24 December 2013

गन्ना किसानों का दर्द !

उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी के गन्ना किसान सत्यपाल सिंह ने कुछ हजार रुपये के उधार के चलते आत्महत्या कर ली। गन्ना मिल के पास सत्यपाल का करीब 40 हजार रुपये बकाए थे, जो मिल ने नहीं चुकाए और उसने तंगहाली में आत्महत्या कर ली। इसके बाद मिलों के साथ हुए समझौते में केंद्र सरकार करीब 7200 करोड़ रुपये मिलों को दे रही है और वो भी बिना किसी ब्याज के और उत्तर प्रदेश सरकार ने भी 879 करोड़ रुपये की आर्थिक सहायता मिलों को दी है, लेकिन सत्यपाल के परिवार को बेहद गरीबी की हालत से निकालने के लिए 20 लाख रुपये देने की मांग पर अभी तक यूपी सरकार खामोश है। साफ है कि मिल मालिकों के हितों की रक्षा ज्यादा जरुरी है, किसान मरता है तो मरता रहे।

पर ऐसा नही कि सिर्फ उत्तर प्रदेश में किसानों के हितैषी होने का दम भरने वाली राज्य सरकार ही ऐसी है, बल्कि पूरे देश में किसानों, खासकर करीब साढ़े चार करोड़ गन्ना किसानों की हालत दयनीय है। अभी तक उत्तर प्रदेश में दो गन्ना किसान और कर्नाटक में एक किसान आत्महत्या कर चुकें हैं और दो किसानों ने आत्मदाह का प्रयास किया है। यूपी ही नहीं कर्नाटक और महाराष्ट्र का गन्ना किसान भी आंदोलित है।

कर्नाटक में राज्य सरकार नया कानून लाने जा रही है जिसके तहत किसानों को 14 दिनों में उनका पैसा मिल जाएगा। लेकिन वहां का किसान भी आंदोलन कर रहा है, क्यों? क्योंकि नए कर्नाटक गन्ना अधिनियम 2013 के तहत किसानों के गन्ने का मूल्य फैक्टरी या मिल की हालत के अनुसार मिलेगा। यानी अगर किसी मिल में मशीने पुरानी हैं तो उसकी उत्पादन लागत अधिक हो सकती है तो उसी हिसाब से किसानों को गन्ने की कीमत मिलेगी। कर्नाटक का गन्ना किसान आंदोलन इसलिए कर रहा है क्योंकि मिलें अपने खातों में घालमेल करके नुकसान दिखाने में माहिर होती हैं और इस कारण किसान को गन्ने के अच्छे दाम मिलेंगे इस पर शंका है। और रही बात 14 दिनों में गन्ने के भुगतान करने की तो ऐसा न कर पाने की सूरत में मिल मालिकों को सजा का प्रावधान था, जिसे सरकार ने हटा लिया है। अब पूरी आशंका है कि समय पर भुगतान नहीं होगा।

यहां एक और महत्वपूर्ण बात समझने की है कि अधिकतर राज्य सरकारें कांट्रैक्ट फार्मिंग यानी ठेके की खेती को किसानों की सभी समस्याओं का हल मानती हैं। और कई राज्यों में कांट्रैक्ट फार्मिंग शुरू भी की गई है। पंजाब जैसे राज्य में कांट्रैक्ट फार्मिंग के बुरे परिणाम सामने आने लगे हैं लेकिन देश में सबसे पुरानी कांट्रैक्ट फार्मिंग की व्यवस्था, गन्ना किसानों के साथ मिलों की है और उसके विफल होने से कांट्रैक्ट फार्मिंग की पूरी अवधारण पर ही बड़ा सवाल खड़ा हो गया है।

पूरे देश में ही देखें जहां-जहां गन्ना किसान है वहां- वहां कभी न्यूनतम समर्थन मूल्य को लेकर या अन्य मांगों को लेकर आंदोलन अभी भी थमा नहीं है। सरकार तो आम जनता की आवाज होती है। गरीब दबे-कुचले लोगों का सहारा होती है लेकिन सरकार का रुख तो उस मां कि तरह हो गया है जो अपने बच्चे को रुलाने वाले को ही दुलार रही है। देश में हर नीति कंपनियों, उद्योगपतियों को ध्यान में रखकर ही बन रही है। असल में केंद्र सरकार एक रोचक खेल खेल रही है, चार साल तक कारपोरट्स की सेवा करो और अंतिम साल कभी मनरेगा या कभी खाद्य सुरक्षा बिल का चारा थोड़ा गरीबों के आगे भी डाल दो। और मध्यम वर्ग तो अपने संघर्षों में ही उलझा है उसे इसी में उलझाए रखो, कभी गैस सिलेंडर के दाम बढ़ा दो, कभी डीजल की मार और महंगाई का रोना तो अब आउट आॅफ फैशन हो गया है।

लेकिन सोचने वाली बात है कि देश जिसे अन्नदाता कहता है, और अब तो टीवी पर भी सदी के महानायक हमें अन्नदाता से मिलवाते हैं, वो अन्नदाता आज गरीबी रेखा से नीचे जीने वालों में सबसे अधिक है। ऐसा क्यों है? क्यों गन्ना किसान जिसे कभी समृद्ध समझा जाता था आज आत्महत्या कर रहा है और उसका शोषण करने वाली शुगर मिलों के मालिक करोड़ोंपति से अब अरबपति बनने की ओर अग्रसर हैं। कई कारण हैं लेकिन सबसे बड़ा कारण है आधुनिक युग की ‘इकोनोमिक थ्योरी‘ यानी आर्थिक सिद्धांत। असल में कहा जाता है कि दुनिया की ‘इकोनोमिक थ्योरी‘ का आधार ‘ट्रिकल डाउन इफैक्ट‘ है यानी साहब लोगों का प्याला छलकेगा तो हम गरीबों को भी कुछ मिल जाएगा। लेकिन इन साहब लोगों का प्याला भरता ही नहीं तो छलकेगा कैसे। इस इकोनोमिक थ्योरी को लेकर दुनियाभर में सवाल उठने लगे हैं। जब आप अपनी नीतियां इस ‘ट्रिकल डाउन इफैक्ट‘ के आधार पर बनाते हैं तो फिर ये तो तय है कि आपकी हर नीति उस ‘ऊपर वाले‘ को ध्यान में रखकर बनेगी, जिसका प्याला भरने का हम बरसों से इंतजार कर रहे हैं और ऐसी नीति देश के गरीबों और किसानों का भला नहीं कर पाएगी। गन्ना किसानों के मामले में भी सरकार ने मिलों के बारे में ही सोचा।

उत्तर प्रदेश में क्या हुआ, गन्ने का पेराई सीजन 2013-14 शुरू हुए करीब दो महीने बीतने के बाद सरकार ने मिलों को तमाम रियायतें देने का वायदा किया और गन्ना किसान सत्यपाल सिंह की आत्महत्या के बाद चार दिसंबर के आसपास मिलें चालू की गईं। मिलों से कहा गया कि आपके नुकसान को देखते हुए गन्ने के दाम वहीं रहेंगे जो पिछले साल थे यानी 280 रुपये प्रति क्विंटल, जबकि सरकारी आंकड़ों के अनुसार गन्ना उत्पादन की लागत 251 रुपये प्रति क्विंटल हो गई है यानी लागत पिछले साल से 27 रुपये प्रति क्विंटल बढ़ गई है। लेकिन इसे भी मिलें एकमुश्त नहीं चुकाएंगी, बल्कि शुरूआत में भुगतान 260 रुपये प्रति क्विंटल के हिसाब से किया जाएगा और पेराई सीजन खत्म होने के बाद बाकी के 20 रुपये दिए जाएंगे।

गन्ना की फसल देर से काटने का प्रभाव भी गन्ना किसानों पर पड़ रहा है, उन्हे अगली फसल गेहूं के लिए खेत तैयार करने हैं इसलिए किसानों को मजबूरी में गन्ने को 110 से 140 रुपये प्रति क्विंटल के दामों पर कोल्हू में बेचना पड़ा। अगर राज्य सरकार भी समय पर एसएपी तय कर देती तो किसानों को कोल्हू वाले से ही 50 से 60 रुपये प्रति क्विंटल भाव अधिक मिल जाते, लेकिन किसानों के हित का दम भरने वाली समाजवादी पार्टी की सरकार ने ऐसा नहीं किया। राज्य सरकार और मिल मालिकों की मिलीभगत पर इसके बाद कोई शंका नहीं रह जाती।

लेकिन केंद्र सरकार इसमें किसानों की मदद कर सकती थी और उसके लिए 1978 के एक द सुगर अंडरटेकिंग एक्ट कानून का सहारा लिया जा सकता था। 1978 में बने इस अधिनियम के तहत किसानों की मदद के लिए और मिल मालिकों की मनमर्जी पर लगाम लगाने के लिए केंद्र सरकार प्रबंधन को अपने कब्जे में ले सकती हैं, हालांकि राज्य सरकार भी 1971 में बने अधिनियम एक्ट नंबर 23 के तहत मिलों के अधिग्रहण की प्रक्रिया चालू कर सकती है, लेकिन शायद ऐसी उम्मीद उत्तर प्रदेश की सरकार और केंद्र सरकार से करना बेमानी होगा।

मजेदार बात है कि मिल चालू न करने के पीछे सबसे बड़ी वजह मिलों को हो रहे आर्थिक नुकसान की बताई जा रही है। मिलों का कहना है कि चीनी का भाव पिछले साल के 35 रुपये प्रति किलोग्राम से घटकर 30 रुपये प्रति किलोग्राम रह गया है, इसलिए उन्हे लगभग तीन हजार करोड़ रुपये का घाटा हुआ है। लेकिन अगर गहराई में देखें तो मौजूदा स्थिति में भी चीनी मिलों को नुकसान नहीं हो रहा है। अगर चीनी का भाव चीनी मिलों को 30 रुपये किलोग्राम भी मिलता है तब भी एक क्विंटल गन्ने से मिलों को उत्तर प्रदेश में नौ किलोग्राम चीनी, खोई, शीरा और मैली प्राप्त होते है। यानी कुल मिलाकर आमदनी करीब 400 रुपये की होती है। इसमें मिलें 50 रुपये प्रति क्विंटल खर्च निकाल भी दें, तब भी 350 रुपये गन्ने का भाव किसानों को दिया जा सकता है।

एक और उदाहरण से मिलों का झूठ सामने आ जाता है, बजाज चीनी मिल और धामपुर चीनी मिल के पास उत्तर प्रदेश में करीब 28 मिलें हैं, उनकी बैलेंस शीट के अनुसार लाभांश देने के बावजूद उनके कैश रिजर्व में क्रमशः 4,000 करोड़ रुपये व 1,100 करोड़ रुपये हैं, और बजाज मिल ने करीब 1,735 करोड़ रुपये और धामपुर ने लगभग 300 करोड़ रुपये अपनी निजी कंपनियों को ऋण दिया है।  मिल मालिकों का तो यह हाल है कि उच्च न्यायालय के 4 जुलाई 2013 के आदेश के बावजूद पिछले सीजन का किसानों का बकाया करीब 2,300 करोड़ रुपये भी वे नहीं चुका रही हैं।


इन मिल मालिकों की मनमानी पर तुरंत लगाम लगाते हुए सरकार को सख्त कदम उठाने चाहिए थे लेकिन ऐसा हुआ नहीं और वो भी तमाम कानून होते हुए भी। मिलों के पास औसतन करीब 20 से 25 करोड़ रुपये तक बकाया है, अब सोचिए अगर सरकार कानून का लाभ लेकर करीब 500 करोड़ रुपये की मिल का अधिकरण करने की बात भी करती तो अगले दिन ही किसानों का बकाया भुगतान हो गया होता और पेराई चालू हो गई होती और सत्यपाल सिंह को जान न गंवानी पड़ती।

मिल मालिकों के हित की सरकारी सोच सी. रंगराजन कमेटी की रिपोर्ट में भी नजर आती है जिसमें रंगराजन का भी झुकाव मिलों की तरफ ही दिखा था जैसे लेवी चीनी का कोटा समाप्त करने की सिफारिश आदि। और मिल मालिक रंगराजन कमेटी के सुझावों को लागू करवाने के लिए किसानों की बांह मरोड़ रहें हैं और अपने हित में सरकार से फैसले भी करा रहे हैं। अगर देश में चीनी का भंडार, खपत से अधिक है तो इसमें किसान का क्या दोष? किसान ने इस बार गन्ना कम लगाया है, फिर भी चीनी का उत्पादन करीब 250 लाख टन होने की उम्मीद है जबकि देश में खपत करीब 220 लाख टन चीनी की है। यानी इस बार भी चीनी का स्टॉक अधिक रहेगा और किसानों की मुसीबत आने वाले समय में और बढ़ेगी।

असल में देश की किसी भी राजनीतिक पार्टी के केंद्र में किसान नहीं है। उत्तर प्रदेश के एक बड़े और तथाकथित किसान नेता ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर मिल मालिकों की परेशानियों से अवगत कराया था। पत्र में कहा गया था कि चीनी पर आयात शुल्क बढ़ाकर 40 से 60 फीसदी किया जाए, साथ ही चीनी मिलों को 4 से 5 वर्ष के लिए आसान शर्तों पर ऋण दिया जाए, जिसका ब्याज सरकार चुकाएगी। अब ऐसे किसान नेताओं के बारे में क्या कहना जो जमीनी हकीकत से कटे हुए हैं और मिल मालिकों के हितैषी है और साथ ही सरकार को गुमराह करके अपना उल्लू सीधा करते हैं। हालांकि सरकार ने भी उनकी थोड़ी बहुत सुनकर ‘बेचारे‘ मिल मालिकों को लाभ तो दे दिया लेकिन किसान का क्या?

साफ है कि, सभी राजनीतिक दलों की प्राथमिकता अब किसान नहीं हैं और किसान संगठन भी सिर्फ रस्म अदायगी ही कर रहे हैं। किसानों को अपनी लड़ाई अपने हाथों में लेनी होगी और गन्ना के विकल्प के बारे में भी सोचना होगा। हर साल गन्ना किसानों की यही दुर्दशा होती है और पता नहीं वे किस से आस लगाए बैठें रहते हैं। किसानों को पूरी तरह एकजुट होना होगा और नीतियों में बदलाव के लिए लंबा संघर्ष करना होगा और मौजूदा आर्थिक नीति को उलट देना होगा, अपने लिए देश के लिए !

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