पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में करारी हार
के बाद एक बार फिर कांग्रेस पार्टी की संस्कृति पर सवाल उठने लगे हैं।
आलोचकों का मानना है कि इसके पीछे पार्टी के अंदर चरणवंदना संस्कृति
जिम्मेदार है। जब तक कांग्रेस इससे नहीं उबरेगी, तब तक जनता में उसकी छवि
सुधरने वाली नहीं है। कांग्रेस पार्टी अपनी संस्कृति सुधारने के लिए क्या
कदम उठाती है? इस पर देश भर की निगाहें टिकी हुई हैं। क्या कांग्रेस हार से
सबक लेकर अपना सुधार करेगी? या फिर चापलूस संस्कृति को जिंदा रखेगी?
हालिया विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की हार को राजनीतिक दलों से
लेकर राजनीतिक और सामाजिक विश्लेषक चाहे जिस तरह से परिभाषित कर रहे हों,
लेकिन इतना तो साफ है कि कांग्रेस को इस हाल तक पहुंचाने में चाटुकार और
दलाल टाइप के नेताओं की भूमिका सबसे ज्यादा रही है। यूपीए की सहयोगी पार्टी
एनसीपी के मुखिया शरद पवार ने जिस तरह बिना लाग-लपेट के कांग्रेस को
झोलाछाप नेताओं की मंडली कहा है, वह कांग्रेस को सचेत करने के लिए काफी है।
इसके साथ ही शरद पवार की यह बात उन सभी दलों के लिए भी सबक है, जो राजनीति
तो करते हैं, लेकिन जनता से कोसों दूर रहकर देश-दुनिया के बदलते मिजाज को
नहीं पहचान रहे हैं।
कांग्रेस में आज ऐसे चाटुकारों की भीड़ जमा है, जो खुद तो कहीं से चुनाव
नहीं जीत सकते, लेकिन दूसरों की सीट तय करते नजर आते हैं। कांग्रेस में ऐसे
दलालों और गांधी परिवार के प्रति झूठी आस्था दिखाने वाले लोगों की पूरी
फौज खड़ी है, जो खुद नहीं लड़ती, लेकिन दूसरों को लड़वाकर अपनी रोटी सेंकती
रही है। कांग्रेस की कार्यसमिति से लेकर तमाम कमेटियों की सूची को देख परख
लीजिए, तो एक दर्जन से ज्यादा ऐसे लोग नहीं मिलेंगे, जो जनता के बीच रहते
हों, देश की नई पीढ़ी से कोई मतलब रखते हों और जो गांव, समाज और देश की
समस्या से कोई सरोकार रखते हों। ऐसा ही हाल कांग्रेस की प्रदेश कमेटियों का
है। कांग्रेस के उन प्रभारियों का तो हाल देखिए, जो प्रदेश की राजनीति को
अपनी अंगुली पर नचाते फिरते हैं। इन नेताओं में अधिकतर वही लोग मिलेंगे, जो
कभी चुनाव जीतकर नहीं आए। केवल चाटुकारिता के दम पर कांग्रेस के ऑफिस में
विराजमान रहते हैं और टीवी से लेकर अखबारों में झूठे बयान देकर लोगों को
बरगलाते नजर आते हैं।
इस पूरे खेल में इन चाटुकारों की नीति होती है कि सोनिया और राहुल पर
कुछ न बोलें। ये तमाम बातें इसलिए कही जा रही हैं कि चार राज्यों में चुनाव
हारने के बाद कांग्रेस के भीतर इस बात पर मंथन हो रहा है कि क्यों न राज्य
के प्रभारियों से लेकर अध्यक्षों को पद से हटा दिया जाए? संभव है कि
कांग्रेस में ऐसा हो भी, लेकिन इससे भला क्या होगा? क्या जमीनी नेताओं को
तरजीह मिलेगी? क्या कांग्रेस के लोग आम जनता के बीच होंगे? क्या कांग्रेस
की नीतियां बदलेंगी? क्या कांग्रेस के हवाई नेता बाहर होंगे? क्या सोनिया
और राहुल की चरणवंदना बंद होगी? क्या कांग्रेस अमीरों की पार्टी से विमुख
होकर गरीबों और आमजनों की पार्टी बनेगी? कांग्रेस को इन तमाम बातों पर गौर
करना है और याद रखिए कांग्रेस ऐसा नहीं करती है, तो उसका मर्सिया भी जल्द
ही पढ़ दिया जाएगा।
हद तो यह देखिए कि हिंदी पट्टी के चार राज्यों में कांग्रेस के जमींदोज
हो जाने के बावजूद चाटुकार और दलाल नेताओं ने अब यह कहना शुरू कर दिया है
कि कांग्रेस जब-जब हारती है, तब-तब अगले चुनाव में प्रचंड बहुमत के साथ
सत्ता में आती है। चाटुकारों के इस बयान में दम भी है, लेकिन असली सवाल है
कि क्या देश की जनता का मूड और मिजाज अब वही है, जो पहले हुआ करती थी।
बदलते परिवेश, बदलती राजनीति और देश में नए जमाने के 40 करोड़ से ज्यादा
युवाओं को आजादी की लड़ाई में हिस्सा लेने वाली कांग्रेस जैसी पार्टी से अब
कोई लेना-देना नहीं रह गया है। इस युवा पीढ़ी को न तो देश की आजादी की लड़ाई
से कोई मतलब है और न ही वंशवादी राजनीति से कोई सरोकार। इस पीढ़ी में उस
जमींदारी प्रथा वाली राजनीति, एक ही परिवार के इर्द-गिर्द घूमती राजनीति,
जनता से विमुख होते नेता, जनता को बेचारी समझने वाले लोगों के प्रति
बेतहाशा आक्रोश है और इस पूरे खेल को वह पीढ़ी एक राजनीतिक गुलामी के तौर पर
देख रही है। आजाद देश में आजादी की दूसरी लड़ाई इंदिरा शासन के विरोध में
जब 1977 में संपूर्ण क्रांति के रूप में लड़ी गई, तब भी आज जैसे ही हालात
थे। 1947 में देश आजाद हुआ और उसके 30 साल बाद 1977 में कांग्रेस के कुशासन
और इंदिरा गांधी की जनविरोधी करतूतों से आजीज आ चुकी जनता ने सत्ता पलटने
में देर नहीं लगाई।
याद रखिए इंदिरा की सत्ता को भी इसी युवा वर्ग ने पलट दिया था। ये वही
युवा वर्ग था, जिसने आजादी की लड़ाई तो नहीं देखी थी, लेकिन आजादी के 30
सालों को या तो जिया था या फिर आजादी के बाद के सालों में जन्म लिया था।
इसी नई पीढ़ी ने सब कुछ बदलने का संकल्प लिया और बदल भी दिया। तब केवल
कांग्रेस के खिलाफ माहौल था और इंदिरा के विरुद्घ लहर। इस लहर में कांग्रेस
पराजित हो गई और इंदिरा की भारी हार हुई। अब 77 के आंदोलन के 36 साल बाद
फिर जनता के राडार पर कांग्रेस आ गई है। इसे आप केंद्र सरकार विरोधी लहर
कहें या फिर सोनिया विरोधी, लेकिन इतना तय है कि कांग्रेस विरोधी यह लहर
आगामी लोकसभा चुनाव तक चलती रहेगी। इसे कोई रोक नहीं सकता। एक बात और है कि
जनता का यह विरोध अब केवल कांग्रेस तक ही सीमित नहीं है। अब विरोध की धार
पर वह भाजपा भी है, जिसकी आयु अब 30 साल की हो गई है। तय मानिए, जिस तरह से
आजादी के 30 साल बाद 77 में कांग्रेसी सरकार को जनता ने उखाड़ फेंका था,
लगभग वही हाल अब भाजपा का भी होना तय है। राष्ट्रीय स्तर पर संभव है कि
आगामी चुनाव में कांग्रेस विरोधी लहर का फायदा भाजपा को मिलता दिखे, लेकिन
जिस तरह से ‘आप’ जैसी ताकतें देश के कोने- कोने से उभरेंगी। वंशवाद, लूट और
भ्रष्टाचार पर टिकी पार्टियां जनता का निवाला बनती रहेंगी। कांग्रेस के
भविष्य की राजनीति पर और भी बातें करेंगे, लेकिन यहां कुछ उन चाटुकारों की
चर्चा की ली जाए, जो कांग्रेस को रसातल में ले जाने के लिए बेताब हैं।
राजनीति करना और बयान देना दोनों अलग-अलग बातें हैं। राजनीति, रणनीति और
कूटनीति से की जाती है और बयान राजनीति का मात्र एक हथकंडा भर होता है।
बयान सच भी हो सकता है और राजनीति से प्रेरित भी। आप देश की राजनीति के
इतिहास में चले जाइए, तो पता चलेगा कि देश में सत्ता की राजनीति करने वाले
लोग कभी बयानों की राजनीति नहीं करते। बयानों की राजनीति असली राजनीति के
सामने ठहर भी नहीं पाती। बयानों की राजनीति असली राजनीति की साया भर होती
है और संभव है कि इसे समझना सबके बूते की बात भी नहीं हो। यह सवाल आज इसलिए
उठ रहा है कि पिछले दिनों कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता और सरकार के कानून
मंत्री सलमान खुर्शीद ने एक बयान सोनिया गांधी को देश की मां तक कह डाला।
हालांकि इस बयान में किसी की इज्जत नहीं उछाली गई है और न ही किसी का अपमान
ही किया गया है। संभव है कि खुर्शीद के इस बयान से देश की जनता का कोई
सरोकार न हो, लेकिन इस बयान ने खुर्शीद की चाटुकारिता को सामने ला दिया है।
इसी खुर्शीद ने कुछ महीने पहले अपने एक साक्षात्कार में कांग्रेस को
दिशाहीन कहने की गलती कर दी थी। इस बयान का कांग्रेस के अन्य चाटुकारों ने
विरोध किया और अंत में खुर्शीद को अपने कहे के लिए माफी तक मांगनी पड़ी थी।
लेकिन याद रखिए, कांग्रेस की चाटुकारिता करने वाले खुर्शीद कोई पहले आदमी
नहीं हैं। जब इंदिरा गांधी का राज था, तब भी कांग्रेस में चाटुकारों की बड़ी
फौज खड़ी थी। उस समय भी देवकांत बरुआ जैसे लोग थे, जो ‘इंदिरा इज इंडिया और
इंडिया इज इंदिरा’ कहकर चाटुकारिता करते फिर रहे थे और कांग्रेस रसातल की
ओर जा रही थी। आज फिर वही इंदिरा वाली संस्कृति सोनिया के सामने है। चार
राज्यों में कांग्रेस की हार को लेकर कांग्रेस के भीतर मंथन जारी है। लेकिन
मंथन फिर वही जड़विहीन लोग कर रहे हैं, जिनका जनसरोकार से कोई वास्ता नहीं
है।
सबसे ज्यादा चौंकाने वाली बात यह है कि इस नाकामी का श्रेय लेने को कोई
भी तैयार नहीं है, बल्कि सभी एक-दूसरे के माथे ठीकरा फोड़ने में लगे हैं।
जरा मणिशंकर अय्यर और सत्यव्रत चतुर्वेदी सरीखे नेता की बातों पर गौर
कीजिए। 2009 का लोकसभा चुनाव मणिशंकर अय्यर हार चुके हैं और अभी वे मनोनीत
कोटे से राज्यसभा के सदस्य हैं। रही बात सत्यव्रत चतुर्वेदी की, तो वे भी
मध्य-प्रदेश कोटे से राज्यसभा सदस्य ही हैं। कहने का तात्पर्य है कि दोनों
ही जनाधारविहीन नेता हैं। न तो ये अपनी सीट जीत सकते हैं और न ही पार्टी की
जीत में योगदान दे सकते हैं। कांग्रेस की विडंबना यही है कि सत्ता में दस
जनपथ के आस-पास ऐसे ही लोगों का वर्चस्व रहा है, जो बिना रीढ़ के नेता हैं।
जो जितना कमजोर और जड़विहीन, कांग्रेस के गलियारों में वह उतना ही मजबूत।
मिसाल के तौर पर अहमद पटेल को ही लिया जाए। अहमद भाई उसी गुजरात से आते
हैं, जहां के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी आज कांग्रेस के लिए सबसे बड़ी चुनौती
बन चुके हैं। सोनिया के राजनीतिक सलाहकार के गृह-प्रदेश गुजरात में
कांग्रेस काफी दयनीय हालात में है। चाणक्य कहे जाने वाले अहमद भाई अपने ही
राज्य में लगातार मात खाते जा रहे हैं। अहमद पटेल कांग्रेस की लगातार हार
के लिए अपने को दंड दे सकते हैं? जो अहमद पटेल आज तक लोकसभा से लेकर
विधानसभा का चुनाव नहीं लड़ सके, वह भला चुनाव की राजनीति कैसे कर सकते हैं?
और राजनीति करते भी हैं, तो अपनी राजनीतिक हार की जिम्मेदारी क्यों नहीं
लेते? इसी अहमद पटेल से एक और सवाल है कि क्या वे अपनी ही पार्टी के नेताओं
से मिल पाते हैं? कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष का राजनीतिक सचिव होने के
नाते उनका पहला काम तो यही था कि वे देश के राजनीतिक मिजाज को पहचानते और
सोनिया गांधी तक देश की असली तस्वीर रखते, लेकिन ऐसा उन्होंने नहीं किया।
उन्हें किस श्रेणी में रखा जाए?
उस दिग्विजय सिंह को क्या कहेंगे? अजीत जोगी को क्या कहेंगे? उस शकील
अहमद को आप किस श्रेणी में रखेंगे? उस गुरुदास कामत की राजनीति को आप क्या
कहेंगे? इन्हें नेता कहा जाए या फिर दलाल या चाटुकार? प्रदेश के तमाम
अध्यक्षों को आप क्या कहेंगे, जो अपने अपने प्रदेशों में कांग्रेस को जीत
दिलाने में असफल हैं। आज की हालत यह है कि इस देश में डंके की चोट पर दस
आदमी भी कांग्रेस के पक्ष में बोलने को तैयार नहीं हैं। कांग्रेस के नेताओं
से कार्यकर्ता की मुलाकात और बात नहीं होती। कार्यकर्ता से जनता की
मुलाकात और बात नहीं हो रही है। गौर करके देखिए, कांग्रेस में आज अधिकतर
नेता 60 से 70 बरस के हो गए हैं, जो वोट की राजनीति पुराने ढर्रे पर कर रहे
हैं, जबकि आज की पीढ़ी तमाम पुराने नेताओं से अलग सोच रख रही है। राहुल
गांधी युवाओं की राजनीति करने की बात तो करते हैं, लेकिन चुनाव के समय
इन्हीं बूढ़े नेताओं के खेल के सामने नतमस्तक हो जाते हैं ।
125 साल पुरानी इस पार्टी को पीवी नरसिम्हा राव सहित अगर मनमोहन सिंह ने कमजोर किया है, तो दस जनपथ का भी कम योगदान नहीं रहा है। दस जनपथ ने कभी एक मजबूत नेतृत्व आस-पास पनपने नहीं दिया। यदि किसी नेता का कद दस जनपथ से ज्यादा बढ़ा, तो उसके पर तुरंत कतर दिए जाते हैं। आंध्र प्रदेश जीता-जागता मिसाल है। आखिर जगनमोहन रेड्डी कांग्रेस के मुख्यमंत्री ही, तो बनना चाहते थे। आज उन्हें नकार कर कांग्रेस वहां बदतर हालात में पहुंच गई है। कहने की जरूरत नहीं कि दस जनपथ के इर्द-गिर्द आज चाटुकारों का जमावड़ा है। और जो लोग आज राहुल गांधी को नकार रहे हैं, उन्हें यह समझना होगा कि कभी स्वर्गीय इदिरा गांधी को भी लोहियावादियों ने ‘गूंगी गुड़िया’ की उपाधि दी थी। उसी गूंगी गुड़िया ने लोहिया समेत तमाम नेताओं की बोलती बंद कर दी थी।
125 साल पुरानी इस पार्टी को पीवी नरसिम्हा राव सहित अगर मनमोहन सिंह ने कमजोर किया है, तो दस जनपथ का भी कम योगदान नहीं रहा है। दस जनपथ ने कभी एक मजबूत नेतृत्व आस-पास पनपने नहीं दिया। यदि किसी नेता का कद दस जनपथ से ज्यादा बढ़ा, तो उसके पर तुरंत कतर दिए जाते हैं। आंध्र प्रदेश जीता-जागता मिसाल है। आखिर जगनमोहन रेड्डी कांग्रेस के मुख्यमंत्री ही, तो बनना चाहते थे। आज उन्हें नकार कर कांग्रेस वहां बदतर हालात में पहुंच गई है। कहने की जरूरत नहीं कि दस जनपथ के इर्द-गिर्द आज चाटुकारों का जमावड़ा है। और जो लोग आज राहुल गांधी को नकार रहे हैं, उन्हें यह समझना होगा कि कभी स्वर्गीय इदिरा गांधी को भी लोहियावादियों ने ‘गूंगी गुड़िया’ की उपाधि दी थी। उसी गूंगी गुड़िया ने लोहिया समेत तमाम नेताओं की बोलती बंद कर दी थी।
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