अन्ना, सरकार और विपक्ष में कोई सांठ गांठ हो गया है? या फिर अन्ना हजारे केजरीवाल की राजनीति से लोकपाल को दूर रखना चाहते है? आज के इस बदलते राजनीतिक दौर में अब ये सवाल आम हो चला है। अन्ना ने अपने रुख में नरमी दिखाते हुए कहा कि वह राज्यसभा में पेश किए गए संशोधित बिल से खुश हैं। बिल में बाद में संशोधनों के जरिए सुधार लाया जा सकता है। अन्ना ने बिल के प्रावधानों को उचित ठहराते हुए कहा कि इस मौजूदा बिल के अनुसार प्रधानमंत्री भी लोकपाल के दायरे में होंगे। लोकपाल के दायरे में सीबीआई और सीवीसी को भी रखा गया है। सीबीआई लोकपाल के पूरे नियंत्रण में रहेगी। बिल से उनकी बहुत सी मांगें पूरी हो रही है।
अन्ना हजारे की इस सकरात्मक रूख को देखते हुए राहुल गांधी भी अपनी हिस्सेदारी दिखानी शुरू कर दिए हैं। राहुल गांधी ने लोकपाल को हर हाल में पास कराने की बात कही है। कलतक अन्ना आंदोलन को नाटक बताने वाले राहुल गांधी अब खुद ही राजनीतिक दलों से इसे पास कराने को लेकर अपील कर रहे हैं। इन सभी राजनीतिक उठापटक के बिच अरबिंद केजरीवाल राजनीतिक रोड़े अटकाना शुरू कर दिए हैं। आम आदमी पार्टी कि ओर से ये कहते हुए मौजूदा लोकपाल बिल को खारिज कर दिया कि इसमें अन्ना की तीन शर्ते शामिल नहीं हैं। ऐसे में सवाल केजरीवाल के इस रूख को लकर भी खड़ा होता है कि क्या आम आदमी पार्टी अन्ना के मांगों को मौजूदा सरकारी लोकपाल में षामिल नहीं होने का दावा कर, अन्ना आंदोलन के आसरे राजनीति करना चाहती है।
कल तक सरकारी बिल को बकवास बताने वाले अन्ना हजारे आज खुद संसद में विपक्ष समेत सभी दलों से मिलकर इस बिल को पारित करने का आग्रह कर रहे हैं। लोकपाल बिल पर सरकार का फिर से हृदय परिवर्तन होना और अन्ना हजारे को इसपर सहमती जताना कई चैकाने सवाल खड़े कर रहे हैं। मौजूदा सरकारी लोकपाल सरकार के कंट्रोल में ही रहेगा, स्वतंत्र संस्था की दर्जा भी नहीं होगा और नाही कोई प्रशासनिक अधिकार होगा। लोकपाल की नियुक्ति का अधिकार सरकार के पास होगा जिससे भ्रष्टाचार पर पुरी तरह से अंकुश नहीं लग सकेगा। नीचले स्तर के अधिकारी लोकपाल के दायरे से बाहर रहेंगे। जबकी आम आदमी सबसे जयादा नीचले स्तर की भ्रष्टाचार से ही प्रभावित है। ऐसे में अन्ना हजारे की इस रूख से सवाल खड़ा होता है कि सरकारी लोकपाल पर अन्ना की सहमती कितना सही ?
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