चार विधानसभा चुनाव के परिणाम घोषित हो चुके
हैं। आम चुनाव से पहले जिन पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव की घोषणा की गई
उसे सत्ता के सेमीफाइनल का संघर्ष कहा गया था। हिन्दी पट्टी के चार
राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव वास्तव में सत्ता का सेमीफानल थे। इन
राज्यों के चुनाव नतीजों को आम चुनाव की आहट के रूप में देखा जा सकता है।
कांग्रेस और उसके समर्थक कोई भी तर्क दें लेकिन वास्तविकता यही है कि ये
चुनाव परिणाम देश में चल रही नरेन्द्र मोदी की लहर है। पांचों राज्यों में
चुनाव ऐसे वक्त में करवाये गये जब भाजपा ने नरेन्द्र मोदी को अपना
प्रधानमंत्री उम्मीदवार घोषित कर दिया था।
जिन चार विधानसभा चुनावों के परिणाम रविवार को घोषित किए गए
उनमें लोकसभा की कुल 72 सीटें हैं। बीते विधानसभा चुनावों में इन चारों
राज्यों में से दो राज्यों में कांग्रेस और दो में भारतीय जनता पार्टी को
सफलता हासिल हुई थी। राजस्थान और दिल्ली कांग्रेस के खाते में थी तो
मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ पर भाजपा का परचम लहराया था। इस बार नतीजा 4-0 का
है।
मोदी का फहराया परचम
भाजपा तीन राज्यों में स्पष्ट बहुमत पा चुकी है और एक राज्य में उसे सबसे बड़ी पार्टी का जनादेश प्राप्त हुआ है। जिस तरह से नरेंद्र मोदी के लिए इन विधानसभा चुनाव को आम चुनाव का सेमीफाइनल माना जा रहा था, उसी तरह कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी के लिए भी ये चुनाव महत्वपूर्ण थे। कांग्रेस के संगठन में उपाध्यक्ष पद पर पदोन्नत किए जाने के बाद राहुल गांधी अपरोक्ष रूप से भावी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार घोषित किए जा चुके हैं। भले ही चुनाव परिणामों के बाद सारे कांग्रेसी एक सुर में कह रहे हों कि राहुल गांधी के लिए ये चुनाव ‘लिटमस टेस्ट’ नहीं थे, किंतु जिस अंदाज में चुनाव अभियान चलाया गया, उससे जनता के बीच मुकाबला नरेंद्र मोदी बनाम राहुल गांधी का ही गया था। ऐसे में इन चुनाव में जीत-हार में राहुल गांधी के योगदान को नकारा नहीं जा सकता। नरेंद्र मोदी के योगदान को नकारने के लिए तमाम कांग्रेसी और उनके छद्म सेकुलर साथी कल सुबह से ही जुबानी जुगाली कर रहे हैं। इन चुनावों में बेहतरीन सफलता हासिल होने के चलते नरेंद्र मोदी के कोण से चुनाव परिणामों को न विश्लेषित करने की सीख देनेवाले यदि चुनाव परिणाम भाजपा के खिलाफ और कांग्रेस के पक्ष में चले गए होते तो ‘नरेंद्र मोदी के गुब्बारे की हवा निकल गई’, का प्रचार करने से जरा भी पीछे नहीं हटते। ये पहले चुनाव थे जब नरेंद्र मोदी को पूरे देश में भाजपा ने मुख्य प्रचारक के रूप में उतारा था।
विफल साबित हुए राहुल गांधी
शुरुआती दौर में कांग्रेस ने भी राहुल गांधी को अपने मुख्य प्रचारक की हैसियत से मैदान में उतारा। किन्तु जब चुनाव सभाओं में राहुल गांधी विफल साबित होने लगे तब कांग्रेस ने अपनी रणनीति में परिवर्तन किया था। इन चुनाव परिणामों का क्या संदेश? इसके राजनीतिक परिणाम क्या हो सकते हैं? हम वास्तविक स्थिति की ओर देखें तो जिन 72 लोकसभा सीटों के क्षेत्र में ये विधानसभा चुनाव संपन्न हुए उसमें भाजपा को हरसंभव लाभ हुआ। 2009 के लोकसभा चुनाव में इन 72 सीटों में से कांग्रेस के खाते में 40 सीटें थीं। विधानसभा चुनावों के परिणामों के आधार पर यदि लोकसभा के परिणामों को विश्लेषित किया जाए तो कांग्रेस को 32 सीटों का घाटा साफ दिखाई दे रहा है। यदि इसी तरह की वोटिंग हुई तो मई, 2014 में जब लोकसभा चुनाव के परिणाम आएंगे तो इन इलाकों से कांग्रेस के केवल 8 सांसद ही लोकसभा पहुंचेंगे। चूंकि इन चारों राज्यों में भाजपा और कांग्रेस के बीच अब तक सीधी टक्कर होती रही है और दिल्ली के अलावा शेष तीन राज्यों में आगामी आम चुनाव में भी भाजपा और कांग्रेस के बीच सीधा मुकाबला होना है। भाजपा के पास बीते लोकसभा चुनाव में इन इलाकों से कुल 26 सांसद थे। विधानसभा चुनाव में जिस तरह का मतदान हुआ है, उसके आधार पर भाजपा को 56 सीटों पर सफलता हासिल होगी। यानी सीधे तौर पर 30 सीटें भाजपा के खाते में जुड़ जाती हैं। भाजपा को पिछले लोकसभा चुनाव में 112 सीटों पर सफलता हासिल हुई थी। तब उनको सर्वाधिक सीटें कर्नाटक (19) से मिली थीं।
आंकड़े हैं भाजपा के साथ
कर्नाटक विधानसभा चुनाव के बाद कांग्रेसी यह तर्क दे रहे थे कि अब भाजपा सौ सीटों की सीमा को भी नहीं लांघ सकती। भाजपा और उससे अलग हुए येदियुरप्पा को मिले वोटों को यदि एक करके गिना जाए, तो भाजपा को 8 से 10 सीटों पर आज भी सफलता हासिल होगी। चूंकि येदियुरप्पा का भाजपा में आना लगभग तय हो चुका है, इसलिए इस तरह की गणना को गलत नहीं करार दिया जा सकता। यदि भाजपा नरेंद्र मोदी के प्रभाव के बावजूद कर्नाटक में नौ-दस सीटें खोती है तब भी इन 30 सीटों का फायदा भाजपा को 2004 के लोकसभा चुनाव में प्राप्त 138 सीटों के आंकड़े से आगे ले जाता है। पिछली बार कांग्रेस को 206 सीटों पर सफलता हासिल हुई थी। 206 में से यदि 32 सीटों का आंकड़ा घटा दिया जाए तो उनकी संख्या बचती है 164। पिछली बार कांग्रेस को सर्वाधिक सीटें हासिल हुर्इं थीं आंध्रप्रदेश (33) से। तेलंगाना अलग किए जाने के बाद और कांग्रेस से फूटकर वाईएसआर कांग्रेस के गठन से अब आंध्र से 33 सीटों का आंकड़ा 2014 के लिए तो दिवास्वप्न ही होगा। तेलंगाना से यदि कांग्रेस को चार-छह सीटें मिल भी जाती हैं तब भी कांग्रेस न्यूनतम दो दर्जन सीटों का घाटा उठाने जा रही है। यदि इन सीटों को घटा दिया जाए तो कांग्रेस का आंकड़ा 140 पर जा पहुंचता है। उत्तर प्रदेश में पिछली बार कांग्रेस को (21) लोकसभा सीटें जीतने में सफलता हासिल हुई थी। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव और ‘बीमारू’ राज्यों के चुनाव परिणामों से यह साफ दिखाई दे रहा है कि कांग्रेस उत्तर प्रदेश में इस बार एक दर्जन सीटें भी जीत ले तो हर राजनीतिक विश्लेषक को आश्चर्य होगा। यदि 12 सीटें भी कांग्रेस के खाते से घटा दी जाएं तो कांग्रेस की सीटों की संख्या हो जाती है 128। बीते चुनाव में कांग्रेस को सर्वाधिक सफलता मिली थी, बड़े शहरों से। मसलन, कांग्रेस और उसके गठबंधन के दलों को मुंबई और दिल्ली में शत-प्रतिशत सफलता हासिल हुई थी।
नरेंद्र मोदी की लहर
पिछली बार कांग्रेस की सीटों की संख्या में 60 सीटें मध्य वर्ग की डॉ. मनमोहन सिंह के अर्थतंत्र में समर्थन के चलते हासिल हुई थीं। दिल्ली में जिस तरह सात में से सातों सीटें कांग्रेस गंवाने के कगार पर है, क्योंकि जिस कांग्रेस को 2009 में जिस दिल्ली से सात सीटें हासिल हुई थीं उसी कांग्रेस को दिल्ली विधानसभा में केवल 8 सीटें मिली हैं। उत्तर प्रदेश में नरेंद्र मोदी की लहर दिखाई दे रही है। हर चुनाव सर्वेक्षण यह कह रहा है कि उत्तर प्रदेश में भाजपा को 30 से 40 सीटें हासिल होंगी। फिलहाल उत्तर प्रदेश से भाजपा के नौ सांसद हैं। यदि भाजपा के सीटों की संख्या में दो दर्जन का इजाफा होता है तो भाजपा सीधे तौर पर 1996 वाले 161 के आंकड़े को पार करती नजर आती है। इसी तरह महाराष्ट्र में चुनाव सर्वेक्षणों का आकलन है कि शिवसेना-भाजपा के गठबंधन को न्यूनतम 30 सीटों पर सफलता हासिल होगी। पिछली बार महाराष्ट्र में शिवसेना 11 और भाजपा को 9 सीटें मिली थीं। सीटों की संख्या में 10 का इजाफा और जोड़ दिया जाता है तो भाजपा पहुंच जाती है 170 सीटों पर। मध्य वर्ग में अब डॉ. मनमोहन सिंह की जगह नरेंद्र मोदी का जादू चलता दिखाई दे रहा है। इसलिए किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि यदि इसी ट्रेंड पर मतदान हुआ तो भाजपा अकेले के बूते 200 सीटों के आंकड़े को पार कर सकती है। इसलिए चारों विधानसभा चुनावों के परिणामों के बाद अब राजनीतिक लड़ाई का तेज होना स्वाभाविक है।
कांग्रेस है परेशान
कांग्रेसी संतोष कर रहे थे कि यदि शिवराज सिंह चौहान तीसरी बार चुनाव जीतेंगे तो वह नरेंद्र मोदी के लिए भाजपा में प्रतिद्वंद्वी के रूप में उभरेंगे। जिस तरह से चुनाव जीतते ही शिवराज सिंह चौहान ने अपनी जीत के लिए नरेंद्र मोदी को श्रेय दिया है, उससे उनकी यह अपेक्षा भी भंग होती नजर आ रही है। भाजपा के उत्साह में इजाफा स्वाभाविक है। सवाल पैदा होता है कि क्या कांग्रेस अब अपनी हार को इतनी आसानी से स्वीकार लेगी? कांग्रेस की हार के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार राहुल गांधी को माना जा रहा है। कोई बड़ा नेता कांग्रेसी परंपरा के चलते राहुल गांधी के खिलाफ बयान नहीं देगा। किन्तु कांग्रेस के शिखर नेतृत्व से लेकर गली के कार्यकर्ता तक अब राहुल के नेतृत्व की विफलता की चर्चा करने लगे हैं। क्या राहुल गांधी की जगह अब प्रियंका गांधी को पार्टी के अभियान में उतारा जाएगा? क्या सिर्फ राहुल की जगह प्रियंका गांधी को उतार देने से कांग्रेस की समस्याओं का समाधान हो जाएगा? दरअसल, कांग्रेस अब पूरे देश के नक्शे से साफ हुई नजर आ रही है। सारे बड़े राज्यों से कांग्रेस का सफाया हो चुका है। बड़े राज्यों के नाम पर उसका शासन सिर्फ कर्नाटक में है। महाराष्ट्र में उसके साझीदार राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के मुखिया शरद पवार के खिलाफ कांग्रेसी मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण और प्रदेशाध्यक्ष माणिकराव ठाकरे तेवर दिखाते रहे हैं। शरद पवार मौका देखकर चौका मारने के लिए मशहूर रहे हैं।
हार के सभी जिम्मेदार
शरद पवार भी अब कांग्रेस से जमकर सौदेबाजी करेंगे। इसके अलावा कांग्रेस के पास हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और हरियाणा जैसे राज्य हैं। इन तीनों राज्यों के बल पर दिल्ली का सपना देखना भी मुंगेरी लाल के हसीन सपने ही कहलाएगा। बिहार, उत्तर प्रदेश, उड़ीसा, प. बंगाल और पंजाब ऐसे राज्य हैं जहां पर अगले 150 दिनों में कांग्रेस की सियासी सेहत में सुधार लाना असंभव नजर आता है। कांग्रेस के रणनीतिकारों को लगता था कि खैराती अर्थतंत्र उनके लिए वोट बैंक का कारगर नुस्खा साबित होगा। राहुल गांधी नारे लगा रहे थे कि ‘आधी रोटी नहीं, बल्कि पूरी रोटी खाएंगे, कांग्रेस को जिताएंगे’ जनता ने उनके इस नारे को नकार कर ‘रोटी-भाजी खाएंगे, कांग्रेस को भगाएंगे’ का संकेत दे दिया है। ‘सांप्रदायिक दंगा विरोधी लक्षित हिंसा विधेयक’ को कांग्रेस मुस्लिम तुष्टीकरण के तौर पर पेश कर रही थी। मध्यप्रदेश, दिल्ली और राजस्थान में मुस्लिम वोट बैंक प्रभावशाली था। कांग्रेस के इस विधेयक के समर्थन में यदि मुसलमानों ने वोट किया होता तो कांग्रेस की ऐसी दुर्दशा नहीं होती। राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने चुनाव हारने के बाद जिस अंदाज में अपनी पराजय का ठीकरा केन्द्र सरकार की नीतियों पर फोड़ा वह कांग्रेस के नेताओं के भीतर चल रहे अंतद्र्वंद्व का साफ संकेत है।
अपनों ने किया कांग्रेस का बेड़ा गर्क
प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को अब तीसरे कार्यकाल के लिए पेश नहीं किया जा सकता। राहुल गांधी, डॉ. मनमोहन सिंह की जगह प्रधानमंत्री पद की योग्यता गंवा चुके हैं। प्रियंका गांधी पर उनके पति रॉबर्ट वड्रा के चलते घोटाले के छींटे हैं। सोनिया गांधी की चमक कभी चुनाव जिताने भर की नहीं रही। हर किसी विश्लेषक ने चारों राज्यों के चुनाव परिणामों के बाद एक ‘कॉमन फैक्टर’ गिनाया। कांग्रेस के बड़े 6 मंत्रियों की बदजुबानी। ये मंत्री हैं पी. चिदंबरम, कपिल सिब्बल, जयराम रमेश, मनीष तिवारी, सुशील कुमार शिंदे और राजीव शुक्ला। दिग्विजय सिंह जब भी जुबान खोलते हैं तो कांग्रेस के कुछ मतदाता उससे पल्ला झाड़ लेते हैं। कांग्रेस के प्रवक्ताओं में रेणुका चौधरी, मीम अफजल, राज बब्बर आदि की भी लगभग यही हालत है। इसलिए अब कांग्रेस के कैडर में नई चेतना के संचार की शक्ति तो किसी में दिखाई नहीं देती। किन्तु चुनाव में डेढ़ सौ दिनों का समय अच्छा-खासा माना जाता है। भारतीय जनता पार्टी को भी अब अपने पत्ते सोच-समझकर फेंकने होंगे। भाजपा में भी ‘सेल्फ साइड गोल’ करनेवालों की कोई कमी नहीं। कांग्रेस भले ही कह रही हो कि चारों राज्यों के चुनाव परिणामों में नमो फैक्टर का कोई लेना-देना नहीं, किन्तु उसे जैसे ही मौका मिलेगा वह नरेंद्र मोदी के चरित्र पर कीचड़ उछालने से बाज नहीं आएगी। ‘रागा बनाम नमो’ के पहले चक्र में रागा न केवल हारा है बल्कि मूच्र्छित हो गया है। किन्तु नमो को शक्तिहीन करने का सामथ्र्य अभी-भी कांग्रेस में बाकी है। कांग्रेस जब भी सीधे मुकाबले से पिछड़ती है वह तिकड़म का सहारा लेती है। कांग्रेस अपनी किसी तिकड़म में कामयाब न होने पाए यह भाजपा को सुनिश्चित करना होगा।
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