कांग्रेस और भाजपा की पारंपरिक राजनीति से
उकताई हुई जनता की बदलाव की आकांक्षा के दम पर आखिरकार अरविंद केजरीवाल
दिल्ली के मुख्यमंत्री बन गए हैं। एक अलग किस्म की राजनीति करके एक अलग
किस्म का इंसान राजनीति की सीढ़ी पर चढ़ता चला गया और सबको भौंचक्का करते
हुए मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुँच गया। ऐसा इंसान भले ही खुद को 'आम
आदमी' कहता रहे, साधारण आदमी तो वह नहीं है। एक व्यक्ति जिसके राजनैतिक दल
का पंजीकरण हुए अभी महज एक साल हुआ है, 125 वर्ष से भी अधिक पुरानी पार्टी
के उपाध्यक्ष को यह कहने पर मजबूर कर देता है कि हमें उनके (केजरीवाल)
तौरतरीकों से सीखने की जरूरत है।
क्या यह अविश्वसनीय नहीं लगता? रातोंरात एक व्यक्ति अपनी छोटी
सी टीम, राजनैतिक चातुरी और संकल्प के दम पर युवा वर्ग के साथ तालमेल
बिठाने और दूसरे नागरिकों के मन में उम्मीद जगाने में सफल रहता है। धनबल,
बाहुबल, पेड न्यूज और चुनावी अनियमितताओं की पारंपरिक चुनौतियों को वह
जन-समर्थन के बल पर धराशायी करता है। न बड़े-बड़े प्रतिद्वंद्वियों के
हमलों से विचलित होता है और न उमड़ते जन-समर्थन के उन्माद में आता है। वह
लगातार जमीन से जुड़ा रहता है और सकारात्मक बात करता रहता है। राजनीति की
चालों का जवाब उसी अंदाज में देते हुए आखिरकार वह मुख्यमंत्री की कुर्सी पर
पहुँच जाता है। क्या यह कहानी बच्चों की किसी पत्रिका में छपने वाली
परीकथा जैसी प्रतीत नहीं होती? अरविंद केजरीवाल और उनके साथियों की कहानी
कुछ-कुछ इसी अंदाज में घटित हुई है- राजनैतिक दिग्गजों, मीडिया के
विश्लेषकों और चुनाव विशेषज्ञों को किसी नींद से जगाती हुई।
दिल्ली के नए मुख्यमंत्री सादगी से जीवन बिताना चाहते हैं। चर्चा गरम है
कि यह उनका नया शिगूफा है। लेकिन वास्तविकता क्या है, क्या नहीं, इसका
फैसला कोई और कैसे कर सकता है। सिर्फ अरविंद ही जान सकते हैं कि जो राजयोग
लगभग हर व्यक्ति का सपना है, उसके प्राप्त होने पर वे उस ऐश्वर्य से दूर
क्यों रहना चाहते हैं जो उनका स्वाभाविक अधिकार है? क्या वे इससे कहीं बड़ी
कुर्सी पर निगाह लगाए हुए हैं? जितने मुँह, उतनी बातें। अरविंद केजरीवाल
के मन में क्या है, इसका अनुमान मुझ जैसे वे लोग नहीं लगा सकते जो
'राजनेता' की एक खास किस्म की छवि, एक खास किस्म के खाँचे को देखते रहने के
आदी हो चुके हैं। भारतीय राजनीति में ऐसा कब होता है जब किसी पार्टी का
प्रमुख चुनाव से पहले यह कह दे कि अगर उसके खिलाफ आरोप सिद्ध हो जाते हैं
तो पार्टी अपने सारे उम्मीदवार हटा लेगी? और यह भी कि अगर मैं भ्रष्ट सिद्ध
होता हूँ तो मुझे उससे दोगुनी सजा दी जाए जो कानून के तहत बनती है।
राजनीति के पारंपरिक विश्लेषण का स्वाभाविक निष्कर्ष यह माना गया कि अरविंद
दिल्ली में सरकार नहीं बनाएंगे और दोबारा चुनाव के हालात बनाना पसंद
करेंगे ताकि उनकी पार्टी साफ बहुमत लेकर सत्ता में लौट आए। लेकिन राजनीति
की चालें चलने में माहिर हो चुके अरविंद केजरीवाल ने मतदाताओं के साथ
संपर्क अभियान चलाने के बाद सरकार बनाने की घोषणा करके हमें फिर चौंकाया।
इसे देखकर इतना तो तय है कि इस इंसान को खोने का डर नहीं है। और जिस चुनौती
से बच निकलने का आरोप उन पर प्रतिद्वंद्वी लगा रहे थे, उसे स्वीकार करने
के लिए वह मानसिक रूप से तैयार है।
आम धारणाओं से अलग
अब जो धारणा बन रही है, वह यह कि अरविंद कुछ ही दिन में ऐसे फैसले करेंगे जिनसे कांग्रेस नाराज होगी और अपना समर्थन वापस ले लेगी। नतीजा? सरकार गिरने की तोहमत कांग्रेस पर आएगी और चुनावों में लाभ आम आदमी पार्टी को होगा। बहरहाल, शायद ऐसा सोचकर हम अरविंद केजरीवाल नाम की इस अनूठी राजनैतिक परिघटना का सामान्यीकरण कर रहे हों। शायद वे इस अपेक्षित घटनाक्रम से एकदम अलग कोई कदम उठाएँ! आखिर यह विश्वास कर लेने में क्या बुराई है कि अरविंद केजरीवाल संजीगदी के साथ दिल्ली की सरकार चलाना चाहते हैं। व्यावहारिक या अव्यावहारिक, जितने भी चुनावी वायदे उन्होंने किए, उनके क्रियान्वयन का सिलसिला वे शुरू करना चाहते हैं। अगर वे ऐसा कर सके तो आम आदमी पार्टी की साख और मजबूत होगी, जिसकी उसे जरूरत है अपनी राष्ट्रीय उपस्थिति सुनिश्चित करने के लिए। आखिरकार यहाँ एक ऐसी पार्टी है, जिसका इतिहास महज सवा साल पुराना है और इतने से वक्त में वह एक राज्य में सत्ता में आ चुकी है तथा अब अपना प्रसार दूसरे राज्यों तक करना विकास की स्वाभाविक प्रक्रिया है। यह प्रक्रिया आसान नहीं होगी और इस दौरान उनकी साख पर सवाल उठेंगे। दिल्ली की सरकार के अच्छे, सकारात्मक काम यह साख पैदा करने में यकीनन मदद करेंगे।
दिल्ली की सरकार चलाना कोई छोटी चुनौती नहीं है- और वह भी एक ऐसी पार्टी के लिए जो आमूलचूल बदलाव की बात करती है, जो भ्रष्टाचार के समापन की बात करती है। अच्छा-खासा सरकारी अनुभव पा चुके अरविंद इस बात से कतई अनजान नहीं होंगे कि उनके सामने मौजूद चुनौतियाँ छोटी नहीं हैं और किसी एक दिशा से नहीं आतीं। केंद्र सरकार ने जिस तरह उनके शपथ ग्रहण के दो दिन पहले एलएनजी (गैस) के दाम बढ़ाए, उससे इन चुनौतियों का अनुमान लग जाता है। दिल्ली के मुख्यमंत्री को केंद्र सरकार के आर्थिक, प्रशासनिक और राजनैतिक सहयोग की आवश्यकता पड़ती है। यह पूर्ण राज्य नहीं है। यहाँ मुख्यमंत्री के अधिकार बहुत सीमित हैं। लेकिन जनता की उम्मीदों का कोई पारावार नहीं। क्या कांग्रेस का बाहरी समर्थन केंद्र सरकार द्वारा मिलने वाले सहयोग में भी परिणित होगा? उम्मीद बहुत कम है।
बाधाएँ कई दिशाओं से
केंद्र का रवैया नई सरकार के लिए एक बड़ी बाधा सिद्ध होने वाला है। लेकिन उससे भी बड़ी समस्या उस अफसरशाही की तरफ से आएगी, जिसका श्री केजरीवाल को खासा अनुभव है। वे निरंतर कहते रहे हैं कि यह वर्ग आम आदमी के दिए करों पर पलता है लेकिन इस पर आम आदमी का कोई नियंत्रण नहीं है। यह वर्ग उसके साथ मालिक के रूप में पेश आता है जबकि वास्तव में इस वर्ग की नौकरी और आमदनी आम आदमी की बदौलत आ रही है। भारत की अफसरशाही एक बेहद सुरक्षित लौह-आवरण में लिपटी है और सरकार भले ही किसी भी दल की आए, वास्तविक शासक यही अधिकारी वर्ग है। जरा सा छूने पर वह बिफर उठती है। एकजुट हो जाती है और असहयोग करने लगती है। श्री केजरीवाल किस चतुराई से इस वर्ग से निपटते हैं और भ्रष्ट तत्वों के विरुद्ध कार्रवाई करते हुए भी अपने जरूरी एजेंडा का पालन करवाने में कामयाब होते हैं, यह आने वाले दिनों में स्पष्ट होगा। देवयानी खोबरागड़े का मामला देखिए। इससे पहले कितने छोटे-बड़े व्यक्तित्वों के साथ अमेरिका में बदसलूकी हुई लेकिन जब एक आईएफएस पर आँच आई तो हमारा राजनयिक समुदाय किस कदर एकजुट तथा आक्रामक हो गया? बात दो देशों के बीच गंभीर मतभेदों के स्तर तक आ पहुंची है। इस बात से कोई इंकार नहीं कि देवयानी के साथ अमेरिका में जो भी हुआ, गलत हुआ। लेकिन फ़र्ज कीजिए कि अगर देवयानी की जगह कोई आम आदमी या फिर कोई गैर-आईएफएस खास आदमी भी होता तो क्या बात इतनी आगे बढ़ती?
कांग्रेस और भाजपा के लिए आम आदमी पार्टी की सरकार को पचाना आसान नहीं होगा। अरविंद केजरीवाल को मानकर चलना चाहिए कि उन्हें दोनों तरफ से भरपूर चुनौती मिलेगी। विधायी कार्यवाहियाँ आसान नहीं सिद्ध होने वाली। आखिरकार दोनों तरफ लक्ष्य स्पष्ट है। दिल्ली पुलिस राज्य सरकार के अधीन नहीं है। अगर दिल्ली में फिर कोई गड़बड़ी होती है तो तोहमत नई सरकार पर आएगी, भले ही कानून-व्यवस्था पर उसका नियंत्रण न हो। उसी तरह, जैसे शीला दीक्षित सरकार पर आती थी। लेकिन पहले स्थिति अलग थी, अब स्थिति अलग है। दिल्ली में विकास कार्यों पर प्रदेश सरकार का एकाधिकार नहीं है। शहर की देखरेख और विकास का जिम्मा पाँच तरह के स्थानीय निकायों के हाथ में है। उसके बाद आती है दिल्ली सरकार। लेकिन तीनों दिल्ली नगर निगमों का नियंत्रण भाजपा के अधीन है। दिल्ली के नागरिक के सामने यह स्पष्ट नहीं है कि कौनसा काम नगर निगम का है और कौनसा प्रदेश सरकार के जिम्मे आता है। नई सरकार को न सिर्फ काम करना है बल्कि यह भी सुनिश्चित करना है कि नगर निगमों के प्रति उभरने वाले आक्रोश का परिणाम कहीं आम आदमी पार्टी को न झेलना पड़े। एक शक्तिहीन सरकार को चलाना आसान नहीं है। वह भी जब जनता की अपेक्षाएँ आसमान छू रही हों और आपकी टीम के पास अनुभव नहीं हो। टीम केजरीवाल के इरादों पर शक नहीं किया जा सकता। उसने नतीजे सामने लाकर रख दिए हैं। संकल्प भी साफ दिखाई देता है और महत्वाकांक्षा भी। लेकिन उन्हें प्रशासनिक अनुभव की कसौटी पर कसा जाना बाकी है। ईश्वर करे, सपने जैसे इस घटनाक्रम का दुखान्त न हो। इसके साथ दिल्ली और भारत के सकारात्मक सोच वाले नागरिकों की उम्मीदें जुड़ी हैं।
No comments:
Post a Comment