18 December 2013

अमेरिका बनाम सोवियत संघ आज और कल !

अमेरिका में भारतीय सह दूतावास अधिकारी देवयानी खोब्रागड़े के साथ न्यूयार्क पुलिस की बदतमीजी की खबर और उस पर भारत की कड़ी प्रतिक्रिया ऐसे वक्त में आ रही है जब भारत में ५ राज्यों के विधानसभा चुनावों के परिणाम आ चुके हैं। निश्चित रूप से केन्द्र की कांग्रेसनीत सरकार का सख्त रूख फौरी तौर पर राहत देनेवाला है लेकिन अमेरिका के सामने सिर्फ प्रतीकात्मक विरोध के जरिए भारत बहुत दूर तक और बहुत देर तक मजबूती के साथ खड़ा नहीं रह सकता। अमेरिका सिर्फ अपनी जमीन पर भारतीय राजनयिक को ही अपमानित नहीं करता है, उल्टे वह भारत के भीतर घुसकर भारतीय राजनीति को भी अपमानित कर रहा है। कहीं ऐसा तो नहीं है कि अमेरिका एक सोची समझी योजना के तहत भारत का एक और सोवियत संघ के रूप में तब्दील कर रहा है। भारतीय राजनीति में अमेरिकी घुसपैठ, मरियल मनमोहन की लंबी पारी, अरविन्द केजरीवाल का उभार, वर्तमान परिदृश्य और भारत की भावी राजनीति पर एक नज़र.

अमेरिकी कठपुतली हैं मनमोहन सिंह

भारतीय मीडिया द्वारा बुनियादी तौर पर भ्रष्ट और सत्तालोलुप अरविंद केजरीवाल की फर्जी यशोगाथा गाने में उसकी ठकुरसुहाती का मर्म है। बीते ५ वर्षों के कार्यकाल की अराजकता ने डॉ. मनमोहन सिंह को रूसी शासक बोरिस येल्तसिन का भारतीय संस्करण बना दिया है। येल्तसिन के बाद रूस की कमान यदि रूसी खुफिया संस्था केजीबी के प्रमुख रहे व्लादिमीर पुतिन ने नहीं संभाली होती तो रूस आज अमेरिका के सामने बांग्लादेश वाली मुद्रा में खड़ा होता। पुतिन ने रूस पर अपने फौलादी हाथों से सत्ता संचालित की। परिणाम है कि आज सीरिया और ईरान के मसले पर अमेरिका रूस के रवैए को स्वीकारने को मजबूर है। जबकि येल्तसिन के जमाने में रूस का बजट अमेरिकी फेडरल डिपार्टमेंट का कोई अंडरसेक्रेटरी लिखा करता था। आज कमोबेश हिंदुस्तान का वही हाल है। अमेरिकी इशारों पर मनमोहन सिंह की सरकार कान पकड़कर उठने-बैठने के लिए तैयार है। परिणाम सामने है- २६/११ मुंबई बमकांड के मुख्य षड्यंत्रकारी डेविड कोलमैन हेडली का प्रत्यर्पण हिंदुस्तान का बुनियादी अधिकार है, पर हमारी सरकार हेडली को मांगने की हिम्मत तक नहीं जुटाती। ‘भारत रत्न’ राष्ट्रपति रहे डॉ. एपीजे अबुल कलाम से राजनयिक बदतमीजी की जाती है, भारत सरकार मौन रहती है। अमेरिका में भारतीय राजदूत मीरा शंकर से अभद्रता होती है, भारत इसे गंभीरता से नहीं लेता। भारतीय उपउच्चायुक्त देवयानी खोब्रागडे को सार्वजनिक स्थान पर बेड़ियां डाल कर घुमाया जाता है भारत सरकार औपचारिक विरोध भी डर-डर कर करती है।

तब हमारी ताकत मास्को था...

आप सोच रहे होंगे कि मैं विधानसभा चुनावों की बात करते-करते रूस-अमेरिका की बात क्यों करने लगा? आप मानें या न मानें सच यही है कि हिंदुस्तान में सरकार का चयन भले ‘बैलेट’ से होता हो पर सरकारें चलती वैश्विक राजनीति के अलंबरदारों के इशारों पर। १९८० के दशक तक दिल्ली का सत्तासमीकरण मॉस्को, लंदन, पेरिस और वॉशिंगटन के चतुष्कोण से संचालित था। मॉस्को का प्रभाव इंदिरा गांधी के कार्यकाल तक सर्वाधिक था। हिंदुस्तान तकनीक, युद्ध सामग्री और संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद में सोवियत संघ के वीटो का प्रार्थी था। सुरक्षा परिषद में लियोनिद ब्रेजनेव यदि इंदिरा गांधी के पक्ष में न खड़े होते तो १९७१-७२ में अमेरिका के रिचर्ड निक्सन और हेनरी किसिंजर बांग्लादेश में हस्तक्षेप के मुद्दे पर भारत को रौंद डालते। जब इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल लगाया तब अमेरिका आपातकाल विरोधियों को प्रश्रय दे रहा था, पर रूस इंदिरा गांधी के पक्ष में खड़ा था। १९८० में जब इंदिरा गांधी सत्ता में वापस आर्इं तो उन्होंने मोरारजी देसाई को अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए का एजेंट करार देने का अकादमिक अभियान चलाया। चूंकि दिल्ली उन दिनों मॉस्को के प्रभाव में थी इसलिए हिंदुस्तान का अर्थतंत्र साम्यवादी था। ब्रेजनेव से आंद्रोपोव के कार्यकाल तक सोवियत संघ में बढ़िया बंगला, फर्नीचर, कार, जूते-कपड़े, तेल-फुलेल, विदेशी यात्राओं के टिकट और डॉलर की पहुंच पार्टी के चंद वफादार नेता और बुद्धिजीवी ही पाते थे। सोवियत नागरिक न पांच सितारा होटल में कदम रख सकता था और न ही विदेशी माल बेचनेवाले की दुकान में उसका प्रवेश अपेक्षित था। हिंदुस्तान का भी यही हाल था।

सोवियत विघटन से साम्यवाद हुआ पराजित

इंदिरा गांधी कार्यकाल तक डॉलर खर्च करना, विदेशी यात्राएं करना चुनिंदा लोगों के बूते की बात थी। सोवियत संघ में गोर्बाचोव और हिंदुस्तान में राजीव गांधी का शासनकाल समकालीन है। गोर्बाचोव दूरसंचार क्रांति यानी टेलीविजन और कंप्यूटर द्वारा वैश्विक दूरी को समेटने के चलते ‘खुलेपन’ को मंजूर करने के लिए मजबूर हुए। भारत में भी दूरसंचार क्रांति का पहला चरण राजीव गांधी काल में ‘खुलेपन’ की मुनादी पीटता हुआ आया। गोर्बाचोव ने जैसे ही ढील बरती अनुशासनहीनता ने सिर उठाया, भ्रष्टाचार खुलकर खेलने लगा। यदि गोर्बाचोव का शासनकाल जारी रहता आर्थिक सुधार धीरे-धीरे होते और पार्टी का शासनतंत्र फौरन नहीं टूटता। पर अमेरिका को जल्दी थी सोवियत विघटन करा साम्यवाद को पराजित करने की। सो येल्तसिन को सत्ता की चाबी सौंप दी गई। येल्तसिन साम्यवाद को सीधे पूंजीवाद की तेज गाड़ी पर छलांग लगवा बैठे। इस क्रम में उनके चमचों ने आवंâठ डूब कर भ्रष्टाचार किया। अमेरिकी विशेषज्ञ डेनियल कॉफमान ने सोवियत संघ के सार्वजनिक उद्योगों की सुनियोजित लूट को निजीकरण का नाम देकर वैâसे लूटा गया इसका विशद वर्णन किया है। भांति-भांति के तरीके अपना कर नेताओं और प्रबंधकों को अमीर बनाया गया। अब रूस बच गया था। अमेरिका ने अंतर्राष्ट्रीय वित्त संस्थाओं से जनहित के कार्य संपन्न करने के नाम पर कर्ज दिलवाया। जनहित के लिए लाए गए कर्ज का अधिकांश हिस्सा रिश्वत में बंटा और वापस विदेशी बैंकों में चला गया।

‘नवरत्न’ बाजार में नीलाम होते रहे

राजीव गांधी भले गोर्बाचोव नहीं थे, पर उन्होंने अर्थतंत्र को पश्चिम के लिए खोलने की व्यापक शुरुआत तो की। नरसिंहराव जब शासन में आए तब तक हिंदुस्तानी ‘पेरेस्त्रोइका’ (खुलापन) सुनिश्चित हो चुका था। विश्वनाथ प्रताप सिंह और चंद्रशेखर की सरकारें भी येल्तसिन की तरह ही इंटरनेशनल मोनेटरी फंड और विश्वबैंक के दरवाजे पर कटोरा लिए खड़ी थी। तब अमेरिकी सोवियत संघ को लूटने में मस्त थे, सो हिंदुस्तानी येल्तसिन यानी मनमोहन सिंह से सिर्पâ रुपए को परिवर्तनीय करा लिया। नरसिंहराव सरकार अभी तक समाजवादी कांग्रेसियों की चंगुल से मुक्त नहीं थी। सो, २ साल बाद १९९३ में उदारवाद पर ब्रेक लग गया। १९९३- १९९८ तक उदारवाद धीमी गति से चला। १९९८- २००४ के बीच उसने कुलांचे मारने का काम किया। ‘नवरत्न’ बाजार में नीलाम हो रहे थे। २००४-२००८ में मनमोहन की सरकार साम्यवाद के कंधे पर सवार थी, सो वह फर्राटा मारने की सोच नहीं सकती थी। २००८ में जब विश्वव्यापी मंदी आई और अमेरिकी बैंक-वित्तीय संस्थान कंगाली घोषित करने लगे तब तक अमेरिका रूस के साथ-साथ चीन का बाजार भी अपनी क्षमता भर चर चुका था। उसके पास हिंदुस्तान को चरने के अलावा विशेष विकल्प शेष नहीं थे। सो, उसी अवधि में ‘ब्राजील-रूस-इंडिया-चायना (ब्रिक) का बखान शुरू हुआ। बराक ओबामा मनमोहन सिंह को अपना ‘आर्थिक गुरु’ करार देने लगे। २ साल के भीतर हिंदुस्तान के आर्थिक विकास के गीत गाकर उसमें तेजी लाकर सट्टे का एक स्तर बनाया। फिर तेजी से पूंजी खींच कर बाजार को धड़ाम से गिरा दिया। परिणाम १९९१-२०१० तक आर्थिक क्रांति के श्रेय लूटने वाले सारी आर्थिक बाजीगरी भूल गए। अब तो आर्थिक मुद्दों पर मनमोहन सिंह का मुंह ही नहीं खुलता। चिदंबरम की चमत्कार कला चूल्हे में जा चुकी है।

सत्ताधीश-कॉरपोरेट और अफसरशाही बेनकाब

दुनियाभर के विशेषज्ञ कहते आए हैं कि अमेरिका ने भारत जैसे तीसरी दुनिया के देशों की सरकारों को पूंजी, प्रौद्योगिकी और हथियार आपूर्ति कर अपने चंगुल में ले रखा है। इन देशों के चुनिंदा लोगों की महत्वाकांक्षाएं पूरी की जाती हैं। ऐसे लोगों की अपनी एक अलग दुनिया बना दी जाती है जहां वे सामथ्र्य का उपभोग करने में उलझे होते हैं। गरीबों के गुस्से, सामाजिक उथल-पुथल और सामाजिक उत्तरदायित्व से दूर रखा जाता है। बदले में इन देशों की प्राकृतिक संपदा और सस्ते श्रम का हरसंभव शोषण किया जाता है। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक के सशर्त कर्जों को तीसरी दुनिया के भ्रष्ट और अक्षम सरकारों को टिकाए रखने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। पुतिन रूस में आए तो उन्होंने भ्रष्टाचार को भस्म तो नहीं किया पर सरकार को सशक्त बना कर अंतर्राष्ट्रीय राजनय में रूस को पुनस्र्थापित करने का प्रयास किया। पुतिन के साथियों के खिलाफ भी भ्रष्टाचार के आंदोलन खड़े हुए, पर वेंâद्रीय सत्ता की धमक नहीं घटी। हिंदुस्तान में मनमोहन सिंह के दूसरे कार्यकाल में संसाधनों की लूट के पर्दाफाश शुरू हुए। सत्ताधीश नेता-कॉरपोरेट और अफसरशाही की तिकड़ी बेनकाब होना शुरू हुई। तो विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के एनजीओ वाले उतार दिए गए।

‘बोनसाई’ को कल्पवृक्ष बनाने की कवायद

जनाक्रोश को ‘डाइवर्ट’ करने के इरादे से ही केजरीवाल एंड कंपनी ने लोकपाल अभियान छेड़ा। केजरीवाल उतरे तो लोकपाल के नाम दीवानखाने को आकर्षित करने वाले सतही आंदोलनों का ‘ट्रोजन हॉर्स’ उतरा। अण्णा हजारे के इस आंदोलन का शिकार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी हुआ। सो, तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष अण्णा हजारे और रामदेव का गुण गाने लगे। परिणाम-सत्ताधारियों की विकल्प भाजपा उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड सब जगह मात खाने लगी। भाजपा विकल्प न देने पाए, मनमोहन के आका यही तो चाहेंगे। साल भर के मंथन के बाद भाजपा में नरेंद्र मोदी और राजनाथ सिंह की जोड़ी ने सत्ता को सीधी चुनौती पेश की। नितिन गडकरी, अण्णा हजारे-रामदेव में सरकार का विकल्प ढूंढ रहे थे। राजनाथ सिंह ने नरेंद्र मोदी को सत्ता के विकल्प की कमान सौंपी। परिणाम सामने है जो भाजपा नितीश कुमार की कनखियों पर कांपती थी, वह उनकी छाती पर मूंग दल रही है। येदियुरप्पा भाजपा में लौटने की बाट देख रहे हैं। राजस्थान में कांग्रेस जहां पहुंची है वहां उसे अब सत्ता मृगमरीचिका नजर आएगी। मध्य प्रदेश-छत्तीसगढ़ में हैट्रिक का हंटर चला है। दिल्ली में केजरीवाल बौने साबित होकर ‘जो गति सांप-छछूंदर ‘वाली के शिकार हैं। फिर भी इजिप्त क्रांति के ‘बोनसाई’ को राजनीति का कल्पवृक्ष करार दिए जाने की कवायद। यह कवायद क्यों? ताकि विश्वशक्ति अपने मनचाहे मीरजाफर को सत्ता का प्रासंगिक सरदार बनाए रख सके। बात यहीं अटक जाती है। मोदी अमेरिका विरोधी नहीं हो सकते। भाजपा से धुर अमेरिका विरोधी राजनीति की दरकार भी नहीं, जरूरत भी नहीं। पर क्या वह येल्तसिन के बाद वाले पुतिन होंगे?

मोदी हैं मनमोहनवादी मरियल मंजर का विकल्प?

यदि वह मध्यवर्ग को बाजार में टिके रहने का विश्वासबोध भी करा दें तो बात बन सकती है। चार राज्यों में भाजपा की बढ़त में यह अपेक्षा शामिल है। क्या सचमुच मोदी के पास मनमोहनवादी मरियल मंजर का कोई आर्थिक विकल्प है जो जनता का विश्वास जगा सके? फिलवक्त तो मनमोहन-मोदी और केजरीवाल हर किसी की अर्थप्रणाली की नाभिनाल विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से जुड़ी है। हम उसे एकाएक काटकर फेंक नहीं सकते। पर यह विश्वास जरूर दिला सकते हैं कि हम उनसे अपने हितों की शर्तों पर व्यवहार करेंगे। मनमोहन में यह दम नहीं, केजरीवाल तो उनके कुनबे के पालतू हैं, क्या मोदी इस मजबूरी से मुक्त हैं? अगर भारत नरेन्द्र मोदी में पूरी तरह से विश्वास जाहिर करता है तो क्या वे अखण्ड भारत के ब्लादिमिर पुतिन बन पायेंगे जो अमेरिका को अपनी योजना में सफल होने से पहले ही वह ताकत दे सके जो बिखरने के बाद पुतिन ने रूस को दिया है?

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