ये पिछले साल अक्तूबर-नवम्बर की बात है।
अयोध्या के अंधेरी रातों में सर्दी पर्याप्त थी। मैं फैजाबाद के स्टेशन पर
देर रात उतरा था। उस वक्त फैजाबाद के कई ग्रामीण इलाक़ों में सांप्रदायिक
हिंसा के कारण कर्फ्यू लगा हुआ था, पता चला कि शहर भी मेरे पहुँचने से पहले
तक कर्फ़्यूग्रस्त था। बहरहाल, सुबह मैं स्टेशन से सटे जिस मकान में रुका
था वहाँ की छत पर चढ़ गया और दूर तक क्षितिज निहारने लगा। मेरा क्षितिज
ताकना अनायास नहीं था। दरअसल अयोध्या और बाबरी ध्वंस के संदर्भ में
किस्से-कहानियों व दंतकथाओं से आगे बढ़कर मैं जिस हिन्दी पुस्तक को पढ़कर
अयोध्या और उसके आंदोलन से रूबरू हुआ था, उसके लेखक ने किताब के शुरुआती
पन्नों में कहा था कि यहाँ के साफ मौसम में हिमालय की बर्फ़ीली चोटियाँ देखी
जा सकती हैं।
उस बड़े लेखक ने खुद को अवध का मूल निवासी बताते हुए “अयोध्या के
संदर्भ में विभिन्न विषयों पर दूसरे क्षेत्रों (शेष भारत ) के लेखकों के
अधिकांश लेखन को तथ्यहीन करार दिया। हालांकि पुस्तक के प्रकाशित हुए बहुत
साल नहीं हुए लेकिन उक्त लेखक का बचाव करते हुए मैं सिर्फ इतना ही कहूँगा
कि वैश्वीकरण से बढ़े प्रदूषण के कारण मैं, फैजाबाद की सरजमीं से हिमालय की
बर्फ़ीली चोटियाँ देखने से महरूम रह गया। सुबह बीतने के साथ अयोध्या को लेकर
मेरा यह भ्रम बुरी तरह टूट चुका था। आपको लग रहा होगा कि मैं अपने
गैरइरादे अनुभव का जिक्र क्यों कर रहा हूं। दरअसल अयोध्या में जो है और
अयोध्या में जो नहीं है उसका अयोध्या से जुड़े भ्रमों से जबर्दस्त साबका है,
जिसके लिए मैंने अयोध्या से जुड़े एक मामूली उदाहरण का सहारा लिया।
दुर्भाग्य ही है कि जो अयोध्या की असलियत नहीं है, उसे ही तमाम व्यक्ति,
संगठनों ने अपने अतिरेकी सिद्धांतों के लेखन, प्रचार-प्रसार से अयोध्या का
सच साबित करने का प्रयास किया। अगर धर्म के नाम पर दुकानदारी की गई तो
अयोध्या से जुड़े कई सामाजिक कार्यकर्ताओं, लेखकों ने भी सांप्रदायिक सद्भाव
के नाम पर अवैध कारोबार किया। लोगों ने पुरस्कार बटोरे, किताबें लिखीं और
अपने नकली चेहरों को चमकाया जबकि अयोध्या की जो हकीकत है वह हर बार शोर और
गुबार में दबी ही रह जाती है। अफसोसजनक है कि अयोध्या के इतिहास को
रथयात्रा और ध्वंस के इतिहास से ही जोड़कर देखा जाता है। उसके तमाम संदर्भ
जानबूझ कर नजरअंदाज कर दिए गए। अयोध्या के संदर्भ में स्थिति यह हो गई कि
किवदंतिए इतिहास का मौखिक वाचन, आज कुछ संगठनों और व्यक्तियों की बदौलत
दस्तावेज बन पड़े हैं। जो वाकई इतिहास का दस्तावेज था उसकी वस्तुनिष्ठता ही
संदिग्ध हो गई है। रथयात्रा काल से अयोध्या को लेकर जो इतिहास-भूगोल गढ़ा
गया उसकी संरचना का आधार और केंद्रबिन्दु केवल कुछ संगठनों और लोगों की
निजी महत्वाकांक्षाएँ भर हैं।
बहरहाल, विवादित अयोध्या की हकीकत को लेकर सवाल उठता है कि क्या इतिहास
के उन अध्यायों को एक बार फिर परखने की जरूरत नहीं है। अयोध्या से जुड़े
अनर्गल कारोबार से संवेदनशीलता और मानवीयता पर जो ख़तरा पड़ा उन्हें क्या ठीक
करने की जरूरत नहीं है ! 92 की अयोध्या को लेकर रिश्तों की विरासत पर जो
धूल जमीं है उन्हें साफ नहीं किया जा सकता क्या? आखिर 6 दिसंबर 1992 की
तारीख से मिले अंजाम और साबिके से पैदा हुए सवालात का जवाब क्यों न ढूँढा
जाए। इस दिन की एक दुर्घटना ने न सिर्फ भारतीय राजनीति और समाज बल्कि यूँ
कहें कि समूचे भारतीय उपमहाद्वीप की सामाजिक समरसता पर करारी चोट की तो गलत
नहीं होगा। इस तारीख के जख्म अभी भी हरे ही हैं। इस बीच अयोध्या विवाद के
कई पड़ाव गुजरने के बावजूद अभी और कई सुनवाइयाँ बाकी हैं जिन्हें साझी
विरासत वाली जनता की अदालत में दर्ज करना होगा।
आज बहुत कम लोग इतिहास की इस सचाई को मानने के लिए तैयार हों कि कभी यहाँ मंदिर-मस्जिद का विवाद ही नहीं था। यह उस दौर के दस्तावेज की कहानी है जब नवाब शुजाऊद्दौला पोषित अयोध्या की अपनी तहजीब थी। वह तहजीब, जिसे पूरी दुनिया गंगा-जमुनी तहजीब के तौर पर देखती है। 1756 के आस-पास जब नवाब साहब ने फैजाबाद को अपनी राजधानी बनाया तो हनुमानगढ़ी के निर्माण के लिए 57 एकड़ जमीन दान में दी थी। हनुमानगढ़ी के वास्तु और अभिलेखों में वह बात आज भी दर्ज दिखाई देती है, जीते-जागते दस्तावेज की तरह। हनुमानगढ़ी का निर्माण नवाब साहब की मौत के बाद आसिफ़ुद्दौला के दौर में पूरा हुआ। गढ़ी का संविधान फारसी में तैयार हुआ था। उस संविधान के कारण आज भी गढ़ी के सर्वोच्च पदाधिकारी को “गद्दीनशीन” कहकर पुकारा जाता है। अयोध्या के दर्जनों मंदिरों के निर्माण के इतिहास का दस्तावेजी साक्ष्य यही है कि यह अधिकांश मुस्लिमों द्वारा दान दी गई जमीन पर तैयार की गई। यहाँ तक कि बहुत बाद में वाजिद अली शाह के दौर में भी उनकी मदद से करीब 30 मंदिरों का निर्माण अयोध्या में हुआ। अयोध्या में हिन्दू निर्माणों का इतिहास दस्तावेज के रूप में अभी भी मौजूद है।
बाबर और अयोध्या : जो इतिहास के विद्यार्थी नहीं होंगे
या जिन्होंने इतिहास का व्यवस्थित अध्ययन नहीं किया है उनके लिए इतिहास
जानने का स्रोत श्रुति परंपरा रही है। श्रुति परंपरा के संदर्भ में दावा तो
नहीं किया जा सकता लेकिन आमतौर पर ऐसे इतिहासों में तोडमरोड़ की बहुलता
ज्यादा होती है। अगर किसी इतिहास न जानने वाले से सवाल किया जाए कि बाबर का
संबंध अयोध्या से क्या था, तो यह जवाब पाने गुंजाइश बहुत ज्यादा गुंजाइश
होगी कि “बाबर ने वहाँ मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाई”। यह बहुलतावाद के
प्रचारतंत्र द्वारा इतिहास की स्थापना का एक रूप है। लेकिन अगर जवाब देने
वाले उसी आदमी को यह बताया जाए कि बाबर ने अयोध्या के कई मंदिरों को भूमि
और प्रश्रय दिया तो बहुत कम लोग इसे मानने को तैयार होंगे। जबकि इसके
दस्तावेज उपलब्ध हैं। उल्लेखनीय है कि बाबर ने हनुमान गढ़ी से रामघाट तक
करीब 121 एकड़ जमीन अयोध्या के आचार्य छत्रस्वामी को दान दी थी। 1605 में
अकबर ने भी राम और सीता के मुद्रण वाले सोने के सिक्के चलवाये।
साझी विरासत साझी शहादत : दरअसल 90 के दशक में अयोध्या
के मंदिर आंदोलन की गुंजाइश ही नहीं होती। अगर इतिहास ने मौका दिया होता
तो शायद 1857 के आस-पास ही यह विवाद हमेशा के लिए हल हो गया होता। यह 57 के
गदर के दौर की बात है, जब साझी विरासत के यकीन से हल होने वाला मामला
अंग्रेजी हुकूमत की फितरत का शिकार हो गया। आप यकीन मानिए ये ठाकरे बंधुओं
की किवदन्ती से बढ़कर ज्यादा मार्मिक और ज्यादा उत्सर्ग वाली कहानी है। यह
हिन्दुस्तान के साझी विरासत और साझी शहादत की कहानी है। हिन्दू-मुस्लिम
पहचान से परे अयोध्या के उस दौर की कहानी, जब यहाँ के मठ-मंदिर
क्रांतिकारियों की शरणस्थली और रसद का प्रमुख केंद्र थे। उस दौर में
अंग्रेजों ने साझी संस्कृति को तोड़ने का बहुत प्रयास किया लेकिन वे कामयाब
नहीं हुए। हालांकि शायद तभी से मंदिर-मस्जिद के विवाद की सुगबुगाहट भी साझी
विरासत को तोड़ने के लिए शुरू हो गई थी। जब विवाद बड़े उद्देश्य और महान
विरासत के आड़े आने लगा तब फैजाबाद, हसनू कटरा मोहल्ले के अमीर अली, हनुमान
गढ़ी के पुजारी बाबा रामचरण दास और अयोध्या के अच्छन खाँ आगे आए। ये तीनों
बागियों के नेता भी थे और गदर में शामिल क्रांतिकारियों का नेतृत्व करते
थे। उस वक्त तीनों ने सूझ-बूझ से विवाद के निपटारे के लिए आम राय भी कायम
कर ली थी।
26 जून 1857 को फैजाबाद की बादशाही मस्जिद में हुई मुसलमानों की बड़ी सभा
में बाबरी मस्जिद को हिंदुओं को देने का ऐलान भी कर दिया गया था। लेकिन यह
क्रूर इतिहास को शायद मंजूर नहीं था। तब अंग्रेजों ने कूटनीति का सहारा
लेकर अयोध्या की साझी सांस्कृतिक विरासत को नष्ट करने के लिए हद दर्जे की
क्रूरता दिखाई। तीनों बागी नेताओं को पकड़ लिया गया और उन्हें खूब यातनाएँ
दी गई। क्रांतिकारियों के संदर्भ में तीनों ने अपनी जबान नहीं खोली। अच्छन
मियाँ के सिर को रेती से रेत दिया गया था जबकि अधिग्रहित परिसर में स्थित
कुबेर टीला की इमली पेड़ पर बाबा रामचरण दास और अमीर अली को खुलेआम फाँसी दी
गई थी। बागियों की शहादत के साथ विवाद का निपटारा वक्त की थपेड़ों को सहने
के लिए जिंदा बच गया। अंग्रेजी राज में रोक के बावजूद कुबेर टीला पर बरसों
शहीदों की याद में मेले लगते रहें। इससे आजिज़ अंग्रेजों ने बहुत बाद में 28
जनवरी 1935 को पेड़ कटवाकर शहादत के ऐतिहासिक मेले को समाप्त करवा दिया। 92
के बाद पनपी नफरत की सियासत के कारण साझी विरासत की उस महान परंपरा को याद
करने के लिए अब किसी के पास इतिहासबोध और समय नहीं है।
अयोध्या के जातीय राम : राम के जीवन गाथा की कई
कहानियाँ हैं। कई पर भारी भरकम शास्त्रीय विवाद भी। लेकिन अयोध्या में राम
सबके हैं और सब राम के। जानकर आश्चर्य होगा कि 92 से पहले तक न सिर्फ
अयोध्या बल्कि अवध के साथ दूसरे कई इलाक़ों में धार्मिक रूप से अलग, विभिन्न
समाजों के लोग एक-दूसरे का अभिवादन “जय सिया राम” के घोष से किया करते थे।
त्रिशूल के साथ पैदा हुई सियासत ने इसे “जय श्री राम” के जयघोष के रूप में
तब्दील कर दिया। जाहिर है अब गुलाम अली, रुस्तम और जल्ला जैसे अवधी लोग
मानसिक रूप से इस नए अभिवादन घोष को स्वीकार करने की स्थिति में नहीं हैं।
इतिहास की एक करवट ने सदियों की समरसता को कमजोर कर दिया। बावजूद अभी भी
फैजाबाद व अयोध्या में अलग-अलग जातियों के राम विराजमान हैं। अच्छी बात यह
है कि वे विवादित नहीं हैं। राम को अपनी बपौती मानने वाले लठैत संगठनों से
अलग अयोध्या में सभी जातियों के पंचायती श्रीराम जानकी मंदिर मौजूद हैं।
अयोध्या में जातीय मंदिरों की लंबी शृंखला है। जिसमें कोरी मंदिर,
विश्वकर्मा मंदिर, प्रजापति मंदिर, निषाद मंदिर, पासी मंदिर, मुराव मंदिर,
क्षत्रीय मंदिर, बरई मंदिर, हलवाई मंदिर, बेलदार मंदिर, यादव मंदिर, रविदास
मंदिर, खटिक मंदिर आदि जातीय मंदिर मौजूद हैं। अयोध्या जातियों के साथ
धर्मों की साझा संगम स्थली है।
विवादित जमीन और किसानों का पक्ष : ढाई दशक पहले
अयोध्या में जो विवाद खड़ा हुआ उसके कई दूसरे पक्ष भी हैं। खासकर रामकथा
पार्क का मामला बहुत ही दिलचस्प है। इस विवाद का जन्म 1988-89 से शुरू हुआ।
इसकी शुरुआत में रामकथा पार्क बनाने के लिए भूमि अर्जन अधिनियम 1884 के
तहत 59.93 एकड़ भूमि का अधिग्रहण था। इसमें शामिल 29 एकड़ कृषि योग्य जमीन
बेनामा (पूरी मालियत की) थी। इसमें 30 एकड़ जमीन नजूल विभाग की थी। जिसे
सरकार ने पट्टे पर दिया था। अधिग्रहित 30 एकड़ जमीन के लिए लोगों को मुआवजा
नहीं दिया गया। सरकार द्वारा निरस्त किए गए पट्टे के कारण कई भूमिहीन
हिन्दू और मुसलमान मुआवजे के दावेदार नहीं बन पाए। राज्य सरकार ने सिर्फ 15
रु. वर्गफ़ीट के हिसाब से केवल 29 एकड़ जमीन का मुआवजा दिया। सरकार ने एक
करोड़ सत्तानबे लाख इकत्तीस हजार आठ सौ तीन रुपये की मुआवजा रकम आदेश के साथ
पर्यटन विभाग फैजाबाद को दी। फैजाबाद के तत्कालीन जिलाधिकारी ने 16
प्रभावित किसानों को 15 रु. की जगह 2.40 पैसे प्रति वर्ग फीट के हिसाब
सिर्फ 80 फीसदी किसानों को से मुआवजा देने की गलत प्रक्रिया पूरी की।
किसानों ने मुआवजा ले लिया यह ऐतिहासिक तथ्य है लेकिन यह भी तथ्य है कि
मुआवजा आपत्ति के साथ लिया गया। फिर 20 मार्च 1992 के दिन राज्य की
तत्कालीन कल्याण सरकार ने रामकथा पार्क के लिए अधिग्रहित की गई 55.674 एकड़
जमीन को रामजन्म भूमि न्यास को सौंप दिया। जमीन 1 रु प्रति वर्ष की लीज पर
99 साल के लिए दी गई थी। हालांकि पर्यटन विभाग द्वारा लिया गया यह फैसला
न्यायालय पहुँच गया। जहाँ अवांछित लीज को निरस्त कर दिया गया।
6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद गिरा दी गई। अयोध्या सहित पूरे भारतीय
उपमहाद्वीप में सांप्रदायिक हिंसा हुए जो इतिहास का काला अध्याय हैं।
बहरहाल, 7 जनवरी 1993 को अयोध्या में “कतिपय क्षेत्र अधिनियम-93” के तहत
रामकथा पार्क और विवादित परिसर के आस-पास कुल मिलाकर 67 एकड़ जमीन, जिसमें
कई हिन्दू और मुसलमान शामिल थे, उनके रिहाइशी मकान, दुकान और कई मंदिर का
भी अधिग्रहण कर लिया गया जबकि मस्जिद को लेकर जिस भूमि का विवाद है उसका
रकबा केवल 2.77 एकड़ ही है। अधिग्रहण से प्रभावितों ने सर्वोच्च न्यायालय
में मामला दायर किया। उल्लेखनीय है कि न्यायालय ने संबंधित कानून की धारा
4(3) के तहत रामकथा पार्क के अधिग्रहण को असंवैधानिक घोषित कर दिया। अदालत
ने जमीन का स्वामित्व भी केंद्र सरकार की बजाए राज्य सरकार को सौंप दिया।
अदालत ने अपने आदेश में कहा कि रामकथा पार्क परियोजना के कारण प्रभावित
किसानों को उचित मुआवजा राज्य सरकार ही दे। क्योंकि 1993 में जब केंद्र
सरकार ने जमीन अधिग्रहित की तब रामकथा पार्क उत्तर प्रदेश सरकार के नाम
दर्ज थी। सियासत के कारण प्रभावित हुए किसान 24 सालों से अपनी किस्मत पर
आँसू बहा रहे हैं।
हालांकि अधिग्रहण के वक्त प्रभावितों को बहुत सब्जबाग दिखाए गए थे।
उन्हें मुआवजे के साथ ही सरकारी नौकरियां देने का आश्वासन दिया गया। लेकिन
हुआ क्या। रामकथा पार्क के नाम पर हुए अधिग्रहण पर कोर्ट की टिप्पणी के बाद
पार्क बनाने की परियोजना यहाँ की बजाए दूसरी जगह शिफ्ट कर दी गई। सरयू
किनारे स्थित नयाघाट पर रामकथा पार्क का निर्माण भी हो गया। 1999 में
तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के हाथों पार्क का उद्घाटन हुआ। दिलचस्प
है कि जब पार्क बनाने के लिए जमीन का इस्तेमाल नहीं किया गया तो कायदे से
जमीन को संबंधित प्रभावितों को लौटा दी जानी थी। संबंधित किसान ऐसी माँग भी
कर रहे हैं। पर ऐसा होता दिखाई नहीं देता। वस्तुस्थिति यह है अधिग्रहित
जमीन रामजन्म भूमि समिति और बाबरी मस्जिद कमेटी के बीच विवाद का प्रश्न बन
गई है। सुरक्षा और अयोध्या के विकास के नाम पर हर वर्ष करोड़ों रुपये का बजट
जारी होता है लेकिन सरकार के पास अधिग्रहण से भूमिहीन किसानों के लिए कोई
योजना नहीं है। सरकार के कोरे आश्वासन सरयू में डूब चुके हैं। विवाद के
दोनों पक्षकारों ने भी कभी अधिग्रहण से प्रभावित हुए लोगों का पक्ष जानना
मुनासिब नहीं समझा। प्रभावितों के सामने यक्ष प्रश्न है कि क्या उनके
जख्मों पर मरहम लग पाएगा और अधिग्रहण से प्रभावित हुए तमाम गरीब-गुरबे
हिन्दू-मुसलमानों का सुकून लौट पाएगा?
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