गन्ने की पेराई पर मिल मालिकों का प्रतिबंध
निश्चित रूप से दादागिरी है। इसमें सरकार का दखल जरूरी है। किसानों के
हितों का पोषण सरकार की जवाबदारी है। चीनी विवाद मात्र से थोक बाजार में
उठान के संकेत मिल चुके हैं। इस असर खुदरा बाजार पर भी पड़ेगा। आलू, प्याज,
टमाटर की महंगाई की मार से पस्त जनता को कड़वी शक्कर को मुश्किल से पचाना
पड़ेगा। गन्ना किसानों के बारे में सरकार को अपने रवैए पर गंभीर विचार करना
चाहिए। महंगाई से जूझ रही जनता को आगामी दिनों में महंगी शक्कर का भी
बोझ ढोना पड़ सकता है। इस मामले में केंद्र सरकार और खाद्य मंत्रालय की पहल
की सराहना नहीं की जा सकती है। उत्तर प्रदेश में शक्कर मिलर्स ने गन्ने की
पेराई बंद कर दी है। गन्ना किसान सरकारी राहत के लिए सड़क पर उतर आए।
महाराष्ट्र के सांगली और कोल्हापुर में भी किसानों ने अपने तेवर दिखाए।
कर्नाटक के बेलगाम में भी गन्ना किसानों की उग्रता दिखी। हालात देख कर यह
सहज अनुमान लगाए जा सकते हैं कि गन्ना किसानों के हाल क्या है। चीनी मिलों
की लचर व्यवस्था पर सरकार का अंकुश असफल है। हालत इस बात के भी संकेत दे
हैं कि आने वाले दिनों में गन्ने की खेती प्रभावित होगी। लिहाजा, चीनी का
उत्पादन घटना तय है। फिलहाल सरकार ने वर्तमान हालत को देखते हुए चीनी
उत्पादन में तीन प्रतिशत की कमी होने का संकेत दे दिया है। सरकार, चीनी
मिलर्स और गन्ना किसानों का यह संघर्ष आज के नहीं हैं।
केंद्र सरकार ने
बीमार शक्कर मिलों को जीवन प्रदान करने के लिए ऋण मुक्त ब्याज देने पर
विचार किया। लेकिन जिस तरह बीमार मिलो (उद्योगपतियों) की चिंता की गई यदि
उस चिंता में किसानों को भी शामिल कर लिया जाता तो, किसानों के आक्रोश पर
तत्काल सहानुभूति के छिंटे जरूर पड़ जाते। सरकार का यह कह कर खुश होना उत्पादन की कमी से देश में शक्कर आपूर्ति की
समस्या नहीं आएगी, कुशल व्यापार नीति पर बट्टा लगाना जान पड़ता है। यदि हम
शक्कर पर आत्मनिर्भर हैं तो निर्यात का पुख्ता इंतजाम किया जाना चाहिए।
किसानों को अधिक प्रोत्साहन देना चाहिए।
शक्कर का कच्चा माल गन्ना किसानों
की सौगात है। कच्चे माल की बुनियाद पर ही उद्योग की स्थापना की जाती है।
ऐसे में गन्ना किसानों की मांग को दरकिनार करके बीमार शक्कर मिलों की चिंता
उद्योगपतियों पर मेहरबानी से गन्ना किसानों का उग्र होना स्वाभाविक है।
भारत शक्कर के उत्पादन और खपत करने दोनों में उस्ताद माना जाता है। दुनिया
में ब्राजील के बाद भारत में शक्कर का उत्पादन सबसे ज्यादा है। ऐसे में देश
के गन्ना किसान को खुशहाल होना चाहिए, मगर अफसोस गन्ना किसानों को अपनी
बदहाली को लेकर सड़कों पर उतरना पड़ता है। लगातार आंदोलन के बाद भी उनकी सुध
नहीं ली जाती है। शक्कर उत्पादन को लेकर सरकार को अपने रैवए पर विचार करना
चाहिए। गन्ने की पेराई पर मिलर्स का प्रतिबंध निश्चित रूप से दादागिरी है।
इसमें सरकार का दखल जरूरी है। कृषकों के हितों का पोषण सरकार की जवाबदारी
है।
गन्ने की पेराई बंद करने, मिलर्स पर किसानों का करोड़ों रुपए का बकाया,
निर्धारित मूल्य पर गन्ने का भुगतान और अन्य कारणों से सरकार द्वारा मिलर्स
पर दर्ज कराई गई एफआईआर गतिरोध का मुख्य मुद्दा है। रिपोर्ट पर अपेक्षित
कार्रवाई नहीं होने से किसान नाराज हैं और मिलर्स की दबंगई जारी है। इन
परिस्थितियों में गन्ना गतिरोध समाप्त होते नहीं दिखता है। पेराई के बंद
होने से किसानों की परेशानी बढ़ जाएगी। उत्पादन विलंब से शुरू होगा इससे
लागत में वृद्धि स्वाभाविक है। जिसका बोझ अंतत: जनता के कंधे पर ही आएगा।
पिछले दिनों उत्पादन में कमी की चर्चा मात्र से हाजिर स्टाक में शक्कर
की कीमत में एक प्रतिशत के इजाफे से थोक में शक्कर की कीमत 3200 से 3275
रुपए प्रति क्विंटल हो गई। इधर आशंका जाहिर की जा रही है कि आगामी दिनों
में शक्कर की दर में तीन प्रतिशत की बढ़ोतरी हो सकती है। दूसरी तरफ केंद्र
सरकार से पहले ही शक्कर के उत्पादन शुल्क पर वृद्धि करने की अपनी मंशा
जाहिर कर चुकी है। साथ ही चीनी मिलों को नियंत्रण मुक्त की योजना को
प्रस्तुत किया जा चुका है और इसे अमलीजामा पहने की कवायद जारी है। हालांकि
इस योजना को अंजाम देने के पीछे उतार-चढ़ाव, आयात-निर्यात में व्याप्त
असंतुलन, प्रर्याप्त भंडारण की कमी आदि को महत्वपूर्ण कारण माने जा सकते
हैं। प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार परिषद (पीएमईएसी) के अध्यक्ष सी
रंगराजन की अगुआई वाली समिति ने पिछले साल ही शक्कर से जुड़े हुए दो तरह के
नियंत्रण, मसलन-निर्गम प्रणाली और लेवी शक्कर को अविलंब समाप्त करने की
सिफारिश की थी। इतना ही नहीं, इस समिति ने शक्कर उधोग पर आरोपित अन्यान्य
नियंत्रणों को भी क्रमश: समाप्त करने की बात कही थी। इस मामले पर अभी भी
कार्रवाई लंबित है। यदि इस योजना को अमलीजामा पहनाया जाता है तो उसके सुख
परिणाम समाने आएंगे इसकी गारंटी नहीं दी जा सकती है।
विनियंत्रण के मामले
में देश के सर्वाधिक उत्पादक राज्य उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र के अलावा
अन्य 10 राज्यों ने अपनी मंशा से केंद्र को अवगत करा दिया है। इससे
विनियंत्रण का रास्ता साफ हो गया है। इस लिहाज से कहा जा सकता है अब गेंद
केंद्र के पाले में है। विनियंत्रण को किसानों के पक्ष में माना जा रहा है।
वे अपने गन्ने की बिक्री अधिक कीमत देने वाले मिलर्स को बेच सकेंगे। किंतु
हरहाल में गन्ने की न्यूनतम मूल्य के निर्धारण में सरकार का दखल होगा।
लेकिन सरकार की इस दखल को चीनी मिलर्स की लॉबी अपने पक्ष में प्रभावित करने
में कोई कसर नहीं छोड़ेगी।
शक्कर उद्योग पर सरकार का नियंत्रण दो तरीके से किया जाता है। सरकार
शक्कर का कोटा तय करती है जिसे खुले बाजार में बेचा जाता है। मिलर्स से
उत्पादन का 10 प्रतिशत शक्कर लेवी में ली जाती है। जिसे राशन दुकानों में
उपलब्ध कराया जाता है। फिलहाल लेवी की 20 रुपए की शक्कर 13.50 रुपए में
बेची जा रही है। किंतु इससे किसानों को राहत मिलने की गुंजाइश कम है। बताया
जा रहा है 98 लाख टन शक्कर हमारे मौजूदा स्टाक में है। आगामी वित्तीय वर्ष
में हमार उत्पादन 2.44 करोड़ टन के रहने की संभावना है। इससे हमारे कुल
उत्पादन में हमको दो से ढाई लाख टन का नुकसान उठाना पड़ सकता है। उत्पादन
आंकड़ों के लिहाज से इस परिस्थिति की गणना सामान्य उतार-चढ़ाव के रूप से देखा
जाएगा। किंतु देश की आर्थिक समृद्धि और प्रतियोगी नजरिए से नजर अंदाज नहीं
किया जा सकता है।
भारतीय चीनी मिल संघ (इस्मा) ने सरकार के दावा को खोखला
बताया है। संघ के अनुसार उत्तर प्रदेश के साथ तमिलनाडु में भी शक्कर
उत्पादन में गिरावट की आशंका है। इधर महाराष्ट्र में भी किसानों को असंतोष
उजागर हो रहा उत्पादन में गिरावट से चीन के मूल्य में अप्रत्यशित वृद्धि हो
सकती है। जिस पर नियंत्रण आसान नहीं होगा। गन्ना किसान और मिलर्स के बीच
में सरकार द्वारा निर्धारित 280 रुपए प्रति क्विंटल गन्ने की कीमत विवाद का
प्रमुख मुद्दा है। चीनी विवाद मात्र से थोक बाजार में उठान के संकेत मिल
चुके हैं। इस असर खुदरा बाजार पर भी पड़ेगा। आलू, प्याज, टमाटर की महंगाई की
मार से पस्त जनता को कड़वी शक्कर को मुश्किल से पचाना पड़ेगा।
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