06 December 2013

भुज का भयानक त्रासदी !

आप भूले नहीं होंगे। अभी अभी की बात है। इसी 15 अगस्त की। आजादी का जश्न मनाते हुए, गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र दामोदारदास मोदी ने भुज की तरक्की का जिक्र किया था और उन्होंने देशभर के लोगों को भुज आने का न्योता भी दिया था। और किसी पर इसका असर हुआ कि न हुआ लेकिन नरेन्द्र भाई के इस न्योते ने मुझे भुज (गुजरात) जाने के लिए प्रेरित किया। यात्रा शायद इसलिए भी जरूरी लगी कि इसी भुज में आज से बारह साल पहले ऐसे ही आजादी के एक और पर्व गणतंत्र दिवस के अवसर पर 26 जनवरी 2001 को भुज में जन गण मन के साथ साथ उसे मटियामेट कर देनेवाला भयानक भूकंप भी आया था। उस भूकम्प में लगभग 19,000 लोगों की मृत्यु हुई। 16,7000 लोग घायल हुए। एक अनुमान के अनुसार, इस भूकम्प में गुजरात का 22,000 करोड़ का आर्थिक नुक्सान हुआ था। एक दशक से भी दो साल ज्यादा बीत गये और भूकंप के बाद मुख्यमंत्री बनकर आये नरेन्द्र भाई दामोदर दास मोदी ने भुज आने का न्यौता भी दे दिया लेकिन भुज अब भी उस आपदा से बाहर नहीं निकल पाया है। 

उसी आपदा में भुज का एक कस्बा चित्रोड़ भी प्रभावित हुआ था। इसी चित्रोड़ में शांतिबेन प्रेमजी से मुलाकात हुई। उनके पति दिहाड़ी मजदूर हैं। मुश्किल से घर का खर्च चलता है। पुराना घर जब भूकम्प की भेंट चढ़ गया। पुराने घर के मलबे पर झोपड़ी बनाकर शांति बेन आज भी अपने छह बच्चों के साथ रहती है। उनके नाम पर पुनर्वास में एक घर हैं, लेकिन नाम होने से क्या होता है? वे जब अपना अधिकार मांगने जाती हैं, उन्हें समझा दिया जाता है कि उनके नाम का कोई घर नहीं है। दलित समाज से ताल्लुक रखने वाली शांति बेन के पास ना अब लड़ने का साहस बचा है और ना ही इतना संसाधन है। पति की दिहाड़ी मजदूरी से मुश्किल से घर चल पाता है। बकौल शांति बेनः ‘अब हम घर मिलने की उम्मीद छोड़ चुके हैं।

कच्छ जिलान्तर्गत आने वाला गांव चित्रोड़ रापड़ ताल्लुका में आता है। यह गांव कच्छ में आए भूकम्प के बाद मलबे में तब्दील हुआ था। इस वजह से पूरे गांव का पुनर्वास हुआ। पुनर्वास के कागजों से गुजरते हुए और पुनर्वास के गांव में घुमते हुए कई तरह की गड़बड़िया सामने नजर आई। गांव के धर्मेन्द्र कांजी भाई प्रजापति कहते हैं- पुनर्वास में 604 मकान बनाए गए। जबकि जो गांव भूकम्प से प्रभावित हुआ था, उसमें 450 मकान ही थे। इसका मतलब 150 मकान जरूरत से अधिक बने। 450 में भी कई लोगों ने मुआब्जे की रकम ले ली थी। उनके लिए मकान बनने का कोई सवाल ही नहीं था। धर्मेंन्द्र के अनुसार पुनर्वास के गांव में कई ऐसे लोगों को भी घर मिला जिनका वहां घर ही नहीं था। जो यहां पढ़ाने आए थे, नौकरी कर रहे थे या फिर जिनको मकान बनाने की जिम्मेवारी मिली थी, उस एनजीओ से ताल्लुक रखते थे। धर्मेन्द ने आरटीआई के माध्यम से काफी जानकारी निकाली है, आरटीआई के आधार पर उन्होंने कहा- यहां एक एक ऐसे व्यक्ति भी हैं, जिन्होंने एक दर्जन मकान ले लिए हैं, अपने परिवार के अलग-अलग लोगों के नाम पर। जिनका यहां का राशन कार्ड नहीं था, ऐसे लोगों ने ना सिर्फ घर पर कब्जा किया बल्कि उन्हें बिजली का मीटर भी मिल गया।

मोदी को जिस धार्मिक बंटवारे के लिए देशभर में बदनाम किया गया है, उससे उलट यहां एक और बंटवारा नजर आया। शायद राज्य सरकार ने ही बहुत संवेदनशील तरीके से यह बंटवारा कर दिया हो, लेकिन चित्रोड़ के पुनर्वास कॉलोनी में जातिवाद साफ नजर आता है। यहां नया मकान देने का आधार यह बिल्कुल नहीं था कि जैसा पुराना मकान था, वैसा नया मकान मिलेगा। यहां तीन तरह के मकान नजर आए। जिसे जाति के आधार पर बांटा गया। इस कहानी का सबसे दुखद हिस्सा यह है कि दो-ढाई सौ घर जरूरत से अधिक बनने के बाद भी एक दर्जन लोग घर पाने से वंचित रह गए। कुछ थककर भूल गए अपना घर।
नवीन चन्द्र बाइलाल जोशी जो समोसे बेचकर अपना घर बड़ी मुश्किल से चला पाते हैं। वे दस साल तक भंसाली टस्ट के चक्कर काटते रहे और उन्हें हर बार यह कहकर वापस कर दिया जाता था कि उनका नाम सूचि में नहीं है। भंसाली ट्रस्ट के जिम्मे ही यहां के पुनर्वास का काम था। वे हार गए थे और हर महीने अपना घर होने के बावजूद किराए के घर में रहने को मजबूर थे। उन्हें सूचना के अधिकार से ही यह जानकारी मिली की उनका नाम सूची में है। दस साल बाद उन्होंने मिले कागज के दम पर अपने ही गांव में लड़ाई लड़ी और उन्हें अपना घर मिला। इससे पहले जोशी ने दस साल किराए के मकान में काट दिए। पत्नी के गहने भी उन्हें बेचने पड़े़। जब उन्हें घर मिला, उनके घर में तीन मीटर लगे हुए थे। उन मीटरों का बिल जोशी को चुकाना पड़ा। इन तीन मीटर में एक मीटर था, वीरेन्द्र सिंह का, जिन्हें जानकारी भी नहीं थी कि उनके नाम से कोई घर भी अलॉट कर किया गया है।

पुनर्वास कॉलोनी में घर अलॉट करने का तरिका भी अनोखा था, जो जिस घर में चला गया, वह उसका घर। आज भूकम्प के इतने सालों के बाद भी पुनर्वास कालोनी में किसी के पास अपने घर का कागज नहीं है। ना ही यह घर रहने वाले के नाम से अलॉट है। रहने वाला ना इस घर के नाम पर लोन ले सकता है और ना ही इसे कानूनी तौर पर बेच सकता है। इस वक्त धमेन्द्र 23 साल के हैं, भूकम्प के साल वह 11-12 साल के थे, वह इस बात से हैरान है कि जिनके नाम पर घर अलॉट हुए हैं, उनमें उनके स्कूल के दोस्तों के नाम भी शामिल हैं। धर्मेन्द्र को भी बताया गया था कि उनका नाम लिस्ट में नहीं है। उन्होंने भी अपना हक लड़कर छह-सात साल के बाद लिया। जो लड़ सकते थे, उन्होंने अपना घर ले लिया लेकिन ऐसे लोग बिना घर लिए रह गए जो लड़ नहीं सकते थे।

भुज आने का निमंत्रण देने वाले गुजरात के मुख्यमंत्री से क्या यह उम्मीद रखना गलत होगा कि देश दुनिया को बुलावा भेजने से पहले एक बार उन घरों की तरफ नजर उठाकर दोबारा देख लें जिन्हें भूकम्प ने बारह साल पहले बर्बाद कर दिया था। 12 साल बाद ही सही, पीड़ितों को प्यारे मुख्यमंत्री से कुछ तो न्याय मिल ही जाना चाहिए। उन्हें चित्रोड़ में हुई गड़बड़ियों की जांच भी करानी चाहिए। क्या पता कोई बड़ा घोटाला ही सामने आ जाए?

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