‘आम आदमी पार्टी’ ने दिल्ली विधानसभा चुनाव
में जो करिश्मा कर डाला है, उससे मौजूदा सड़ी-गली राजनीति से ऊब चुके लोगों
में एक नया उत्साह पैदा हुआ है और ‘आप’ के इस प्रयोग को देश भर में अन्यत्र
सफल बनाने की बात की जाने लगी है। एक जबर्दस्त जनांदोलन से पैदा हुए
उत्तराखंड राज्य के पूरी तरह चौपट हो जाने से परेशान लोगों को भी यह जरूरत
महसूस हो रही है कि दिल्ली जैसा कुछ उत्तराखंड में भी हो जाना चाहिये।
निश्चित ही दिल्ली के इस प्रयोग को सर्वत्र दोहराया जाना चाहिये। मगर क्या
यह प्रयोग अन्यत्र भी सफल होगा? यह समझने के लिये इसकी पड़ताल करना जरूरी
है।
बीस साल पहले देश में आर्थिक उदारीकरण लागू होने के बाद एक ओर
अरबपतियों की तादाद बढ़ी तो दूसरी ओर संसाधनों की लूट-झपट से आम जनता को
गरीबी की सीेमारेखा से परे धकेल देने की प्रक्रिया बहुत तेज हुई।
भ्रष्टाचार देश में नेहरू-इन्दिरा के जमाने में भी कम नहीं था, लेकिन
निजीकरण- उदारीकरण के बाद इसने इतना विराट रूप धारण कर लिया कि जो
इक्का-दुक्का घोटाले सामने आ सके, उन्ही से आँखें चौंधिया गईं। स्वाभाविक
था कि राजनीति और जनान्दोलनों में सक्रिय ईमानदार लोग इस भ्रष्टाचार से
चिन्तित हो कर इसका इलाज ढूँढने की कोशिश करते। अतः एक ओर चुनावी राजनीति
में स्थापित किसम-किसम के राजनैतिक दल कांग्रेस और भाजपा के नेतृत्व में
बने मोर्चों से इतर तीसरे विकल्प के लिये जोड़-तोड़ में लगे तो देश के
कोने-कोने में जल, जंगल, जमीन पर अधिकार और सुशासन आदि मुद्दों को लेकर चल
रहे तमाम जनान्दोलनों से जुड़े संगठन व लोग भी बात-बहस में जुटे कि इस
राजनीति को कैसे आमूल बदला जाये।
पिछले पाँचेक सालों में इस प्रक्रिया में तेजी आयी। वर्ष 2007-08 में
पहले ‘लोक राजनीति मंच’ का प्रयोग शुरू हुआ और फिर उसके एकाध साल बाद
‘आजादी बचाओ आन्दोलन’ की पहल पर ‘जन संसद’ का। देश भर के सक्रिय
जनान्दोलनकारी संगठनों के प्रतिनिधियों के साथ अरविन्द केजरीवाल, प्रशान्त
भूषण, योगेन्द्र यादव, आनन्द कुमार और अजित झा जैसे लोग, जो इन दिनों ‘आम
आदमी पार्टी’ को नेतृत्व दे रहे हैं, भी इस प्रक्रिया में निरन्तर शामिल
रहे थे। लेकिन ये कोशिशें न तो परवान चढ़ीं और न ही पूरी तरह खत्म हुईं।
बैठक-सम्मेलनों का सिलसिला बना रहा, कभी बातचीत में अच्छी प्रगति होती
दिखाई देती तो कभी एकदम गतिरोध आ जाता। गतिरोध के पीछे की वजहें
सैद्धान्तिक इतनी नहीं होती थीं, जितनी व्यक्तियों के अहं या विभिन्न
संगठनों के परस्पर स्वार्थों को लेकर होने वाले टकराव की थीं या फिर
एन.जी.ओ. बनाम जन संगठन के उलझे सवाल को लेकर मतभेद उभर आते थे। यह एक बेहद
महत्वपूर्ण प्रक्रिया चल रही थी, लेकिन मीडिया में इसकी कोई चर्चा नहीं
थी। जनान्दोलनों को लेकर मीडिया में उपेक्षा का गहरा भाव होता है। देश के
कोने-कोने में लगातार चलते रहने वाले आन्दोलनों के बारे में सूचना देने में
मीडिया जबर्दस्त कंजूसी बरतता है। इसलिये बावजूद इसके कि उत्तराखंड के
अल्मोड़ा से लेकर महाराष्ट्र के भद्रावती तक ऐसी बैठकें होती रहीं, देश के
सामान्य नागरिक को भनक भी नहीं लगी कि ऐसी कोई प्रक्रिया चल रही है। अन्यथा
क्या पता नये लोग इस प्रक्रिया से जुड़ते। अन्ततः चिन्तित सिर्फ वही लोग
नहीं होते, जो इस या उस संगठन से पहले से जुड़े होते हैं, बल्कि भ्रष्टाचार
से दुःखी असंख्य लोग देश भर में यत्र-तत्र-सर्वत्र बिखरे हुए हैं, जो कुछ न
कुछ करना भी चाहते हैं मगर कर नहीं पाते। वे जानते ही नहीं कि किससे
मिलें, क्या करें ? इन्हें आपस में मिलाने या रास्ता सुझाने का काम मीडिया
कर सकता है, लेकिन ऐसा करने में उसके व्यावसायिक स्वार्थ आड़े आते हैं।
अप्रेल 2011 में ‘इंडिया अगेन्स्ट करप्शन’ के बैनर तले ‘जन लोकपाल’
विधेयक पारित करने की माँग को लेकर अण्णा हजारे का आन्दोलन शुरू हुआ।
अरविन्द केजरीवाल, प्रशान्त भूषण, किरण बेदी आदि इस आन्दोलन में अण्णा के
साथ थे। न जाने क्यों अपने अब तक के रिकॉर्ड के विपरीत मीडिया ने
आश्चर्यजनक रूप से इस आन्दोलन में जबर्दस्त रुचि दिखाई। उन दिनों ऐसा लगता
था कि मानो सारे अखबारों और समाचार चैनलों ने एक जगह मिल कर यह कसम खाई हो
कि विश्व कप क्रिकेट से ठीक पहले हो रहे इस आन्दोलन को भी वर्ल्ड कप की तरह
ही एक बड़ी ‘ईवेंट’ बना दिया जाये। समाचार चैनल चौबीसों घण्टे इस आन्दोलन
की खबरें चलाने लगे तो समाचार पत्र अपने पहले पेज इस आन्दोलन की सचित्र
खबरों से भरने लगे। इसका रहस्य खोजना एक शोध का विषय हो सकता है कि अन्यथा
जनान्दोलनों को हिकारत की दृष्टि से देखने वाले मीडिया की रुचि एकाएक अण्णा
के आन्दोलन में कैसे हो पड़ी। जबकि अण्णा हजारे तो तीस साल से भी अधिक समय
से सामाजिक क्षेत्र में सक्रिय थे और सामाजिक कर्म में रहने वाले लोगों में
भी कुछ ही लोग उन्हें जानते थे। उनके प्रदेश महाराष्ट्र में तक उन्हें
पहचानने वाले बहुत कम थे। उस वक्त लोकपाल आन्दोलन को लेकर मीडिया के इस
अद्भुत उत्साह की एक व्याख्या यह की गई कि उन दिनों प्रकाश में आये
कॉमनवेल्थ खेल घोटाला, टू जी घोटाला, नीरा राडिया टेप्स आदि को लेकर जनता
के भीतर गुस्सा बहुत बढ़ चुका है। कॉरपोरेट जगत ने आँकलन किया किया यदि इस
गुस्से का धीरे-धीरे रिसाव न हुआ तो यह बहुत हिंसक ढंग से फूटेगा, जो उसके
लिये बहुत अधिक खतरनाक होगा। जनता भी यह सच्चाई समझ लेगी कि भ्रष्टाचार की
ताली एक हाथ से नहीं बजती। यदि राजनीतिज्ञ बेईमान हैं तो उन्हें बेईमान
बनाने वाली ये बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ ही हैं। अतः कॉरपोरेट मीडिया ने तय किया
कि अण्णा हजारे के जन लोकपाल आन्दोलन के माध्यम से जनता के गुस्से के रिसाव
के लिये एक रास्ता निकले।
बहरहाल कारण जो भी रहा हो, मीडिया द्वारा जन लोकपाल विधेयक आन्दोलन को
‘ईवेंट’ बना दिये जाने का परिणाम यह रहा कि देश का बच्चा-बच्चा अब तक
गुमनामी में रहे अण्णा हजारे को पहचानने लगा। उन तमाम लोगों को, जो बढ़ते
भ्रष्टाचार से गुस्सा तो थे और समझ नहीं पाते थे कि देश को पतन के गर्क में
जाने से रोकने में उनकी क्या भूमिका हो सकती है, अपने गुस्से का इजहार
करने का मौका मिला। दिल्ली इसका केन्द्र रहा, मगर देश भर में लाखों की
संख्या में लोग इस आन्दोलन में शामिल हुए। अनेक लोग तो अच्छी-भली नौकरियाँ
छोड़ कर इस आन्दोलन में कूदे। ये वे लोग थे, जिन्हें अपने आसपास चल रहे जन
संघर्षों की कोई चेतना नहीं थी, राजनीति के नाम पर मार्क्सवाद, गांधीवाद,
समाजवाद, अम्बेडकरवाद, हिन्दू राष्ट्रवाद जैसी किसी प्रचलित विचारधारा से
भी वे अनभिज्ञ थे, मगर देश में बढ़ते भ्रष्टाचार के रोग ने उन्हें व्याकुल
किया था। ‘टीम अण्णा’, जैसा कि अरविन्द केजरीवाल, प्रशान्त भूषण आदि
‘इंडिया अगेन्स्ट करप्शन’ के लोगों को उन दिनों कहा जाता था, के साथ शिक्षा
जगत, कानून, मीडिया, आई.टी. और मैनेजमेंट आदि के विशेषज्ञों, खासकर युवा
पेशेवरों का एक बड़ा समूह जुड़ा। टीम अण्णा को इस बात का श्रेय दिया जाना
चाहिये कि उसने इन पेशेवरों को एक मकसद के साथ एकजुट होकर काम करने का पूरा
मौका दिया। इन लोगों की क्षमताओं का पूरा-पूरा उपयोग हुआ और अब तक के
आन्दोलनों से अलग ‘जन लोकपाल विधेयक’ का मुद्दा यों जन साधारण के सामने
गया, जैसे किसी कम्पनी का उत्पाद उपभोक्ताओं के पास जाता है। यह प्रयोग
जनान्दोलनों में पहली बार हो रहा था।
मीडिया को अण्णा आन्दोलन से जितना कमाना-खाना था, उसने किया और फिर थोड़े
समय बाद इस आन्दोलन में रुचि लेना धीरे-धीरे कम कर दिया। मीडिया के बनाये
तूफान से जो अनावश्यक भीड़ लोकपाल आन्दोलन में आयी थी, वह भी छँट गई। जन
लोकपाल विधेयक आन्दोलन किसी नतीजे पर नहीं पहुँचा और अभी भी वह मुद्दा घिसट
ही रहा है। अण्णा को आजकल फिर ‘जन लोकपाल’ के लिये अपने गाँव रालेगण
सिद्धी में आमरण अनशन पर बैठना पड़ रहा है। हो सकता है दिल्ली में ‘आम आदमी
पार्टी’ की अप्रत्याशित विजय के बाद पैदा हुए दबाव से कांग्रेस और भाजपा अब
उस विधेयक को पारित करने को विवश हो जायें। मगर 2011 के उस आन्दोलन के
बहाने अण्णा और ‘इंडिया अगेन्स्ट करप्शन’ के उनके साथियों को एक देशव्यापी
पहचान तो मिल ही गई। जनता के लिये अपनी पूरी जिन्दगी झोंक देने वाले, बल्कि
शहीद हो जाने वाले लोगों को वह प्रसिद्धि कभी नहीं मिल पाती जो अण्णा
हजारे, अरविन्द केजरीवाल और उनके साथियों को अप्रेल 2011 से अगस्त 2011 के
बीच मिली। मीडिया की इस ताकत, जिसका अन्यथा लगातार दुरुपयोग होता है, को
अण्णा आन्दोलन और ‘आप’ के उदय के संदर्भ में भली भाँति समझा जाना चाहिये।
यह भी सोचना चाहिये कि ‘आप’ जैसे प्रयोग क्या अन्यत्र हुए तो मीडिया इसी
तरह सहभागी की भूमिका में रहेगा, जैसा तब रहा था?
2011 का आन्दोलन सुस्त पड़ा, मगर केजरीवाल और उनके साथियों की इतनी
हैसियत बनी रही कि उनकी गतिविधियों की चर्चा पहले पेज पर न सही, अखबार के
भीतरी पेजों पर बनी रही। वे जनता की स्मृति से खारिज नहीं हुए। इन लोगों ने
एक महत्वपूर्ण काम यह भी किया कि आन्दोलन के ढीले पड़ जाने के दौर में भी,
जैसा कि प्रायः ऐसे आन्दोलनों के साथ होता है अपने साथ जुड़े कार्यकर्ताओं
को हताश-निराश होकर घर बैठ जाने के लिये विवश नहीं होने दिया। जनता में
भ्रष्टाचार को लेकर जिज्ञासा जग ही गई थी, उन्होंने जब जहाँ से सम्भव हुआ,
अपनी युवा पेशेवर टीम के माध्यम से सुराग लगा भ्रष्टाचार का भंडाफोड़ करने
की मुहिम जारी रखी।
अण्णा व्यावहारिक राजनीति के स्तर पर मूर्खता के स्तर तक भोले व्यक्ति
हैं, मगर केजरीवाल ने यह महसूस कर लिया कि खुल कर राजनीति में आये बगैर
भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम आगे नहीं बढ़ सकती। परन्तु इस मुद्दे पर वे अण्णा
को सहमत नहीं कर सके। अण्णा और केजरीवाल बिछुड़े तो केजरीवाल ने ‘आम आदमी
पार्टी’ बना ली। कुछ लोग अण्णा के साथ रहे, लेकिन ‘इंडिया अगेन्स्ट करप्शन’
के ज्यादातर लोग नये राजनीतिक दल में आ गये। केजरीवाल ने लम्बे समय से
जनान्दोलनों में रहे देश भर के लोगों को भी अपने साथ लाने की बहुतेरी कोशिश
की, लेकिन चुनावी राजनीति के अब तक के अनुभवों से बुरी तरह जले इन
आन्दोलनकारियों में से इक्का-दुक्का को छोड़ कर अधिकांश ने अरविन्द केजरीवाल
द्वारा पेश की जा रही छाछ को चखने से भी इन्कार कर दिया।
लेकिन अरविन्द केजरीवाल और उनके साथियों ने आग से खेलने का अपना इरादा
छोड़ा नहीं। उन्होंने चुनावी राजनीति को एक मंजिल तक पहुँचा कर भी दिखा
दिया। उन्होंने जाति, धर्म, विचारधारा आदि के लफड़े में पड़े बगैर सिर्फ समाज
में व्याप्त भ्रष्टाचार के विरोध और मध्यवर्गीय नैतिकता के सर्वमान्य आधार
पर अपनी राजनीति को आगे बढ़ाने का प्रयोग किया। चुनावी राजनीति के सारे
फार्मूलों को ‘आप’ ने एक-एक कर तोड़ा। चुनाव में मतदाता की एक धारणा होती है
कि ‘इस भले आदमी’ को तो जीतना नहीं है, जीत भी गया तो यह ‘अकेला भला आदमी’
क्या कर लेगा? फिर क्यों अपना वोट बर्बाद किया जाये? इसलिये ये जो बेईमान
पार्टियाँ हैं, इनमें जो कम चोर है, उसे वोट दे दो। इस धारणा को ‘आप’ ने
‘एक भला आदमी’ से ‘भले आदमियों का समूह’ बना कर और जमीनी जरूरतों-हकीकतों
का घोषणापत्र बना कर सफलतापूर्वक तोड़ा। उम्मीदवार चुनने के पैमाने बनाये।
लूट-खसोट की राजनीति से बुरी तरह आजिज आ गये जन सामान्य के पास आधुनिक
तकनीकी, प्रबंधन और कौशल के जरिये ‘आम आदमी पार्टी’ के घोषणापत्र और
‘स्वराज’ के विचार को एक बार फिर उसी तरह सामान्य मतदाता तक पहुँचाया, जैसे
कोई सुसंगठित कम्पनी अपना नया उत्पाद पहुँचा रही हो। इस तरह के आधुनिक
प्रबन्ध कौशल की कोई कमी बड़े राजनीतिक दलों में नहीं है, वे उसका भरपूर
प्रयोग करते भी हैं। लेकिन उसके कार्यकर्ता में वह संकल्प और ईमानदारी की
ताकत कहाँ से आती, जो ‘आप’ के स्वयंसेवकों में थी ?
देश के कोने-कोने से ही नहीं, विदेशों से तक स्वयंसेवक ‘आम आदमी पार्टी’
का प्रचार करने के लिये दिल्ली में जुटे। कांग्रेस-भाजपा के कार्यकर्ता के
लिये चुनाव एक धंधा होता है। बड़े नेता करोड़ों-अरबों कमाने के लालच में
होते हैं तो छोटा कार्यकर्ता हजार-लाख कमाने के। वह ‘हाई प्रोफाइल’,
‘हाईटेक’ प्रचार और बड़े नेताओं की बड़ी रैलियों पर निर्भर होता है। मतदाताओं
को आमने-सामने की बातचीत से समझाने का आत्मविश्वास उसके पास नहीं होता।
इसके उलट ‘आप’ के कार्यकताओं में एक जुनून था, भ्रष्टाचार मिटाने के लिये
बदलाव लाने का। इन दो भावनाओं का फर्क ही दिल्ली विधान सभा के चुनाव में
निर्णायक रहा।
‘आम आदमी पार्टी’ की सफलता सबके सामने है। अब आगे क्या होगा, यह जानने
की उत्सुकता भी सभी को है। जिस भाजपा-कांग्रेस संस्कृति से केजरीवाल सीधे
भिड़ रहे हैं, वह कुटिल है। ‘आप’ द्वारा पैदा की गई नैतिकता की मजबूरी के
तहत कांग्रेस-भाजपा को अल्पमत सरकार चलाने के जोड़-तोड़ से अलग रहना पड़ रहा
है। यह कुठाराघात वे ज्यादा देर तक कैसे बर्दाश्त कर लेंगे? इस तरह की
नैतिकता आ गई तो राजनीति जिस तरह पूर्णकालिक व्यवसाय और सबसे बड़े मुनाफे का
धंधा बन गई है, वह आगे कैसे बनी रहेगी?
मगर बदलाव की यह सुखद बयार आज की पीढ़ी भले ही पहली बार महसूस कर रही हो,
भारतीय राजनीति में पहले भी अनेक बार आती रही है। 1967 में लोहिया के गैर
कांग्रेसवाद ने अनेक प्रदेशों में ‘संविद’ सरकारें बनवायी थीं। उस वक्त
भ्रष्टाचार पर जब चोट पड़ती तो हम लोग खुशी से उछल-उछल पड़ते थे। मगर बहुत
जल्दी ही भ्रष्ट राजनीतिक व्यवस्था ने उस प्रयोग को निगल लिया। जेपी
आन्दोलन के बाद पैदा हुए उत्साह और इमर्जेंसी के दमन के बाद बनी जनता
पार्टी का तो बिस्मिल्लाह ही इतना गलत हुआ कि हिन्दू साम्प्रदायिकता के रोग
को अत्यत बेशर्मी से राजनीति में स्थायी रूप से टिक जाने का मौका मिल गया।
‘आम आदमी पार्टी’ को उन पुराने अनुभवों से सीखना होगा। सबसे बड़ी सीख तो
उसके लिये यही हो सकती है कि उसका जन्म एक जनान्दोलन से हुआ है और
जनान्दोलनों से उसका जुड़ाव ही उसे जीवन्त बनाये रख सकता है।
लेकिन भारतीय राजनीति में बदलाव चाहने वालों को भी ‘आम आदमी पार्टी’ के
प्रयोग से सीखना चाहिये। चुनावों से नाक-भौं चढ़ाने के बदले उन्हें स्वीकार
करना चाहिये कि जनान्दोलनों को चुनावी राजनीति में बदलने की अभी पर्याप्त
संभावनायें हैं। 2011 में अण्णा आन्दोलन निश्चित रूप से एक मीडिया
प्रायोजित आन्दोलन था, मगर उसके ‘आम आदमी पार्टी’ में रूपान्तरित होने के
बाद मीडिया ने उसे तवज्जो नहीं दी। जिस दिन केजरीवाल ने रिलायंस का भंडाफोड़
किया, उसके बाद तो उनकी साख अखबारों में और भी गिर गई, क्योंकि अम्बानी की
नाराजगी पर कॉरपोरेट मीडिया साँस भी कैसे ले सकता है? दिल्ली विधानसभा
चुनाव ‘आप’ ने कमोबेश बगैर मीडिया की मदद के, सिर्फ आधुनिक तकनीकी, प्रबंध
कौशल और उत्साही कार्यकर्ताओं के बूते पर ही लड़ा। मीडिया को मोदी की जै
जैकार करने से ही फुर्सत नहीं थी, ‘आप’ की जै जैकार तो उसने तब शुरू की जब
‘आप’ की सफलता का डंका उसके बगैर भी बजने लगा। अतः यह गंभीरता से सोचा जाना
चाहिये कि मीडिया के असहयोग के बावजूद कैसे नयी पीढ़ी, जो फिलहाल पूरी तरह
अराजनीतिक है मगर बदलाव की आकांक्षा भी रखती है, के अधिक से अधिक लोगों को
पहले जनान्दोलनों और फिर चुनावी राजनीति में सहभागिता के लिये प्रेरित किया
जाये। यह सबसे बड़ी चुनौती है।
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